मौन का व्याकरण नहीं मिलता
(एक पुस्तक-समीक्षा )

प्रेम की तो पहचान ही है - छटपटाहट, तड़प और बेचैनी. और ऊपर से घुटन भी सम्मिलित हो जाए तो क्या कहने! एक ग़ज़लगो को इससे अधिक और कुछ नहीं चाहिए. एक श्रेष्ठ शायर का प्रेम का फलक बहुत व्यापक होता है- प्रेम अपनी प्रेमिका से, परिवार से, सामज से, देश से और सम्पूर्ण मानवता से. कवि घनश्याम एक ऐसे ही शायर हैं जिनकी शायरी में यह सब झलकता है. उनकी भाषा में हिन्दी-उर्दू शब्दों की संश्लिष्टता का जो धाराप्रवाह प्रयोग दिखता है वह शायरी के जगत में विरल है और भाषाविदों द्वारा सम्मान पाने योग्य है.
यह कहने में भी कोई हिचक नहीं है कि घनश्याम जी की शायरी में कथ्य प्रायः सरल है जो सभी लोगों को आसानी से समझ में आ जाए. हम यहाँ उनके कुछ चुने हुए अश'आर रखने जा रहे हैं और उसपर चर्चा भी करेंगे.
घनश्याम जी गहरी अनुभूति वाले शायर हैं इसलिए कहते हैं -
भंगिमाएं भी बात करती हैं
मौन का व्याकरण नहीं मिलता
कितनी गरिमामयी भाषा का प्रयोग करते हुए ये मौन का व्याकरण की बात करते हैं जिनसे पीड़ा की गहराई एक अनोखे सौन्दर्य के साथ एक नए मुहावरे में अभिव्यक्त होती दिख रही है.
एक दूसरे शे'र में वो कहते हैं-
विवश होकर ही तो मैंने चलाए हाथ-पैर अपने
मैं क्या करता अगर पानी मेरे आवक्ष हो जाता.
इसमें भी जिस जीवन पर संकट वाले क्षणों को वो अनोखे तत्सम सौन्दर्य के माध्यम से रख रहे हैं.
भाषा-सौन्दर्य का एक अन्य उदाहरण ही देखिए -
एक विश्व आँखों के भीतर भी होता है
जिसमें सपनों के सारे वंशज पलते हैं
वैचारिक द्वंद्व जब विलोम परिस्थितयों के संबंधों के रूप में उभरता है तो एक चिरजीवी शे'र का निर्माण होता है -
धरा के शुभ्र आँचल पर लगे जब खून के धब्बे
तो उसकी कोख से उत्पन्न गौतम बुद्ध होता है
एक पूरी गज़ल में वे अंकों के रूप में ही अपनी सारी बातें रखते हुए दिखते हैं जो देसी भाषा पर उनकी पकड़ का अप्रतिम उदाहरण है. उसी ग़ज़ल का एक शे'र देखिए -
तीन-तेरह, नौ-अठारह कर रहे जो भी यहाँ
उनको बेपर्दा करें वे सब चतु:शत बीस हैं
समाज और तंत्र प्रायः अनेक प्रकार के विकारों से ग्रस्त होकर निर्बल और भग्न होता चला जाता है. एक सच्चा साहित्यकार निरंतर इस प्रवृति का विरोध करता है चाहे उसे इसके लिए बड़ा से बड़ा जोखिम भी क्यों न लेना पड़े. कवि घनश्याम बिना किसी लाग-लपेट के बड़ी निर्भीकता के साथ सबलतम स्वरों में निनाद करते दिखते हैं -
ये गूंगे और बहरों का शहर है
किसी से कुछ कहना वृथा है
हुआ हमला हमीं पर बाढ़-आंधी-धूप-वर्षा का
सुरक्षित रह गया उनका जहां प्राचीर के पीछे
हो रहीं हों जहाँ ये घृणित साजिशें
आग उस कोठरी में लगा दीजिए
ये बात सही है कि सताए हुए हैं हम
अपना वजूद फिर भी बचाए हुए हैं हम
आईना दिखाने से कोई फ़ायदा नहीं
चहरे को मुखौटों से छुपाए हुए हैं हम
ग़रीबी और बेकारी तो कब की जा चुकी होती
अगर हर तंत्र, हर इक महकमा निष्पक्ष हो जाता
निरंकुशता हमारे देश में यूं पर न फैलाती
सबलतम गर हमारे देश का प्रतिपक्ष हो जाता
न्यायालयों पर किसी प्रकार के अंकुश के दुष्परिणाम पर वे कहते हैं -
अगर हाथ बंध जाएंगे मुंसिफों के
तो बेमौत मर जाएगी हर गवाही
आगे मानवता, गरीबी-उन्मूलन, नैतिकता, और वैचारिक स्वातंत्र्य के पक्ष में कवि घनश्याम के कुछ अश'आर रखे जा रहे हैं -
टुकड़े-टुकड़े रोज़ हो रही मानवता
धर्म हमें तलवार देखाई देता है
मेरे घर में ढनकते हैं पतीले
तुम्हारे घर में ता-ता धिन्न क्यों है
भूल कर भी यह नहीं भरम पालना
तू जो धमकाएगा तो मैं डर जाऊंगा
तेरी मर्ज़ी नहीं मेरी मर्ज़ी पे है
मैं इधर जाऊंगा या उधर जाऊंगा
जब ज़िंदगी की डोर भी औरों के हाथ में
तो जान लीजिए कि पराई है ज़िंदगी
भले ही ज़ख्म से चलनी शरीर हो जाए
जंग जायज के लिए हो तो बार-बार चले
आप ज़हर जो छू लेंगे तो मर जाएंगे
हम तो विषपायी हैं विष पर ही पलते हैं
समय तेवर बदलकर बोलते हैं
सचाई भी संभलकर बोलते हैं
जुबां खामोश है तो हर्ज़ क्या है
निगाहों में बबंडर बोलते हैं
चांदनी रात ने
घाव सारे छिले
ज़ुल्म देखा मगर
होंठ सबके सिले
भ्रष्टता की मांग में सिंदूर है
और नैतिकता हुई विधवा इधर
हमारी ज़िंदगी पर हो गए हैं इस कदर काबिज
हमें अपनी मसाइल आप सुलझाने नहीं देते
उन्होंने बंद अपनी मुट्ठियों में कर लिया ऐसे
किसी को भी ज़िगर के ज़ख्म दिखलाने नहीं देते
लौटकर आ सकेगा कभी क्या
घर से बाहर अभी जो गया है
नेवले घर से निकाले जा रहे
और काले नाग पाले जा रहे
जाति-भाषा धर्म पत्थर की तरह
एक दूजे पर उछाले जा रहे
देख लो! चारों तरफ मंडरा रहे हैं बाज़
वोट के निर्जीव तन को नोंच लेंगे आज
सामाजिक टूट केवल सामुदायिक ही नहीं पारिवारिक स्तर पर भी है. एक शे'र में वे एक एक मंझे हुए शायर की तरह एक बहुत जटिल सामाजिक स्थिति को रख रहे हैं -
किसी घर में नहीं घर का कहीं नामोनिशां मिलता
अगर जाना भी मैं चाहूँ तो आखिर किसके घर जाऊं
राजनीति या सियासत से कभी कविकर्म का बना नहीं है. आप यूं कह सकते हैं कि दोनों एक दूसरे के प्रायः विलोम ही दिखाई देते हैं -
पाशविकता का रगों में बह रहा भूखा लहू
सामने बिखरा हुआ इंसान चारागाह है
उठ रही लहरें भयानक डगमगाती नाव है
बेचकर घोड़ा मगर सोया हुआ मल्लाह है
कहाँ गए वे मुहब्बत के प्यार के रिश्ते
दिलों के बीच अचानक दरार क्यों आखिर
छल, कपट, द्वेष, हिंसा, दमन, यातना
रूप इनसे सियासत संवारा करे
वो गया लेकिन बुराई दे गया
आपसी झगड़ा-लड़ाई दे गया
आदमीयत को सज़ा-ए-मौत दी
रहजनों को रहनुमाई दे गया
जालिम निडर है और ज़माना डरा हुआ
इसकी वजह कहीं न कहीं कुछ कमी तो है
कोई शायर मूलतः प्रेम का अन्वेषक होता है. घनश्याम जी भी इतर नहीं हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर, बशीर बद्र की परंपरा को आगे बढाते हुए वे प्रेम का चिराग जलाने से नहीं चूकते. इनके चिराग में भी बड़े शायरों की तरह आत्मिक नेह की लौ है- हम जहां-भर में जला देंगे मुहब्बत के चराग
और देखेंगे इन्हें आकर बुझाता कौन है
तूने सांसों को छू लिया होता
मैं भी ताज़ा तरीन हो जाता
अंग-प्रत्यंग से फूटती ताज़गी
ओस-चुम्बित प्रफुल्लित कमल आप हैं
मुद्दतों बाद जब उसे देखा
जख्म फिर से हरा हुआ बिलकुल
झेलकर भी निहाल होते हैं
ख़ूबसूरत थकान है बीबी
चीज़ होती है गज़ब की ये प्यार की खुशबू
फूल खिलते हैं तो भौरों को ख़बर होती है
मुझको मरना ही होगा तो मर जाऊंगा
अपनी खुशबू तेरे नाम कर जाऊंगा
यह सच है कि भूख से जूझता हुआ आदमी कविता नहीं लिखता बल्कि रोटी को प्राप्त करने की जद्दो-जहद में लगा रहता है. यह भी सच है कि धन, शिक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में पूर्णतः उपेक्षित सर्वहारा वर्ग कविता नहीं लिखता बल्कि अपनी स्थिति को मानवीय जीवन के स्तर तक लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देता है. तो क्या उनका पक्ष कविता में अभिव्यक्त नहीं होगा. सच्चाई यह है कि पूरी सबलता से अभिव्यक्त होता है क्योंकि घनश्याम जैसे सजग कवि प्रत्येक कालखंड में उपस्थित रहते हैं -
तय किया हमने सफ़र बरसात में
खोमचा, ठेला, मजूरी बन्द है
पर दहकते हैं उदर बरसात में
कौंधती बिजली की उंगली थामकर
श्रेष्ठ कवियों की कुछ बातें निश्चित रूप से एकात्मवादी होतीं हैं पर अधिकांशतः वे परिवेश की हर इकाई जैसे- परिवार और समाज के दुख-दर्द को प्रदर्शित करनेवाली ही होतीं हैं. समाज में कन्या असुरक्षा की विकट समस्या रही है. इसे दो छोटी पंक्तियों में भी पूरे संवेग के साथ कवि घनश्याम रखते हुए दिखाते हैं -
अगर बेटी नहीं होती सयानी
पिता की तंग पेशानी न होती
यद्यपि यह कवि घनश्याम की मूलभूत पहचान तो नहीं है पर फिर भी उनकी पंक्तियाँ कहीं कहीं बड़ा जटिल रूपक रचती दिखाई देती है -
चिपक जाए अगर "घनश्याम" नभ के स्वच्छ चहरे पर
तो उसकी जेब से लटका हुआ रूमाल है सूरज
जीत और हार तो गतिमान जीवन के दो पहलू हैं. पर कभी कभी लोग जीत के पीछे इतने पागल हो जाते हैं कि उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. बाद में उस बात पर उनके पास पछतावे के सिवा कोई चारा नहीं बचता. मानसिक द्वन्द का जटिल रूप यहाँ देखने योग्य है -
इस तरह होगी हमारी जीत ये सोचा न था
सिर्फ नफ़रत ही कमाया और सबकुछ खो दिया
कोई भी अच्छा कवि प्रकृति प्रेमी होता ही है. घनश्याम जी का प्रकृति-प्रेम का स्वर यहाँ बड़े प्रभावी ढंग से उभरा है -
बांधकर हाथ-पाँव नदियों के
कौन इतना निढाल सोता है
जब भी जंगल-पहाड़ कटते हैं
विश्व अपना वजूद खोता है
यह सर्वमान्य है कि कोई श्रेष्ठ कवि मूलतः इसलिए कविता लिखता है क्योंकि उसे सकारात्मक परिवर्तन की आशा होती है. घनश्याम जी की निम्न पंक्तियों में ये बातें चरितार्थ होती दिखाती हैं -
खिड़कियाँ बंद मत करें खुली ही अहने दें
किसी तरफ से कदाचित कोई बयार चले
काँटों से लिपटे लम्हों को
मौत किसी को नहीं छोड़ती
उसको करती मात ग़ज़ल है
फूलों की सौगात ग़ज़ल है
कोई कवि जो रचनाएं लिखता है तो सबकुछ प्रकाशित नहीं करवाता. अपनी ही अनेक सामग्री वह अपरिष्कृत या साधारण मानकर छोड़ देता है. इस कविता-संग्रह का प्रकाशन उनकी दैहिक अवसान के बाद हुआ है. इसलिए कवि स्वयं यह काम नहीं कर पाया और उनके पुत्रों ने उनकी प्रयेक ग़जल और ग़ज़ल के हर शे'र को प्रकाशित करने का प्रयास किया गया है जिससे वैचारिक सघनता कहीं कहीं सामन्य स्तर पर रह गई दिखती है. पर हमें यह भी समझना होगा कि कोई ग़ज़लगो अपनी विलक्षण शे'रों या ग़ज़लों के लिए जाना जाता है जो इस संग्रह में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं.
इस शायर के अश'आर सुबोध हैं जिससे पाठकों में समझने में कोई कठिनाई नहीं होती और वे इसका भरपूर रसास्वादन कर सकते हैं. पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है जिसका लिंक नीचे दिया जा रहा है. पुस्तक प्राप्त करने के लिए वे घनश्याम जी के पुत्रों चैतन्य उषाकिरण चन्दन या एकलव्य केसरी से संपर्क कर सकते हैं.
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बेहद गहन, सांगोपांग समीक्षा. बधाई🌹
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