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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Friday 15 September 2017

'दूसरा शनिवार' संस्था की कवि गोष्ठी 9.9.2017 को पटना में संपन्न

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अन्याय द्वारा जीवन की संजीदगी एवं सौंदर्य का अपहरण 
(काव्य विमर्श एवं कवि-गोष्ठी : हेमन्त 'हिम' की रिपोर्ट)

दूसरा शानिवार की 9.9.2017 की गाँधी मैदान में हुई गोष्ठी को एक नया आयाम मिला राजकुमार राजन, नरेन्द्र कुमार और अन्य कवियों की पहल पर.साहित्यिक बहस की शुरुआत हुई. इस बार का विषय था- कविता क्यों लिखी जाय और उसका स्वरुप क्या हो? सभी युवा और वरिष्ठ कवियों ने अपने व्यक्तिगत विचारों को जाहिर किया. 

संजय कु. कुंदन ने कहा इसका उत्तर देना कठिन है कि मैं क्यों शायरी करता हूँ. जिस तरह मैं सोता जागता हूँ और खाता-पीता हूँ और अन्य काम करता हूँ उसी तरह से शायरी मेरे दैनिक कार्यों में शामिल हो गई है. बस करता चला जाता हूँ और इससे अपने अन्दर की तिलामिलाहट को बाहर निकाल पाता हूँ.  उन्होंने कहा कि शायरी एक दवा का काम करती है लिखनेवाले के लिए भी और पढनेवाले के लिए भी. साथ ही इस अनुभवी शायर का मानना था शायर या कवि को कविता करने से उसे प्रतिफल क्या मिलेगा इस पर सोचे बिना करते चले जाना चाहिए. कविता की सार्थकता यही है अगर आपके दुनिया से चले जाने के सौ साल बाद भी लोग आपके कम से कम एक भी पंक्ति को पढ़ें और उसका मूल्यांकन करें.

राजिकिशोर राजन ने कहा कि कवि दरअसल कविता का कार्यकर्ता होता है। " अब यह कविता की जिम्मेदारी बनती है कि वह कवि को एक उत्तरदायित्व दे...न केवल उस समाज के प्रति, जिसमें वह पला-बढ़ा है, बल्कि हर उस समाज के प्रति जहाँ पीड़ा ने अपना घर बना लिया है...अन्याय ने जीवन की संजीदगी एवं सौंदर्य का अपहरण कर लिया है। कविता सबसे सशक्त माध्यम है पाठकों पर प्रभाव डालने का इसलिए मैं कविता करता हूँ. कविता ऐसी होनी चाहिए कि वह लोगों की जुबाँ पर रहे, पुस्तकालय के आलमीरों में सिमट के न रह जाए. आगे उन्होंने कहा कि कविता करते समय हर कवि चाहे कितना भी सिद्धस्त क्यों न हो, बिलकुल नया होता है. इसलिए कवियों को वरिष्ठ और कनिष्ठ में बांटना गलत है.

प्रत्यूष चन्द्र मिश्र ने कहा की कविता संवाद सिर्फ समाज से नहीं वल्कि आत्म से भी करती है और इसी में उसकी सार्थकता है. 

अस्मुरारी नंदन मिश्र ने संवाद की सम्प्रेषणीयता पर जोर दिया और कहा कि वही कविता कारगर है जिसमें सन्देश न्यूनतम क्षरण के साथ कवि से निकलकर पाठक तक पहुंचे.

ओसामा खान और कुंदन आनंद ने इस के आगे कहा कि संवाद दिल से निकल कर दिल तक जाना चाहिए अर्थात लिखनेवाला अपने दिल की गहराई में जाकर जो अभिव्यक्त कर रहा हो उसे श्रोता या पाठक उतनी ही संजीदगी से ग्रहण करे. 

संजीव श्रीवास्तव ने कविता के सामजिक सरोकार का मुद्दा उठाया और कहा कि जो कविता समाज के समग्र स्वरुप से अंतःक्रिया करती है वही मजबूत कविता मानी जा सकती है ताकि जिससे समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने की क्षमता हो. 

हेमन्त दास 'हिम' ने कहा कि कविता समाज के बुरे व्यक्तित्वों को सुधारने के लिए सबसे उपयुक्त उपाय है. जो काम उपदेश देने से या कठोर दंड देने से नहीं होता है वह व्यक्ति की संवेदना को जगाने से होता है. चाहे व्यक्ति कितना भी जघन्य अपराधी हो उसका दिल भी किसी न किसी सम्बन्धी या मित्र के प्रति बहुत नरम होता है. कवि का काम है कि वह उसे इतना संवेदनशील बना दे कि हर व्यक्ति अपराधी को अपने प्रिय व्यक्ति जैसा ही लगने लगे.

इस सत्र का संचालन नरेन्द्र कुमार ने बखूबी किया. और जरूरत के अनुसार प्रश्नों को जोड़ते गए. उन्होंने राजकिशोर राजन से सहमति जताते हुए कहा कि कवि सचमुच कविता का मात्र एक कार्यकर्ता होता है जो समय के पूर्णतः सापेक्ष होता है. उसका फलक आतंरिक या बाहरी दोनों में से कोई हो सकता है परन्तु उसका मुख्य उद्देश्य होता है मानव या समाज को बेहतर बनाना.

इसमें राजकिशोर राजन,  कुमार पंकजेश, हेमंत दास हिम, ओसामा खान  नरेन्द्र कुमार, अस्मुरारी नंदन मिश्र, अमीर हम्ज़ा, प्रत्यूषचंद्र मिश्रा , कुन्दन आनन्द , संजीव श्रीवास्तव एवं अन्य शरीक हुए.

दूसरे सत्र में सभी कवियों ने अपनी एक-एक कविता का पाठ किया. रौशनी के कम हो जाने के कारण कार्यवाही नोट करनेवाले को अच्छी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

अस्मुरारी नंदन मिश्र ने व्यर्थ की चिंता की बजाय अपने किये पर मंथन  करने का सन्देश दिया 
"लेकिन चिंता केवल / अधम व्यर्थ है
चिंतन का भी समय वही है
अपने किये-अनकिये के अवलोकन का भी"

राजकिशोर राजन ने पतझड़ की अपेक्षा वसन्त को ही नियति मानना श्रेयस्कर समझा-
"क्यों न! /  बसंत को ही माँ लूँ निष्कर्ष /
जितना सच पतझड़ / उतना ही वसन्त है 
जिऊँगा जितने दिन / रहूँगा संग वसन्त के"


शायर संजय कुमार कुंदन ने भागते वक्त के बीच कुछ पा लेने की कसमकस का खूबसूरत बयां यूँ किया -
"मुट्ठी में थी बंद नदी एक / रेत का होठों पे दरिया था
कम मैंने क्या कोशिश की थी / वक़्त कहाँ रोके रुकता था"

हेमन्त दास 'हिम' ने उस विकट स्थिति को रेखांकित किया जब आपको पता चलता है कि आपके प्रयास तो ठीक हैं किन्तु कृत्य ही पदच्युत है-
"अपनी ही रूह का निगहबान हूँ मैं / यारों सच कहता हों परेशान हूँ मैं
ठीक निशाने पर भी छूटने के बाद / जो लक्ष्य बदल जाए वही वाण हूँ मैं"

ओसामा खान ने अपनी ताकत में मगरूर लोगों के नशा को इस तरह से तोड़ा -
"तेरे गुरूर का नशा उतर गया कैसे / तू तेग ले के चला था तो डर गया कैसे
बड़ी बिसात बिछाई थी जेरबारी की / तेरे खेल का नक्शा बिगड़ गया कैसे"

संजीव श्रीवास्तव ने दो छोटी किन्तु अत्यन्त मार्मिक कवितायेँ पढ़ीं जिनका शीर्षक था - 'छूने के लिए' और 'हाशिये के लोग'.

आमिर हमजा ने गरीबी को इश्क की दीवार बताया और कहा-
"सजदे किये थे मैंने रुख्सारे-इश्क पर 
इबादत क़ुबूल होती / अगर ये गरीबी न होती"
................ 
नोट- जिन कवि का नाम, विचार या पंक्तियाँ छूट गयी हैं वो कृपया शीघ्र भेजें.
इस रिपोर्ट के लेखक - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया भेजने के लिए ईमेल- hemantdas_2001@yahoo.com





















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