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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Tuesday, 26 September 2017

ऑस्कर पुरस्कार हेतु नामांकित 'न्यूटन' फिल्म की संक्षिप्त समीक्षा सुनील श्रीवास्तव के द्वारा

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सबसे बड़े लोकतंत्र की पोल खोलता फिल्म 'न्यूटन'
(एक फिल्म समीक्षा )

Nature and Nature's laws lay hid in night
God said, 'Let Newton be!' and all was light.
-Alexander Pope

अंधकार में छिपे नियमों को प्रकाश में लाने के मानव-प्रयत्नों का ही तो प्रतीक है न्यूटन। 'न्यूटन' फ़िल्म देखने से पहले मैंने सिर्फ इसका एक पोस्टर देखा था जिसमें पंकज त्रिपाठी मिलिट्री ड्रेस पहने जंगल में खड़े थे। फ़िल्म के कथ्य के बारे में कोई अनुमान नहीं लग पा रहा था। फ़िल्म के नाम का इस पोस्टर से कोई सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा था। किन्तु, जब फ़िल्म शुरू होती है तो थोड़ी ही देर में फ़िल्म के नामकरण का कारण और अर्थ स्पष्ट हो जाता है जब ट्रेनर की भूमिका निभा रहे संजय मिश्रा एक संवाद में कहते हैं कि न्यूटन ने यह साबित किया कि प्रकृति का कानून सब जगह एक है। जो नियम धरती पर है वही आकाश में भी। अम्बानी और एक चायवाले को किसी ऊँचाई से एक साथ गिराया जाए तो दोनो एक साथ ही जमीन पर पहुँचेंगे।

युवा अपर डिवीजन क्लर्क न्यूटन कुमार इसी विश्वास के साथ कि जो लोकतंत्र और उसका कानून पूरे देश में है वही विद्रोह की ज्वाला में धधक रहे सुदूर जंगलों में भी, छत्तीसगढ़ के जंगल के एक बूथ पर चुनाव कराने की ड्यूटी निभाने पहुँचता है। और उसके बाद जो होता है उससे सिर्फ विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की पोल ही नहीं खुलती, देश के ही एक हिस्से में एक दूसरा देश दिखाई पड़ता है। अंत में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात निकलकर सामने आती है वह कि इस व्यवस्था में यदि कोई कानून एवं नियमों का पूरी जिम्मेदारी से पालन करने एवं करवाने की चाह रखता है, वह व्यक्ति चाहे सरकारी कर्मचारी ही क्यों न हो, सिर्फ एक मजाक बनकर रह जाता है।

यह फ़िल्म एक सीख है कि गम्भीर विषयों पर दर्शकों को बाँधे रखनी वाली फ़िल्म किस तरह बनाई जानी चाहिए। एक डार्क कॉमेडी के रूप में 'न्यूटन' एक असरदार और अपने प्रयोजनों को सफल करती फ़िल्म है। सभी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों ने सहज एवं जीवंत अभिनय किए हैं। संवाद मनोरंजक एवं चुटीले हैं। पूरी फ़िल्म के दौरान मैंने हॉल में कई बार ठहाके गूँजते सुने। फिर भी फ़िल्म कहीं अपने उद्देश्यों से भटकती नहीं लगी और बड़ी सहजता से दर्शकों को हँसाते-गुदगुदाते हुए अपना मेसेज उनतक पहुँचाती है।

किन्तु फ़िल्म देखने के बाद एक प्रश्न यह भी दिमाग में आता है कि क्या इस तंत्र के नियम-कानून सिर्फ छत्तीसगढ़ के जंगलों में ही असफल हैं। क्या हमारे नगरों-महानगरो या राजधानी में ही कानून का राज है? क्या नियमों का पालन करने-करवाने वाले हर जगह जोकर बनकर नहीं रह जाते? क्या हम रोज कदम-कदम पर नियमों का उल्लंघन होते नहीं देखते? जंगल तो हर जगह है। फिर फिल्मकारों को छत्तीसगढ़ जाने की क्या जरूरत थी? छत्तीसगढ़ के जंगलों की दूसरी कहानी है जिसे यह फ़िल्म छूती जरूर है, मगर उसमें उतरती नहीं। इस फ़िल्म का जो कथ्य है उसे कहने के लिए छत्तीसगढ़ के उग्रवाद पीड़ित जंगलों का चुनाव, 'अभिव्यक्ति के खतरे उठाने' के लिहाज से थोड़ा सुरक्षित चुनाव लगा मुझे।


खैर, एक न्यूटन के बाद दूसरे न्यूटन की जरूरत तो हमेशा बनी ही रहेगी। एक सार्थक फ़िल्म बनाने के लिए पूरी टीम को बधाई और सफलता की शुभकामनाएँ।
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इस रिपोर्ट के लेखक- सुनील श्रीवास्तव 
आप अपनी प्रतिक्रिया इस ईमेल पर भी भेज स्कते हैं- hemantdas_2001@yahoo.com

लेखक का परिचय: श्री सुनील श्रीवास्तव वामपनथी रुझान वाले एक अत्यंत संवेदनशील समकालीन कवि और गद्यकार हैं. इनकी रचनाएँ देश के शीर्ष हिन्दी पत्रिकाओं जैसे वागर्थ आदि में प्रकाशित होती रहतीं हैं. ये अत्यंत सरल और गम्भीर स्वभाव के व्यक्ति हैं और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन की प्रवृति से बिलकुल दूर रहते हैं. इनका निवास आरा (बिहार) है और ये आयकर विभाग में कार्यरत हैं. 





इस लेख के लेखक सुनील श्रीवास्तव अपनी धर्मपत्नी के साथ



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