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Thursday, 15 November 2018

चिरांद (सारण), बिहार स्थित नवपाषाण कालीन पुरातात्विक स्थल / जीतेन्द्र कुमार

उपेक्षित ऐतिहासिक महत्व के क्षेत्र चिरांद (सारण)  में पर्यटन विकास की महती आवश्यकता
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बिहार का प्रत्येक स्थल अपने आप में विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व वाला है. जहाँ पटना (पाटलिपुत्र)  भारत के प्रसिद्ध मौर्य सम्राट का स्थल रहा है वहीं वैशाली विश्व के प्राचीनतम गणराज्यों में से एक लिच्छवी वंश का स्थल रहा है. मिथिला जहाँ आदि शंकराचार्य को हरा देनेवाली विदुषी भारती का स्थल रही है तो चम्पारण मोहनदास को महात्मा गांधी बनानेवाला स्थान. गया में गौतम बने विश्व को मध्यममार्ग दिखानेवाले बुद्ध और पावापुरी में निर्वाण प्राप्त हुआ विश्व के सबसे अधिक अहिंसावादी जैन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थंकर महावीर को. यहाँ तक कि ताम्रपाषाणकाल और नवपाषाणकाल में भी बिहार के क्षेत्र में लोग उस समय के हिसाब से सभ्यता में काफी आगे थे. चिरांद इन दोनो कालों का जीता-जागता गवाह है जहाँ खुदाई करने पर बौद्ध काल, ताम्रपाषाण काल और नवपाषाणकाल के प्रामाणिक अवशेष प्राप्त हुए हैं. दिनांक 9 नवंबर,2018 को बिहार के जाने-माने विचारक और साहित्यकार जीतेंद्र कुमार अपने परिवार के साथ चिरांद के पुरातात्विक खुदाई वाली जगह पर गए. प्रस्तुत है उनकी तथ्यपूर्ण रपट-



चिरांद छपरा (सारण) ,बिहार से 11 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व दिशा में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है।भोजपुर जिले को सारण जिला से जोड़नेवाला गंगा नदी पर बना नया पुल, जिसका उद्घाटन बिहार के मुख्यमंत्री ने 16 महीना पहले 11 जून, 2017 को किया है, चिरांद गाँव के पास मिलता है। भोजपुर जिले में पुल बबुरा बाजार के पास फोर लेन में मिल जाता है। चिरांद छपरा जिले का श्मशान घाट (बर्निंग घाट) भी है।

चिरांद में बौद्धधर्म के प्रवर्त्तक भगवान बुद्ध के महान् शिष्य आनंद की समाधि पर बौद्ध शैली का स्तूप बना था जिसे आक्रांताओं ने ध्वस्त कर दिया था। अब वह स्थल गंगा के किनारे एक विशाल टिले के रूप में दिखता है।सैकड़ों वर्षों तक भारतवासियों को पता नहीं चला कि गंगा के मैदानी इलाके में गंगा के किनारे इतना बड़ा टिला क्यों है? और इसकी खोज की जानी चाहिए।

पुरातत्वविद् नन्दलाल डे ने सन् 1902 ई. में चिरांद के टीले का निरीक्षण किया था। टीले के पास उनको अइलीराम की बौद्ध मठिया गंगा के किनारे मिली थी। उस मठिया के इर्द गिर्द उनको अनेक बौद्ध मूर्त्तियाँ मिली थी। पास के टीले के बारे में नन्दलाल डे ने निष्कर्ष निकाला कि यहाँ लिच्छवियों द्वारा भगवान बुद्ध के परमशिष्य महाभिक्षु आनंद (567--469 ई.पूर्व) के शरीरावशेष पर बने स्तूप का भग्नावशेष है। इस गाँव का नाम' चिरांद' प्रसिद्ध होने के बारे में उन्होंने विश्लेषण किया कि चिरांद शब्द दो शब्दों से बना है - चिर और आंद। चिर माने चिरना और आंद माने आनंद।

 कहा जाता है कि जब महाभिक्षु आनंद ने देह त्याग किया तब मगध सम्राट अजातशत्रु (शासनकाल 495-463 ई.पूर्व) और उनके समकालीन लिच्छवी गणराज्य के शासक के बीच विवाद हुआ कि महाभिक्षु आनंद के शव की समाधि का अधिकार किसको है? विवाद का हल यह निकला कि महाभिक्षु के शरीरावशेष को दो भागों में विभाजित कर दिया जाए और अपनी अपनी समाधि बनाई जाए। लिच्छवियों ने गंगा के उत्तरी किनारे वैशाली जनपद में महाभिक्षु आनंद के शरीरांश को समाधि दी और उसपर स्तूप बनवाया। अजातशत्रु ने शरीर के दूसरे भाग को गंगा के दक्षिणी किनारे पर पाटलिपुत्र में समाधि दी। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (399--414ई) में चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान भारत आया था। फाह्यान ने भी अपने यात्रा संस्मरण में महाभिक्षु आनंद की दो समाधियों और स्तूपों की चर्चा की है। 

यहाँ मैं यह उल्लेख करना समीचीन समझता हूँ कि जब हमलोग चिरांद खुदाई स्थल पर पहुँचे तो वहाँ एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता राजू कुमार गुप्ता पहुँचे। वहाँ कोई गाइड था नहीं। खुदाई स्थल से मिले सामग्रियों की चर्चा करते हुए राजू कुमार गुप्ता ने कहा कि यहाँ एक सिरविहीन विशाल नरकंकाल मिला था जो लगभग 7 फीट लंबे आदमी का था। पहले तो इस उद्घाटन पर मैं चौंक गया कि क्या किसी की हत्या कर शव को दफ्ना दिया गया था! शीघ्र ही ध्यान आया कि बौद्ध साहित्य में और अन्यत्र उल्लेख है कि महाभिक्षु आनंद के मृत शरीर को विभाजित किया गया था यानी खुदाई में जो नरकंकाल मिला वह बौद्ध भिक्षु आनंद का था।

नया पुल पार करने के बाद एक बोर्ड पर'यादव चौक'लिखा हुआ मिला। एक बोर्ड पर सिर्फ चिरांद लिखा मिला।पता था कि यहाँ एक संग्रहालय भी बना है, लेकिन संग्रहालय पहुँचने के लिए दिशा निर्देश करनेवाला कोई सूचना पट नहीं दिखा। अमिताभ स्कॉर्पियो पूर्व दिशा की ओर बढ़ाये। सामने एक पुलिस इंसपेक्टर बाइक पर आते दिखे। अमिताभ ने गाड़ी रोककर चिरांद संग्रहालय जाने का रास्ता पूछा। पुलिस इंसपेक्टर भले आदमी निकले। उन्होंने कहा कि मेरी बाइक का अनुगमन कीजिए। वे बंगालीबाबा मठ तक गये और कहा कि यहीं से गंगा किनारे से चले जाइये। हमलोग चार थे - कुमार उत्सव, अमिताभ, अमिताभ की माँ और मैं। बंगालीबाबा मठ के पास खड़े 12-14 साल के दो स्थानीय लड़कों की मदद से हमलोग खुदाई स्थल के पास गये। 

खुदाई स्थल के चारो ओर चारदीवारी है। लोहे का ग्रिलगेट प्रवेशद्वार पर है। गेट में ताला बंद था। वहाँ सड़क पर दो ऑटो खड़े थे। ऑटो में बैठे एक युवक के पास गेट के ताला की चाभी थी। युवक ने गेट खोल दिया। हमलोग परिसर में दाखिल हुए। छोटा सा पुराना संग्रहालय है। उस में पुरातत्व की कोई सामग्री नहीं है। परिसर में घास आदि उग आये हैं। बगल में नया संग्रहालय बना है। अभी बंद है। उद्घाटन नहीं हुआ है। फोटो संलग्न है जिसमें नये संग्रहालय को देख सकते हैं।

नये संग्रहालय के पास बाबा धर्मनाथ मिश्र की कुटिया है। कुटिया के सामने अनेक प्रकार के पेड़ पौधे बाबा लगाये हैं। उनका सेवक मो.नईम हैं। मो. नईम ने आग्रहपूर्वक हमारी मुलाकात बाबा धर्मनाथ मिश्र से कराई।पुरातात्विक उत्खनन और उसमें मिले सामानों के प्रति मेरी जिज्ञासा से बाबा बहुत प्रभावित हुए और अपने कमरे से एक किताब निकाल लाए CHIRAND Excavation Report 1961-1964 and 1967-1970.बाबा ने कहा कि इसे पढ़िये और काम हो जाए तो लौटा दीजिए।

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि विभिन्न चरणों में की गई खुदाई के दौरान यहाँ से प्राप्त अवशेषों में ताम्रपाषाण काल के काले और लालरंग के मिट्टी के बर्त्तन, मिट्टी की मूर्तियाँ, मनके और हाथी दाँत से निर्मित वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। ललन कुमार प्रसाद ने लिखा है कि बिहार के सारण जिले का 'चिरांद' नामक स्थल ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं धार्मिक तीनों ही दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। पहले इसकी पहचान ताम्रपाषाण काल के रूप में प्रसिद्ध हुई। बाद में बड़े पैमाने पर खुदाई में मिले अवशेषों से इसका संबंध नवपाषाण काल से भी प्रसिद्ध हो गया।कहने का मतलब कि ईसा से 1500 वर्ष से लेकर 1900 वर्ष पूर्व यहाँ एक सभ्यता विकसित थी। चिंता और दुख की बात यह है कि भारत सरकार और बिहार सरकार जो पटना नगर के फ्लाईओवरों पर पानी की तरह पैसा बहा रही है उसके पास'चिरांद'खुदाई स्थल तक सैलानियों के पहुँचने के लिए दिशा सूचक सूचना पट लगाने के लिए ना कोई धन है ना बिरासत को संरक्षित करने की दृष्टि। स्थानीय निवासियों ने स्थानीय सांसद, विधायक सहित पुरातत्व विभाग के भ्रष्टाचार की तीखी आलोचना की।

11 जून, 2017 को सारण और भोजपुर जिले को जोड़नेवाले जिस पुल का उद्घाटन हुआ है इससे इस स्थल तक आने का मार्ग सहज हुआ है। उस स्थल का विकास जरूरी है। अभी तो यात्रियों को वहाँ एक कप चाय मिलना भी मुश्किल है। हमें अपनी विरासत को बचाना है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम बौद्धधर्म की विरासत को बचाने के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं जैसे बख्तियार खिलजी नालंदा और विक्रमशिला के बौद्ध विश्वविद्यालयों और पुस्तकालयों को जला रहा था और बंगाल का सेन वंश का हिन्दू राजा तमाशा देख रहा था! उसे शायद देश की विरासत और इतिहास के बारे में कोई दृष्टि ही नहीं थी।
.......
आलेख- जीतेंद्र कुमार 
लेखक का लिंक- यहाँ क्लिक कीजिए
छायाचित्र सौजन्य - अमिताभ रंजन
लेखक का परिचय- श्री जीतेंद्र कुमार एक वरिष्ठ चिंतक और साहित्यकार हैं.

लेखक- जीतेंद्र कुमार













3 comments:

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