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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Monday 30 December 2019

रामवृक्ष बेनीपुरी और धर्मवीर भारती की जयंती पर चर्चा और काव्यपाठ पटना में सम्पन्न -

बेनीपुरी रथ का टूटा हुआ पहिया थे और धर्मवीर भारती अतिप्रसिद्ध  'अंधा युग" के रचयिता

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रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, त्याग की महत्ता, साहित्यकारों के प्रति सम्मान भाव दर्शाया है, वह अविस्मरणीय है। वहीं धर्मवीर भारती की कविताओं कहानियों और उपन्यासों में प्रेम और रोमांस के तत्व स्पष्ट रुप से मौजूद है।"

मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) विभाग की ओर से आयोजित जयंती समारोह में "बेनीपुरी के शब्दचित्र तथा धर्मवीर के भावोत्कर्ष:एक विश्लेषन" विषय पर, संस्था के  निदेशक इम्तियाज अहमद करीमी ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया।

बिहार राज्य अभिलेख भवन में आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डां रामदेव प्रसाद ने कहा, "रामवृक्ष बेनीपुरी को अंधकार के खिलाफ रौशनी की तलाश के लिए  सतत बेचैन साहित्यसेवी के रुप में याद करना अधिक सही होगा। बेनीपुर विलक्षण व्यक्तिव के थे, जिन्होंने जीवन की बहुरंगी धाराओं को समेटकर आगे बढ़ने मे विश्वास रखा।"

(हालालँ कि किसी के व्यक्तिगत कार्य पर अपनी उंगली उठाना, कुछ अजीब- सा जरुर लगता है। लेकिन जब हम किसी महापुरुष के व्यक्तित्व की बात करते हैं तब क्या उनसे प्रेरणा लेने की बात हम आम आदमी से नहीं करते हैं ? जब हम खुद साहित्यिक गोष्ठियों की मर्यादा और अनुशासन नहीं अपना पातें तो श्रोताओं  से पूरे भाषण, विचार और विद्वत लोगों के संवाद सुनने की अपेक्षा क्यों करते हैं? अक्सर यही होती है, जैसा कि आज भी हुआ, कि अपने वयक्तव देकर, निदेशक /संयोजक महोदय , किसी कार्य की व्यस्तता प्रकट कर, फिर वे गोष्ठी से बाहर चले गए।) 

सवाल यह भी है कि जब  राजभाषा विभाग माह में एक पूरा दिन भी साहित्यिक गोष्ठियों के लिए पूरी तरह नहीं निकाल सकता  तो फिर  यह आयोजन क्यों और किसलिए, किसके लिए ? और ऐसा ही कुछ अन्य संस्थाओं की गोष्ठियों में होता है, तो फिर उसकी आलोचना क्यों ?

क्या यह सब कुछ प्रायोजित तमाशा-भर नहीं लगता ? मेरी समझ से साहित्य को बाजारु बनाने के बजाए, साहित्य में जीना ही, ऐसे अमर साहित्यकारों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी और एक साफ- सुथरा साहित्यिक समाज का निर्माण कर सकेंगे हम !

इस संगोष्ठी में, संस्था के निदेशक इम्तियाज साहब के चले जाने के बाद स्कूल कालेज से आमंत्रित कुछ छात्र-छात्राओं ने भी अपने-अपने  सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये, जो एक स्वस्थ परंपरा को जन्म दे रही है और विभाग का यह सराहनीय प्रयास है।

रश्मि कुमारी ने कहा कि "धर्मवीर जी को पढाई और घूमक्करी में बहुत रुचि थी।। जबकि रामवृक्ष बेनीपुरी कहा करते थे कि मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूं। टूटा पहिया निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। अन्याय के खिलाफ मेरी लेखनी उठेगी और टटा हुआ पहिया को ही अपना अस्त्र बनाएगी।"

सुरभि कुमारी ने कहा कि  बेनीपुरी हिंदी साहित्य के पुरोधा थे। कई करिश्माई प्रतिभाओं के जनक रहे हैं बेनीपुरी जी। उनकी रचनाओं को पढ़कर ऐसा जरूर लगता है कि वे देशभक्त और क्रांतिकारी प्रवृत्ति के थे। उनके साहित्य सृजन  की भाषा सहज, सरल और व्यावहारिक थी।"

कुमारी ज्योत्सना के विचार में रेखाचित्र को समृद्ध करने में बेनीपुरी जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है।

धर्मवीर भारती के कृतित्व पर चर्चा करते हुए मनीषा साह कहती हैं ,"उनकी "गुनाहों का देवता" सदाबहार रचना थीं। "सूरज का सातवां घोड़ा" तो इतनी जीवंत रचना है कि इस कहानी पर श्याम बेनेगल जैसे श्रेष्ठ फिल्मकार ने फिल्मांकन भी किया। समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य कसने में उनकी अद्भुत क्षमता देखी मैंने।

यह सच भी है कि' धर्मयुग' की पत्रकारिता से लेकर 'अंधायुग' नाटक की सृजनात्मक तक, धर्मवीर भारती ने अपनी अलग पहचान बना रखी है। 

डां रेखा सिंहा ने कहा कि" धर्मवीर भारती ने आर्थिक संकट के दौर में मात्र सौ रुपए में संपादन का काम संभाला था। उन्होंने पत्रिका को एक नई ऊंचाई दी। अंधायुग उनका प्रसिद्ध नाटक तो है ही "चांद और टुटे हुए लोग" उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना रही है। उनके संदर्भ में एक काव्य पंक्ति याद रही  है -
"जिंदगी के फलसफों में,कुछ धूप बाकी है !
  तपते हुए चुल्हो में,अभी कुछ आंच बाकी है!"

अब मौका था, मंच पर आसीन अतिथियों की बातें और चर्चा की । सभी एक से बढ़कर एक विद्वान। भाई कालेज के प्रोफेसर हैं तो, विद्वान तो होंगे ही। किंतु विद्वता का कोई विद्वान तांडव करने लगे, अपनी मंचानुसासन ही भूल जाए तो, श्रोताओं में कानाफूसी शुरू तो हो ही जाती है,और तब  सबसे अधिक परेशान दिखता है मंच का संचालन कर रहा मानुष। बार बार उठकर पहुंचता है माईक तक, फिर आतंक के मूड में पांडित्य दिखला रहे विद्वान का तेवर देख कर वापस भी लौट आता है, अपनी जगह पर। बच्चों को अनुशासन सिखलाने वाले ही दिग्भ्रमित हो जाएं, तो बंटाधार होगा न?
               
 ...... खैर किसी एक का नाम यहां पर नहीं लूंगा। अधिकांश प्रोफेसरों ने लम्बे - लम्बे लेक्चर जरूर दिया मगर , यह भूलकर कि यह साहित्यिक संगोष्ठी है, कालेज का क्लास रुम नहीं। इसलिए अधिक समय  लेकर भी उन्होंने विषय से संदर्भित बहुत कम उल्लेखनीय बातें कही। ... और जब तक राजभाषा या सरकारी/ गैर  विभाग, केवल प्रोफेसरों  में विद्वता का गुण खोजते रहेंगे, तब  तक ऐसी परिणित तो  होगी ही  ? अब उन्हें कौन समझाए कि साहित्य की चर्चा में, नए- पुराने रचनाकारों  की ही अधिक उपादेयता है वह भी खेमा, जाति और भाई -भतीजावाद से बाहर निकलकर । 

समारोह की अध्यक्षता करते हुए पटना विश्वविद्यालय के भू. पू. प्राध्यापक डां रामदेव प्रसाद जी  ने कहा कि  "अंधकार के बीच रौशनी की तलाश के लिए सतत बेचैन रहते थे बेनीपुरी जी। उनके विलक्षण व्यक्तिव में जीवन की बहुरंगी धराओं को समेटने का आभास मिलता है।वे माटी की मूरतों को गढ़ने वाले उनमें प्राणों की स्फूर्ति भरने वाले  आत्मा के अद्भुत शिल्पी थे।

डां उमाशंकर सिंह ने  बेनीपुरी को यूवा शक्ति के प्रति अत्यंत आस्थावान और आशावान बतलाया।

डां हरेकृष्ण तिवारी ने यह भी कहा कि बेनीपुरी को साहित्य और राजनीति दोनों क्षेत्रों में समान रुप से अधिकार था। जबकि डां रेखा सिंहा ने कहा कि " धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार, और सामाजिक विचारक थे। वे अपने समय की प्रतिनिधि साप्ताहिक पत्रिका 'धर्मयुग' का संपादन कर, उपकी अलग पहचान दी थी। हजारों पाठकों की संख्या बढ़ गयी थी। और वे 1972 में पद्म श्री से भी सम्मानित हुए।

.... और, जब राजभाषा विभाग के विशेष सचिव डां उपेन्द्र नाथ पांडेय के  बोलने की बारी आती है , तब सब के सब चौकन्ने हो जाते हैं - क्या पता यह प्रचंड विद्वान अधिकारी, अतिश्योक्ति में, न जाने क्या कुछ बोल जाए!
उनके संबंध में एक उद्वरण तो मैं ही आपको दे सकता हूं! वे जिस साहित्यकार की जयंती पर बोलते हैं, तब वे अपनी पिछली बातों को को ही शायद भूल जाते हैं। प्रेमचंद की जयंती में, उन्होंने ही कहा था कि - "मेरे निजी पुस्तकालय में  जितनी भी किताबें हैं, उनमें सिर्फ और सिर्फ मैं प्रेमचंद को ही पढ़ता हूं वैसा कोई दूसरा रचनाकार हुआ ही नहीं। कुछ ऐसा ही वे तुलसीदास, फिर संत रविदास, फिर कबीर,फिर दिनकर, फिर महावीर प्रसाद द्विवेदी, फिर माखन लाल चतुर्वेदी, फिर निराला...... के बारे में भी कहा।.

और आज बारी थी, दो अद्वितीय साहित्यकारों की, रचनाकारों की। और उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी के बारे में कहा कि पूरे देश में बेनीपुरी जैसा कोई भी रचनाकार नहीं है और मैं सिर्फ उन्हीं को खूब पढ़ता हूं।

हालाँकि वे जो कुछ भी बोलते हैं उसमें ऐसा लालित्य होता है कि एकटक होकर पूरे लोग उन्हें गंभीरता से देखते और सुनते हैं। उनके शब्दों में कुछ ऐसा ही जादू होता है शायद। उन्होंने कहा कि पद्य के अपेक्षा गद्य को शास्त्रकारों ने दुःसाध्य बतलाया है। ववामनक  ने इसीलिये गद्य को कवियों की कसौटी माना है।

उन्होंने यह भी साफ - साफ कहा कि - "पूरे भारतवर्ष में, आज हिंदी का जो मानचित्र है, उसमें रामवृक्ष बेनीपुरी और धर्मवीर भारती जैसे एक भी साहित्यकार आज नहीं दिखता। आखिर हमें सोचना ही होगा कि बेनीपुरी की "माटी की मूरतें" की साठ हजार प्रतियां कैसे बिक जाती है, जबकि आजकल के लेखकों को अपनी 500  प्रतियां भी बिकवाने में सफलता नहीं मिलती। इसलिए आज ऐसे एक भी लेखक नहीं रहें जिन पर जयंतियां मनाई जा सके।

उन्होंने यह भी कहा कि" सिलाई तो एक टेलर मास्टर भी कर लेता है और घर की मां भी। दोनों में  भावोत्कर्ष का मामला है। एक का संबंध  व्यावसाय से है तो एक का संबंध भावनात्मकता से। "

उन्होंने ऐसा कहकर, आजकल के लेखक और उनके लेखन पर सवालिया निशान नहीं लगा दिया है क्या  ?
             
इस साहित्यिक समारोह में एक सत्र था काव्य पाठ का। इस सत्र में अनिल कुमार सिंह/अश्मजा प्रियदर्शिनी/अमित कुमार आजाद /बिन्देश्वर प्रसाद गुप्ता /अल्पना भारती और पंकज कुमार ने काव्य पाठ किया।

........ कहना गलत न होगा कि दो-तीन कवियों को छोड़कर, औरों ने सिर्फ खानापूर्ति ही की। यानि कविता के साथ मजाक!( हलाकि, वे कवि संतुष्ट अवश्य नजर आ रहे थे, जो काफी जद्दोजहद के बाद यहां तक पहुंचने में सफलता पाई थी  और हजार रुपये का चेक भी प्राप्त किया था।

एक कवि पंकज ने तो यह कहकर श्रोताओं को अचम्भे में डाल दिया कि मैं यह कविता अपनी प्रेमिका के लिए पढ़ रहा हूं-
 " मुहब्बत में नहीं कोई भी गिला है मुझे 
जख्म ईनाम में सही, मिला है मुझे !!"
फिर भावुकता में यह भी कह गया कि - "आपलोग मेरी इन काव्य पंक्तियों  पर तालियां बजाते रहिए, तो मुझे लगेगा कि मेरी प्रेमिका खुश हो रही है।"

जबकि  ऐसा व्याख्यान देने के बिना भी एक सार्थक कविता पढा जाना अधिक प्रभावकारी होता है, जैसा कि नवोदित कवयित्री अल्पना कुमारी ने अपने प्रेम गीत को, बहुत ही संजीदगी के साथ पेश किया -"
"प्रेम में बंधकर दीवानी आ गई
 रात की रैना सुहानी आ गई।"
     आज यमुना के किनारे प्यार का त्योहार है।
     प्रेम जिसने भी किया, प्रेम का ही हो गया!!"

इस सत्र में, नवोदित कवि अनिल कुमार सिंह की गजल ने तो पूरी महफ़िल ही लूट लिया -
"पत्थर होते हुए इस दौड़ में
गीत अगर मैं न गाता ।
तो  धीरे-धीरे मैं भी।
 पत्थर  ही हो जाता.।। "
 शब्द बन गए शूल ।
चुभन मैं और कहां सह पाता।
मैं गीतों का फूल   उपजाता।
तो आगे और किधर  जाता.?

मुझे ऐसा लगता है कि, ऐसी संगोष्ठीयों के अंतिम सत्र में, चार - पांच ऐसे नए- पुराने कवियों को उनकी एक - एक कविता के साथ प्रस्तुत किया जाता है, जो मंच पाने के लिए छटपटा रहे होते हैं। हालांकि, भीख के रुप में मिला यह अवसर भी , कवियों को अपनी प्रतिभा को दिखलाने का अच्छा अवसर देता है। किन्तु अधिकांश कवि कविता के लिए मिले अपने  पांच मिनट के समय को  , अपने अनावश्यक व्यक्तव्य और आत्मपरिचय देने में ही बर्बाद कर देते हैं और जब उन्हें चेताने की मुद्रा में संचालक महोदय खड़े हो जाते हैं तब वे राजधानी एक्सप्रेस बनकर अपनी कविता अलापने लगते हैं। आखिर साहित्यकारगण भी अपनी मर्यादा, मान-सम्मान और अनुशासन नहीं समझेंगे  तो और दूसरों पर उंगलियां उठाने का हक हमें बनता है क्या ?

अन्यथा लेने की ये बातें है क्या कि ऐसे गरिमापूर्ण आयोजन में, कवियों का चयन, उनकी कविताओं को आमंत्रित कर, उन कविताओं का मूल्यांकन कर, फिर कवियों को आमंत्रित करना चाहिए, सिर्फ चमचागिरी, जातिगत भेदभाव, पद-प्रतिष्ठा, खेमेबाजी या किसी के दबाव में आकर नहीं! 

आज हमारे साहित्य समाज में, ऐसी विसंगतियों का ही प्रकोप क्यों बढ़ता जा रहा है? पुरस्कार से लेकर सम्मान तक, मंच से लेकर प्रकाशन तक, ऐसी अराजकता क्यों और किसलिए..?
             
..........                       
 आलेख - सिद्धेश्वर  
रपट के लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com











Sunday 29 December 2019

नवगीतिका लोक रसधार तथा यूथ हॉस्टल एसोसिएशन द्वारा शरद उत्सव पटना में 28 .12.2019 को सम्पन्न

नई पीढ़ी के अनेक गायक भोजपुरी गीतों की विरासत को बेहतर बनाने में लगे हुए हैं 
भरत सिंह भारती द्वारा लिखे गए भोजपुरी गीतों के संकलन " का विमोचन भी 
 प्रथम नवगीतिका शिखर सम्मान उषा किरण खान को

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लोकगीत मूलत: परम्परागत रूप से विभिन्न उत्सवों में पुरानी पीढ़ी के लोगों को गाते देखकर ही सीखी जाती है ।  पहले के जमाने मेें इसके प्रचार-प्रसार का यह तरीका सशक्त था। लेकिन आधुनिक युग में जब लोग अपनी जड़, जमीन और संस्कृति से कटते जा रहे हैं यह आवश्यक है कि इस धरोहर को पुस्तक का आकार देकर प्रकाशित किया जाय ।

सांस्कृतिक संस्था नवगीतिका लोक रसधार तथा यूथ हॉस्टल एसोसिएशन, बिहार चैप्टर के तत्वावधान में सांस्कृतिक शरद उत्सव का आयोजन पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर बहुउद्देशीय परिसर में किया गया जिसका विधिवत उद्घाटन बिहार के पर्यटन मंत्री कृष्ण कुमार ऋषि, जहानाबाद के सांसद चंद्रदेव प्रसाद चंद्रवंशी, पूर्व मध्य रेल के महाप्रबंधक ललित चंद्र त्रिवेदी और भोजपुरी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष चंद्रभूषण राय ने किया । 

इस अवसर पर प्रसिद्ध लोक गायक और गीतकार भरत सिंह भारती द्वारा लिखे गए भोजपुरी गीतों के संकलन "सप्त सरोवर" का विमोचन भी किया गया । मंत्री कृष्ण कुमार ऋषि ने इस अवसर पर कहा कि भरत सिंह भारती जैसे वरिष्ठ कलाकारों की सक्रियता और समर्पण से बिहार की लोक परंपरा को मजबूती मिली है । सरकार लोक संगीत को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है । विभिन्न महोत्सवों के माध्यम से लोक कलाकारों को बढ़ावा दिया जाता है । राज्य सरकार द्वारा बाल्मीकि नगर जाने वाले पर्यटकों के लिए भी लोक कलाकारों के नियमित प्रदर्शन की व्यवस्था की गई है । 

सांसद चंद्रदेव प्रसाद चंद्रवंशी ने भरत सिंह भारती को एक लिविंग लीजेंड करार देते हुए कहा कि उन्होंने भोजपुरी लोक संगीत को बढ़ावा देने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया । पूर्व मध्य रेल के महाप्रबंधक ललित चंद्र त्रिवेदी ने लोक गायक और गीतकार भरत सिंह भारती  को उनकी दूसरी पुस्तक सप्त सरोवर के लिए बधाई दी । 

इस अवसर पर भरत सिंह भारती ने कहा कि लोकगीतों की परंपरा मौखिक रही है । गांव-जवार में लोगों ने एक दूसरे से सुनकर, याद कर लोकगीतों की परंपरा को सुरक्षित और समृद्ध किया है । सप्त सरोवर में लोक भजन, पूर्वी, चैती , सोहर, संस्कार कजरी और विकास के गीतों को शामिल किया गया है । उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी के अनेक गायक भोजपुरी गीतों की विरासत को बेहतर बनाने में लगे हुए हैं जो उनके लिए संतोष की बात है । लेकिन कई गायक भोजपुरी के नाम पर अश्लीलता को परोस कर भोजपुरी को बदनाम करने में भी लगे हुए हैं । ऐसे गायकों का सामाजिक बहिष्कार भी होना चाहिए । 

प्रसिद्ध लोक गायिका नीतू कुमारी नवगीत ने सांस्कृतिक शरद उत्सव की शुरुआत करते हुए चलेली गंगोत्री से गंगा मैया जग के करें उद्धार गीत पेश किया । उन्होंने रूसल कन्हैया के मैया मनावे खाए ना माखन चोर और कौने देसे गइले बलमुआ कथिया लईहे  ना जैसे गीतों पर श्रोताओं को झुमाया । सतेंद्र कुमार संगीत ने भी अपने गीतों पर लोगों को झुमाया । कार्यक्रम के दौरान सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्था नवगीतिका लोक रसधार की ओर से वरिष्ठ साहित्यकार उषा किरण खान को साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए प्रथम नवगीतिका शिखर सम्मान-2019 प्रदान किया गया । 

बिहार की कला एवं संस्कृति तथा समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए मनोज कुमार बच्चन, सत्येंद्र कुमार संगीत, रवि मिश्रा, पुष्प लता मोहन, डॉ ध्रुव कुमार, सुधीर मधुकर, आकांक्षा चित्रांश, शैलेश कुमार, दीप श्रेष्ठ, मधुमंजिरी, अलका प्रियदर्शनी, अभय सिन्हा, सोमा चक्रवर्ती और सीपी मिश्रा को नवगीतिका सम्मान- 2019 प्रदान किया गया । शानदार अंदाज में कार्यक्रम का संचालन शैलेश कुमार और रवि रंजन ने किया ।
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आलेख - बिहारी धमाका ब्यूरो
छायाचित्र - नवगीतिका रसधार
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com




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Friday 27 December 2019

"साहित्य परिक्रमा" और " राष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक काव्य-मंच" के द्वारा मासिक काव्य संध्या पटना में 25.12.2019 को सम्पन्न

"हाथ में जब सब के ही पत्थर रहे / कोई सलामत किस तरह फिर घर रहे"

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वैसे तो कहने को 2020 एक नया वर्ष के रूप में आ रहा है पर पता नहीं कितनी अशांतियों के मध्य यह आना पसंद करेगा। कवि जन्मजात अमनपसंद होता है लेकिन इसकी अमनपसंदगी समाज से विमुख नहीं बल्कि उसके सापेक्ष होती है अर्थात यह तमाम प्रकार की अशांतियों का पूर्ण निवारण कर अमन लाने में यकीन रखता है। कुछ ऐसा ही प्रसंग रहा हाल ही में सम्पन्न हुई एक कवि गोष्ठी का।

सिर्फ अपनी कविता को मंच पर पढ़ देने की उत्सुकता, कवियों की भीड़ वाली बड़ी गोष्ठियों में देखी जा सकती है किंतु एक दूसरे की सृजनात्मकता को आत्मसात करने की प्रवृत्ति छोटी छोटी गोष्ठियों में ही दिख पड़ती है। कुछ ऐसा ही महौल रहा पटना के रामगोबिंद पथ, कंकड़बाग स्थित कवि मधुरेश नारायण के आवास पर दिनांक 25.12.2019 को क्रिसमस के दिन  आयोजित काव्य संध्या में जो कई मायने से भरपूर सकून दे गया। 

पटना की साहित्यिक संस्था "साहित्य परिक्रमा" और " राष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक काव्य-मंच" के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित मासिक काव्य संध्या का सशक्त संचालन करते हुए उपरोक्त उद्गार, कवि - कथाकार सिद्धेश्वर ने व्यक्त किया। उन्होंने कविता के सौंदर्य बोध को रेखांकित करते हुए कहा कि - "कवि कभी भी अकेला या निहत्था नहीं होता। उसके साथ समाज और समुदाय होता है और होती है संवेदना के साथ संबधों, सरोकारों और शब्दों की रणभेदी ताकत। अंधेरों में भी भीतर के सौंदर्य और सूरज के उजालों को सहेजने की कला कवि अथवा कथाकार के पास ही होती है। यूँ हम कह सकते हैं कि मानवीय.संवेदना की सहज अभिव्यक्ति होती है कविता।"

अपने अध्यक्षीय उद्बबोधन में वरिष्ठ कवि कथाकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने इस तरह की घरेलू गोष्ठियों के प्रति भरपूर संतोष प्रकट करते हुए कहा कि "आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जमाने में निकट के रिश्तों से संबंध साधना भी दुर्लभ होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में इस तरह की गोष्ठियों में साहित्य के साथ- साथ पारिवारिक संवाद की भी पूरी गुंजाइश होती है।" उन्होंने इस तरह की गतिविधियों की निरंतरता के लिए मधुरेश शरण और सिद्धेश्वर की भूरि भूरि प्रशंसा की।

भगवती प्रसाद द्विवेदी ने आज पढीं गई कविताएओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि "सिर्फ कवि गोष्ठी ही नहीं, एक तरह से ऐसा आयोजन एक कार्यशाला का उद्देश्य भी पूरा करता है जहां पर हम अपनी नये सृजन का मूल्यांकन तो करते ही  हैं, हम एक - दूसरे को राय परामर्श भी देते हैं।

उन्होंने कहा कि "आज पढीं गई लगभग सभी कविताओं में ताजगी दिखी। कविता हो या गीत- गजल, समकालीनता से लैस इन कविताओं में, सृजन की कई मूल चिंताओं को अभिव्यक्त किया  गया है। व्यक्ति और समाज की जरूरतों और इतना ही नहीं, सामाजिक विसंगतियों को भी  पूरी प्रतिबद्धता के साथ उजागर किया गया है। प्रतिरोध, क्रोध और प्रेम की अभिव्यक्ति लगगभग सभी कविताओं में हुई है।"

रचनाधर्मियों की इस  सारस्वत संध्या में भगवती प्रसाद द्विवेदी (अध्यक्ष), आर पी घायल (मुख्य अतिथि), राजमणि मिश्र, मधुरेश नारायण, सिद्धेश्वर (संचालन), घनश्याम, मेहता नागेन्द्र सिंह, लता प्रासर, विश्वनाथ प्रसाद वर्मा, सुनील कुमार, नसीम अख्तर और प्रभात कुमार धवन सहित कूल बारह प्रतिनिधि कवियों ने अपनी पसंद की एक नई और एक पुरानी यानी दो - दो कविताओं का पाठ कर, पूरा वातावरण को ही काव्यमय बना दिया।
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इस साहित्यिक आयोजन के मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ शायर आर पी घायल । इस अवसर पर बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के अधिकारी ओम प्रकाश वर्मा ने भी, पढीं गई पूरी कविताओं को बहुत ही तन्मयता के साथ सुनने के बाद कहा कि  ऐसे सार्थक प्रयास समाज के हर कोने या प्रांत में होना ही चाहिए, जो राजभाषा हिन्दी और हिंदी साहित्य के उत्थान में अपनी अहम भूमिका का निर्वाह करता रहे।

नएपन की तलाश में कविगण हमेशा लगे रहते हैं यही कारण है कि नववर्ष का आगमन उनके हृदय के द्वार पर सबसे पहले होता है

 प्रभात कुमार धवन नव्य की आराधना करनेवाले ऐसे ही एक  चिरनूतन कवि हैं -
"नव वर्ष मंगलमय हो!
   स्वर्ण विभूषित
     सूर्य उदय हो!!
      हो प्रभात / मधुर जीवन का
      मिले सुख सार /तरुण जीवन का!!"

राजमणि मिश्र ने मात्र मूर्तियों की प्रतिष्ठा की बजाय उसमें प्राण फूँकने अर्थात अंत:करण  की जीवंतता के महत्व को उजागर किया -
" है तिमिर तुमने रचा
पर रचा दिनमान मैंने!
  मूर्तियां तुमने बनायीं
  किंतु फूंके प्राण मैंने!"

पर्यावरण के कवि मेहता नागेन्द्र सिंह को कोई डर नहीं लगता क्योंकि उनके पास हौसला और हुनर दोनों है -
"हौंसला भी है, हुनर भी है, तो डर कैसा ?
सांस की खातिर शज़र भी है, तो डर कैसा?
पतवार थामें हाथ अपना मजबूत है बाकी!
बेताब दरिया में भंवर भी है तो डर कैसा ? "

हास्यसम्राट विश्वनाथ प्रसाद वर्मा ने आदमी को हवाईजहाज की बजाय आदमी बने रहने की बात की -
"एक कवि कहां-कहां जाएगा
   कहां-कहां गाएगा / आदमी है
कोई हवाई जहाज तो नहीं बन जाएगा? ".  

शायर नसीम अख्तर पत्थरबाजी के आदिम युग की पुनरावृति होते देख नासाज़ नजर आए-
" हाथ में  जब सभी के  ही  पत्थर रहे !
किस तरह फिर सलामत कोई सर रहे !"

प्रेम की वर्षा करनेवाली कवयित्री लता प्रासर ने पहले एक मगही रचना सुनाई फिर डाली-डाली और पत्ते-पत्ते पर अपने हृदय के इष्ट का नाम लिख डाला -
" पत्ता पत्ता डाली डाली परिचय तेरा लिख डालूं ।
  प्रेम प्रीत की वर्णमाला कली कली पर लिख डालूं।
रंग बसंती क्यारी क्यारी खिल रहा प्यारा प्यारा.
पगडंडियों पर हरियाली से नाम तुम्हारा लिख डालूं!"

संचालक सिद्धेश्वर स्वार्थचिंतन के इस दौर में भी इंसानियत की नब्ज टटोलते दिखे -
" दूसरों के लिए यहां सोचता है कौन ?
  दिल  का दरवाजा  खोलता है कौन?!
  बंद  है  पडोस  की  सारी  खिड़कियां!
इंसानियत की नब्ज, टटोलता है कौन ? "
              
शायर सुनील कुमार को अपने उसूलों के पक्के होने के कारण  अनेक परेशानियाँ उठानी पड़ रही हैं-
     - "मैं जिनकी आँख का तारा रहा हूँ!
          उन्हीं नज़रों में गिरता जा रहा हूँ!!
                 उसूलों का ज़रा पक्का रहा हूँ!
                  ज़माने को बहुत खलता रहा हूँ !" 

आज के जमाने में भी जब अनेक प्रकार की अशांति छाई हुई है सबको प्रेमरस में डुबो देने वाले लगे कवि और गोष्ठी के संयोजक गीतकार मधुरेश नारायण - 
          नज़रें बिछाये बैठे हैं हम, आस जगा जाओ..........
जिनके आने से,चारों दिशाओं में
महक उठा है उपवन-उपवन!
आहट पाते ही,रूप दिखाते ही,
चकाचौंध है धरती गगन.!!
      प्रीत भरे गीत गूँजे, सुर मिला जाओ.....
      जाओ कहीं दूर मगर  लौट के चले आओ!! "

गांधी जैसे युगपुरुष द्वारा बड़े जतन से जोड़े गए वतन में विध्वंश के ता-ता धिन्न को देख हिन्दी गजल को एक नयी अभिव्यक्ति देने वाले शायर घनश्याम का मन खिन्न हो गया है-
"हमारा मन सुबह से खिन्न क्यों है ?
   निगोड़ी धारणा भी  भिन्न क्यों है?
            अलाउद्दीन ! ये  क्या  हो  रहा है?
              मेरे आगे खड़ा  यह जिन्न क्यों है?
मेरे   घर   में  ढनकते  हैं   पतीले !
तुम्हारे  घर में ता-ता धिन्न क्यों है ?
             जिसे जोड़ा था गांधी ने जतन से!
             वो रिश्ता प्रेम का विच्छिन्न क्यों है ?
ज़रा "घनश्याम "से पूछो तो आखिर
   बुढ़ापे  में  वो  चक्कर घिन्न क्यों है ? "

विदित हो कि यह काव्य संध्या न सिर्फ प्रभु ईसा मसीह के परम त्याग दिवस बल्कि मधुरेश नारायण और विश्वनाथ प्रसाद वर्मा के जन्मदिनों का भी अवसर रहा।  आगत अतिथियों और कवियों ने उन्हें जन्म दिन की बधाई दी। गोष्ठी लता प्रासर के द्वारा कृतज्ञता और धन्यवाद ज्ञापन के साथ सम्पन हुई।
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आलेख - सिद्धेश्वर
प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
रपट के लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल- editorbejodindia@gmail.com




 













Tuesday 24 December 2019

रामवृक्ष बेनीपुरी की जयंती पटना में 23.12.2019 को सम्पन्न

अनूठी शैली के यशस्वी कथाकार  
"पतितों के देश में, कैदी की पत्नी, जंजीरें और दीवारें, गेहूं और गुलाब जैसी पुस्तकें जेल में लिखीं

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पूरे साहित्यिक आवेग के साथ महान हिंदी साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी की जयंती पटना के कदमकुआँ स्थित बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में 23.12.2019 को मनाई गई

लघुकथा विधा कहानी विधा के निकट है, ऐसी धारणा है लोगों में। लेकिन सच तो यह है कि लघुकथा आकार- प्रकार, शब्द - शैली और अभिव्यक्ति के आधार पर भी, कहानी से बहुत अलग है। यह गद्य की एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है। प्रेमचंद, मंटो, जयशंकर प्रसाद, राजाराधिकारमण सिंह, और रामवृक्ष बेनीपुरी सरीखे कथाकारों ने भी कई छोटी- छोटी रचनाएं लिखी थी, जिसे लोग लघुकहानी के रुप में पहचानते थे।

यहां पर सवाल यह है कि स्वयं इन कथाकारों भी अपनी इन रचनाओं को लघुकथा का नाम दिया था क्या? यह एक विवादास्पद प्रश्न हो सकता है। किंतु बीसवीं शताब्दी के सातवें  दशक में, समकालीन कथाकारों ने लगातार विचार-विमर्श के बाद विधागत विधान बनाकर और सतत आंदोलन का रूप देकर जब  इसका एक सैद्धांतिक और समीक्षात्मक स्वरूप बनाया (जिसका मैं भी साक्षी रहा हूं), तब एक स्वतंत्र विधा के रुप में 'लघुकथा' की पहचान बनी। तब कमलेश्वर, अवधनारायण मुद्गल, वाल्टर भेंगरा, तरुण सरीखे जागरूक संपादकों ने,सारिका, कथायात्रा और कृतसंकल्प जैसी  मुख्य धारा की पत्रिकाओं का लघुकथा विशेषांक निकालकर लघुकथा विधा को एक दिशा देने का एक महत्वपूर्ण कार्य किया था।

अब, जयंती के नाम पर लघुकथा पाठ करवाना तो एक अच्छी बात है। किंतु और अच्छी बात होगी, जब जयंती विशेष कथाकारों को लघुकथा के साथ जोड़कर, उनकी लघुकथाओं पर भी हम  चर्चा  करें।

अब जो लघुकथा लिखते ही नही, वे तो अब भी आठवें दशक की बात ही दुहराएंगें न कि लघुकथा हस्तलिखित रुप में एक पेज और टंकित रुप में आधे पृष्ठ का हो वही आदर्श लघुकथा है, जैसा कि मंचासीन कवि डॉ. शंकर प्रसाद ने आज के बेनीपुरी जयंती के अवसर पर आयोजित पठित लघुकथा पर टिप्पणी करते  हुए कहा।

जबकि समारोह के अध्यक्ष अनिल सुलभ ने इसे लघुकथा कार्यशाला जैसा स्वरूप बतलाते हुए कहा कि बहुत ही सावधानी के साथ किसी भी लेखक को लघुकथा लिखनी चाहिए। लघुकथा का विस्तार रचना को कमजोर कर देती है। आवश्यक हो तो लघुकथा लिखने के बाद आवश्यक संशोधन कर उसमें कांट- छांट भी करनी चाहिए।

उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी की जयंती को नमन करते हुए कहा कि "बेनीपुरी की रचनात्मक छवि अद्भुत थी। उन्होंने अपनी लेखनी से सिद्ध किया कि लेखकीय अवदान में बिहार किसी से पीछे नहीं है। हिंदी साहित्य के वे प्रतिनिधि रचनाकार के रुप में परिणित होते रहे हैं। इसमें दो मत नहीं कि वे एक विशिष्ट शैलीकार थे।

उन्होंने बेनीपुरी के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए कहा कि "बेनीपुरी जी अपने छात्र जीवन से ही स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रमुख हिस्सा बने। अपनी तप्त लेखनी का मुंह अंग्रेजों और शोषक समुदायों के विरुद्ध खोल दिया था।। वे अप्रतिम साहित्यकार थे और कई वर्षों तक बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में भी अपना अभूतपूर्व योगदान दिया।"

(वैसे प्रसंगवश यह बतला दूँ कि मेरा यह सौभाग्य रहा है कि उनके नाम  से ही सही  पूर्व मध्य रेल की सेवा करते हुए हमने राजेन्द्र नगर टर्मिनल स्थित रामवृक्ष बेनीपुरी हिंदी पुस्तकालय" के पुस्तकाध्यक्ष के पद कर, लगभग दो दशक से अधिक काम किया और इस दौरान ही रामवृक्ष बेनीपुरी के पौत्र और बहू ने रामवृक्ष बेनीपुरी की कलात्मक तस्वीरें और उनकी दर्जनों दुर्लभ पुस्तकें हमें सौंपीं, जो आज भी इस रामवृक्ष बेनीपुरी हिंदी पुस्तकालय में सुरक्शित हैं। -सिद्धेश्वर)

लघुकथा पाठ के इस संगोष्ठी में मंचासीन लघुकथा लेखिका पूनम आनंद, कुमार अनुपम ने भी, कार्यक्रम को यादगार तो बनाया ही, इस समारोह को गरिमापूर्ण बनाने में समारोह के संयोजक योगेन्द्र मिश्र की भी अहम भूमिका रही।

समारोह के आरंभ में शुभचंद्र सिन्हा ने कहा कि " रामवृक्ष बेनीपुरी जब जब जेल से निकलते थे, उनके हाथों में , ढेर सारी पांडुलिपियाँ होती थीं। सतत सृजनशील रहते थे बेनीपुरी जी।"

डॉ. शंकर प्रसाद ने कहा कि बेनीपुरी जी की लेखनी का जादू पूरा हिंदुस्तान मानता रहा है।  वे एक विशिष्ट शैलीकार थे।

वरिष्ठ साहित्यकार नंद मिश्र आदित्य ने  अपने उद्गार में कहा कि "पतितों के देश में कैदी की पत्नी, जंजीरें और दीवारें, गेहूं और गुलाब जैसी बहुचर्चित पुस्तकों को उन्होंने अपनी जेल की कालकोठरी में ही लिखा।       

छट्ठू ठाकुर ने कहा कि आंदोलनकारियों के बीच बेनीपुरी जी हमेशा उर्जा भरते रहें अपनी लेखनी के माध्यम से।.   
आनंद किशोर मिश्र के विचार में  रामवृक्ष बेनीपुरी अपनी आयू के तरुणाई काल से मृत्यु  तक कलम के योद्धा बन डटे रहें।

डॉ. कुंदन कुमार के अनुसार बेनीपुरी जी अग्नि का पोषण करते रहें। क्रांति और विद्रोह  की एक ज्वाला उनके हृदय में सदा धधकती रही। 

 डौली भदौरिया के विचार से  रामवृक्ष बेनीपुरी जी स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सिपाही के प्रेरणास्रोत रहें।

कवि  त्रृतुराज ने विस्तार से उनकी रचनाओं की चर्चा करते हुए कहा कि "रामवृक्ष बेनीपुरी अपने काल के यशस्वी कथाशिल्पी थे। उनकी लेखनी का जादू पूरे देश को अपनी ओर आकर्षित किया है।"

लघुकथा संगोष्ठी में डॉ. सीमा रानी ने 'प्रतीक्षा', कुमार अनुपम ने "मैं पहले से ही खुश हूं", पूनम आनंद ने "वेरी सिंपल", सिद्धेश्वर ने "फोकट की पढाई'", योगेन्द्र मिश्र ने "खुले आकाश का पंछी", डॉ. शंकर प्रसाद ने "मैं शर्मिंदा हूं", कृष्ण रंजन सिंह ने ''ज्वार भाषा" शीर्षक लघुकथा का पाठ किया तो लता प्रासर ने "मर्म", श्रीकांत व्यास ने' "कोयला और पत्थर", डॉ.  मनोज गोवर्धनपुरी ने "रानी मां'", नूतन सिंहा ने "मां - पुत्र", प्रेमलता सिंह ने "पगला बाबा",  किरण सिंह ने "आदर्श बाबू", नंद आदित्य ने "छोटा आकार, नम्रता ने "मेरी मां", रेखा भारती ने "पेंशन'", डॉ. पुष्पा जमुआर ने 'जलन'  शीर्षक लघुकथा का पाठ किया।   साथ ही तरंजन भारती ने "अच्छा कौन', प्रभात कुमार धवन ने  'कारावास '.  और राज किशोर वत्स ने "काने राजा का चित्र" शीर्षक लघुकथाएँ अपने- अपने निराले अंदाज में प्रस्तुत की  जो एक यादगार लघुकथा की शाम बनकर हमारे जेहन में समा गई। लघुकथाओं पर ऐसी जीवंत संगोष्ठी की जरूरत पहले से अधिक है जो व्यस्त और इलैक्ट्रानिक युग का एक जरूरी हिस्सा बनकर  आज भी आम आदमी को साहित्य से जोड़ने में कामयाब है। 
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आलेख - सिद्धेश्वर 
छायाचित्र - सिद्धेश्वर, पूनम आनंद 
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Sunday 22 December 2019

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा कवि परमानंद पाण्डेय जयंती पटना में 21.12.2019 को सम्पन्न - रपट और विमर्श

परमानंद अंगिका के लिए दधीचि साहित्यकार
अंग प्रदेश की बोली को भाषा की गरिमा दी

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डॉ. परमानंद पांडेय ने स्वयं कम लिखा, लेकिन दूसरों से ज्यादा लिखवाया। ऐसे व्यक्ति प्रेरणास्रोत होते हैं। सदी के श्रेष्ठ भाषा वैज्ञानिक के लिए परमानंद जी को याद किया जाता रहेगा।" - ये बातें वरिष्ठ शायर मृत्युंजय मिश्र करूणेश ने कहा। अवसर था बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में आयोजित परमानंद पांडेय जयंती, नृपेन्द्रनाथ गुप्त द्वारा संपादित भाषा भारती पत्रिका के नवीन अंक का लोकार्पण और कवि सम्मेलन का।

हालाँकि एक साथ तीन कार्यक्रम रखे गए थे जरुर  किंतु पत्रिका पर चर्चा गौण रह गई। खिचड़ी परोस कार्यक्रम में अक्सर ऐसा हो जाता है, यदि गंभीरता से काम न लिया जाए।

अपने अध्यक्षीय उद्बबोधन में अध्यक्ष अनिल सुलभ ने साफ शब्दों में कहा कि - "कवि परमानंद पांडेय अंगिका भाषा के जनक थे, ऐसा कहना गलत होगा। क्योंकि अंगिका का इतिहास बहुत पुराना है। हां, हम यह बात जरूर कह सकते हैं कि उन्होंने अंगिका को समृद्ध करने में अहम भूमिका निभाई है। परमानंद ने अंगिका के उन्नयन का काम किया है।" उन्होंने यह भी कहा कि - " परमानंद ने इस भाषा को संजीवनी देने का काम किया है। उन्होंने अपने विपुल साहित्य सृजन से अंग प्रदेश में बोली जाने वाली एक 'बोली' को 'भाषा के रुप में प्रतिष्ठित किया। अनिल सुलभ ने लोकार्पित पत्रिका भाषा भारती के बारे में कहा कि पत्रिका साहित्यिक और सांस्कृतिक सूचनाओं का भंडार है और बहुत लगन से इसे नृपेन्द्रनाथ गुप्त जी प्रकाशित कर रहे हैं।

विशिष्ट अतिथि नृपेन्द्रनाथ गुप्त ने कहा कि -" परमानंद जी संस्कृत और हिंदी के मनीषी विद्वान थे। अंगिका तो उनकी मातृभाषा ही थी।  जबकि साहित्यकार राजीव कुमार परमलेन्दु ने कहा कि अंगिका को कवि परमानंद ने जीवनदान दिया था।"

कभी कभी कुछ ऐसे वक्ता भी होते हैं जो अतिशयोक्ति कह जाते हैं। जब कुमार अनुपम के विषय में समारोह के संचालक शंकर प्रसाद ने कहा कि -" कुमार अनुपम साहित्य संस्कृति से पिछले पचास वर्षों से जुड़े हुए हैं! "तब श्रोतागण चमत्कृत से हो कर रह गए 

खैर, कुमार अनुपम ने बहुत ही शालीनता के साथ परमानंद के प्रति अपना उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि - "परमानंद ने अंगिका साहित्य को एक मजबूत नींव दी है। हलाकि उन्होंने साफ साफ कहा कि अंगिका भाषा की जो उपेक्षा होती रही है, उसके लिए हिन्दी को कहीं से दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।"
                     
ओम प्रकाश पांडेय ने अपने पिता की जयंती के अवसर पर कहा कि-" मुझमें अपने पिता का कोई गुण नहीं है। मैं बहुत छोटा साहित्यकार हूं। वैसे तुलसी के पौधे का पत्ता छोटा हो या बड़ा हो, सब का एक सा महत्व है। "
           
 सादगी में उन्होंने आत्मप्रशंसा करना उचित नहीं समझा। होना भी यही चाहिए। किंतु तुलसी पौधे का अनावश्यक उदाहरण देकर उन्होंने  अपनी ही धारा बदल दी?  बेहतर होता वे अनावश्यक बातें कहने के अपेक्षा, अपने पिता परमानंद के संबंध में कोई आत्मीय साहित्यिक प्रसंग से साझा करते जो उनके मुख से सुनने के लिए श्रोतागण लालायित रह गए
                  
श्रीकांत सत्यार्थी ने कहा कि - "परमानंद अंगिका के लिए दधीचि साहित्यकार थे। उन्होंने अंगिका का व्याकरण लिखा। -"
            
 राजीव कुमार परमलेन्दु, डॉ. सत्येंद्र सुमन, विनय कुमार विष्णुपुरी, सुजित वर्मा और बलवीर सिंह ने कहा कि "परमानंद ने अंगिका का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन सात सौ पृष्ठो में लिखा है। यह एक महान ग्रंथ है। उन्होंने अंग प्रदेश में बोली जाने वाली एक 'बोली' को 'भाषा' के रूप में प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने इस भाषा को संजीवनी दी है।"
              
इस अवसर पर साहित्यिक त्रैमासिक नया भाषा भारती संवाद - 20वें वर्ष के तीसरे अंक का विमोचन किया गया। हालाँकि इस पत्रिका में दूरगामी संपादकीय नीति का अभाव साफ दिख पड़ता है। साहित्यक समाचार की इस पत्रिका में समाचार भी अखबारी कतरन ही लगता है। और कुछ साहित्यिक रचनाएं सिर्फ और सिर्फ रचनाकारों को खुश. करने का माध्यम प्रतीत होती है। इसे एक सार्थक उद्देश्य के तहत सही दिशा दी जा सकती है। मगर ऐसा होगा कैसे? सभी लोग तो प्रार्थना और शुभकामनाएं देने के उपक्रम में खड़े दिख रहे हैं।
              
इस लोकार्पित पत्रिका भाषा भारती संवाद के संदर्भ में अनधिकार मैंने इतना कुछ कह भी दिया। इस लोकार्पण के मंच पर तो  गंभीरता से चर्चा तक नहीं हुई। इस बात को सभागार में बैठे सुधी श्रोतागण भी महसूस कर रहे थे मुझे ऐसा महसूस हुआ।
         
परमानंद की जयंती पर विस्तार से चर्चा के बाद शुरु हुआ एक ठंड भरी शाम में कवि सम्मेलन का दौर। वह भी एक प्रतिनिधि कवि सुनील कुमार दूबे के ओजस्वी  संचालन में।
              
कड़कती ठंड में  लगभग तीस कवियों का काव्य पाठ, सौ से अधिक श्रोताओं के बीच एक यादगार शाम में परिणत हो गई। कवि गोष्ठी का आरंभ हुआ बलवीर सिंह भसीन की समकालीन तेवर की कविता से हुई - 
" कमाल होते हैं वे लोग
   जो अलकतरा पी जाते हैं
  किंतु उबकाई नहीं होती!
    औरों की बात क्या करें
    ये जानवरों का चारा भी खा जाते हैं
और ढेकार भी नहीं भरते!! "
         
जीवन दर्शन को रेखांकित करती हुई, एक और समकालीन कविता का पाठ किया कालिनी द्विवेदी ने-
-"  काम कुछ ऐसा करो
     जो मन को शांति दे,
     लोगों की पसंद क्या है
        ये सोचना तुम छोड़ दो!!
         समय एक विशाल सागर हैं
           लहरें तो आएंगी ही
            तुम समय की रेत पर
              पदचिन्ह अपना छोड़ दो!! "

 बदलते मौसम को आवाज दी अपने मधुर गीत के माध्यम से, कुमार अनुपम ने-
"रोटी की गोलाई में
  आत्मा भटक रही/
     मिट रहा हो जो , उसे उबार दो
     डूब रहा हो जो, उसे पतवार दो ।
   धूंध भरे मौसम को
   वासंती श्रृंगार दो !

 सिद्धेश्वर की समकालीन गजल ने भी श्रोताओं की भरपूर तालियां बटोरी -
कुदरत को यह करके दिखा देना चाहिए
इंसान  को  फरिश्ता बना  देना  चाहिए
उर्यानियत  के दौर  में एहसास ने  कहा
तस्वीर  को  लिबास  पहना  देना चाहिए।
जिसमें छुपे हैं  मेरी  जिंदगी  के राज
वो ख़त जरुर तुमको जला देना चाहिए।
जब जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है दोस्त
वादा  अगर किया  है निभा  देना चाहिए।
नफरत का राग लोग अलापा करे 'सिद्धेश'
उल्फत का  गीत  तुमको सुना  देना चाहिए।

इन्दु उपाध्याय  अपने ही अंदाज में कविता सुनाई - 
"नदी को शायद ही पता होगा
              जिससे मिलने को आतुर है
               वह उसके मीठे जल को भी
                  खारा कर देगा! "

ओम प्रकाश पांडेय ने इन शब्दों में वर्तमान राजनीति का सजीव चित्रण किया -
     "उसे मिल गया लावारिस
        कटोरा घी का / तो ओढ़ कर कम्बल
         पीने के लिए बन गए दोनों दोस्त!! " 

डॉ. दिनेश दिवाकर की कविता किसी छोड़ कर जानेवाले पर थी-
"भगवान भला करना उसका
    जो चला गया चमन छोड़कर
       जिसने बाग को स्वयं लगाया था!! "

ऋतुराज राकेश की कविता भी खूब सराही गई -
" आपने आकर मौसम
    जवां कर दिया।
 शुक्रिया आपका, आपका शुक्रिया!! 

मनोरमा तिवारी, राजकुमार प्रेमी, श्रीकांत व्यास, अजय कुमार सिंह, यशोदा शर्मा, डा मनोज कुमार, जयप्रकाश, अचल भारती, सुषमा कुमारी, बच्चा ठाकुर, नंद कुमार मिश्र ने भी गीत गजलों से सर्द काव्य संध्या में गर्माहट लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

गजल की बानगी में मीना कुमारी परिहार की भी बेजोड़ प्रस्तुति रही -
"हवा में बहुत विष घुला है सियासी
  अंधेरों में दीपक जलाएंगें  कैसे ?
   'मीना' प्यार करने में मुश्किल बड़ी है।
     जमाने को अब हम मनाएंगे कैसे ?!"

संचालन के क्रम में सुनील कुमार दूबे ने एक विहंगम सामाजिक तस्वीर को अपनी कविता में डालने में कामयाब रहें -
"बच्चे कुत्तों के साथ खेलते हैं
  टांफी आधा कुत्ते के मुंह में डालता है
  इधर बुढा बाप चुपचाप उसे ताकता है!!

अपनी दमदार कविता की जबरदस्त प्रस्तुति के साथ सामने आएं श्रीकांत सत्यदर्शी-
" यों शाम आती है
    कई रोज आती है!
     मन का कोई मनहूस कोना मर जाता है
        मैं चुप रहता हूं
         मगर /सारा महौल डर जाता है !!"

अंत में कुछ ऐसी तीन गजलों को बानगी के तौर पर आपके सामने रख रहा हूं, जो भाव, शिल्प, गायकी और अभिव्यंजना के तौर पर, आज की सर्द काव्य संध्या में पूरी तरह गर्मी लाने में कामयाब रही और इस कवि सम्मेलन को यादगार बना दिया -!

एहतियात के तौर पर डां शंकर प्रसाद की ये गजल देखिए -
"पूछे तो जाके  क्या हादसा हुआ 
 क्या बात है, वो काफिला क्यों रुका हुआ?
वो जाने किस ख्याल में, क्या सोचता हुआ
चुपचाप ही गुजर गया बस देखता हुआ
 इस तरह डरकर जीना पड़ा  हयात में
जैसे हो जीवन तुझसे कर्जा लिया हुआ।

इसी तरह श्रेष्ठ गजल की अदायगी के लिए मशहूर शायर मृत्युंजय मिश्र करूणेश की बानगी देखिए-            
"ये बोझ कम तो न भारी है, और क्या कहिए
जिंदगी मौत की मारी है, और क्या कहिए।
कर्ज- ब्याज  बढें रोज , चुकाए  न  चुके
जन्म -जन्म की उधारी है, और क्या कहिए।?
पिये बगैर  ही  गुजरे  बरस,  ये  तौबा 
मगर न उतरी खुमारी है, और क्या कहिए?
आईना  भी है  पागल,  हुआ   है  दीवाना।
किसने  जुल्फें सवारी  है और क्या कहिए ?
न  सो सके,  न   जागे, इस  तरह  हमने ।
तमाम  उम्र  गुजारी  है  और क्या कहिए. ।
लिखी दिल से गजल, दिल से जो पढी़ तुमने
वो हमने दिल में उतारी है, और क्या कहिए?"

और अंत में एक गजल अनिल सुलभ की -
" बेखुदी में  कुछ  कह  गए
   सह जाते  तो अच्छा था ।
   बेरुखी के बदले कुछ भी
कह  जाते  तो अच्छा था।
मेरी  हर   राह   पर
दीवार  बने  खड़े हैं लोग
एक  कुदाल  लेकर 
 आ  जाते  तो अच्छा था।
यह  बेपनाह मुहब्बत का
मकबरा  है  ' सुलभ '!
यहां दिल  और   जाम 
 रख  जाते. तो अच्छा था।। "\

समारोह के अंत में धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता निभाई बांके बिहारी साव ने।
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आलेख - सिद्धेश्वर 
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