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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Sunday 22 December 2019

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा कवि परमानंद पाण्डेय जयंती पटना में 21.12.2019 को सम्पन्न - रपट और विमर्श

परमानंद अंगिका के लिए दधीचि साहित्यकार
अंग प्रदेश की बोली को भाषा की गरिमा दी

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डॉ. परमानंद पांडेय ने स्वयं कम लिखा, लेकिन दूसरों से ज्यादा लिखवाया। ऐसे व्यक्ति प्रेरणास्रोत होते हैं। सदी के श्रेष्ठ भाषा वैज्ञानिक के लिए परमानंद जी को याद किया जाता रहेगा।" - ये बातें वरिष्ठ शायर मृत्युंजय मिश्र करूणेश ने कहा। अवसर था बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में आयोजित परमानंद पांडेय जयंती, नृपेन्द्रनाथ गुप्त द्वारा संपादित भाषा भारती पत्रिका के नवीन अंक का लोकार्पण और कवि सम्मेलन का।

हालाँकि एक साथ तीन कार्यक्रम रखे गए थे जरुर  किंतु पत्रिका पर चर्चा गौण रह गई। खिचड़ी परोस कार्यक्रम में अक्सर ऐसा हो जाता है, यदि गंभीरता से काम न लिया जाए।

अपने अध्यक्षीय उद्बबोधन में अध्यक्ष अनिल सुलभ ने साफ शब्दों में कहा कि - "कवि परमानंद पांडेय अंगिका भाषा के जनक थे, ऐसा कहना गलत होगा। क्योंकि अंगिका का इतिहास बहुत पुराना है। हां, हम यह बात जरूर कह सकते हैं कि उन्होंने अंगिका को समृद्ध करने में अहम भूमिका निभाई है। परमानंद ने अंगिका के उन्नयन का काम किया है।" उन्होंने यह भी कहा कि - " परमानंद ने इस भाषा को संजीवनी देने का काम किया है। उन्होंने अपने विपुल साहित्य सृजन से अंग प्रदेश में बोली जाने वाली एक 'बोली' को 'भाषा के रुप में प्रतिष्ठित किया। अनिल सुलभ ने लोकार्पित पत्रिका भाषा भारती के बारे में कहा कि पत्रिका साहित्यिक और सांस्कृतिक सूचनाओं का भंडार है और बहुत लगन से इसे नृपेन्द्रनाथ गुप्त जी प्रकाशित कर रहे हैं।

विशिष्ट अतिथि नृपेन्द्रनाथ गुप्त ने कहा कि -" परमानंद जी संस्कृत और हिंदी के मनीषी विद्वान थे। अंगिका तो उनकी मातृभाषा ही थी।  जबकि साहित्यकार राजीव कुमार परमलेन्दु ने कहा कि अंगिका को कवि परमानंद ने जीवनदान दिया था।"

कभी कभी कुछ ऐसे वक्ता भी होते हैं जो अतिशयोक्ति कह जाते हैं। जब कुमार अनुपम के विषय में समारोह के संचालक शंकर प्रसाद ने कहा कि -" कुमार अनुपम साहित्य संस्कृति से पिछले पचास वर्षों से जुड़े हुए हैं! "तब श्रोतागण चमत्कृत से हो कर रह गए 

खैर, कुमार अनुपम ने बहुत ही शालीनता के साथ परमानंद के प्रति अपना उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि - "परमानंद ने अंगिका साहित्य को एक मजबूत नींव दी है। हलाकि उन्होंने साफ साफ कहा कि अंगिका भाषा की जो उपेक्षा होती रही है, उसके लिए हिन्दी को कहीं से दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।"
                     
ओम प्रकाश पांडेय ने अपने पिता की जयंती के अवसर पर कहा कि-" मुझमें अपने पिता का कोई गुण नहीं है। मैं बहुत छोटा साहित्यकार हूं। वैसे तुलसी के पौधे का पत्ता छोटा हो या बड़ा हो, सब का एक सा महत्व है। "
           
 सादगी में उन्होंने आत्मप्रशंसा करना उचित नहीं समझा। होना भी यही चाहिए। किंतु तुलसी पौधे का अनावश्यक उदाहरण देकर उन्होंने  अपनी ही धारा बदल दी?  बेहतर होता वे अनावश्यक बातें कहने के अपेक्षा, अपने पिता परमानंद के संबंध में कोई आत्मीय साहित्यिक प्रसंग से साझा करते जो उनके मुख से सुनने के लिए श्रोतागण लालायित रह गए
                  
श्रीकांत सत्यार्थी ने कहा कि - "परमानंद अंगिका के लिए दधीचि साहित्यकार थे। उन्होंने अंगिका का व्याकरण लिखा। -"
            
 राजीव कुमार परमलेन्दु, डॉ. सत्येंद्र सुमन, विनय कुमार विष्णुपुरी, सुजित वर्मा और बलवीर सिंह ने कहा कि "परमानंद ने अंगिका का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन सात सौ पृष्ठो में लिखा है। यह एक महान ग्रंथ है। उन्होंने अंग प्रदेश में बोली जाने वाली एक 'बोली' को 'भाषा' के रूप में प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने इस भाषा को संजीवनी दी है।"
              
इस अवसर पर साहित्यिक त्रैमासिक नया भाषा भारती संवाद - 20वें वर्ष के तीसरे अंक का विमोचन किया गया। हालाँकि इस पत्रिका में दूरगामी संपादकीय नीति का अभाव साफ दिख पड़ता है। साहित्यक समाचार की इस पत्रिका में समाचार भी अखबारी कतरन ही लगता है। और कुछ साहित्यिक रचनाएं सिर्फ और सिर्फ रचनाकारों को खुश. करने का माध्यम प्रतीत होती है। इसे एक सार्थक उद्देश्य के तहत सही दिशा दी जा सकती है। मगर ऐसा होगा कैसे? सभी लोग तो प्रार्थना और शुभकामनाएं देने के उपक्रम में खड़े दिख रहे हैं।
              
इस लोकार्पित पत्रिका भाषा भारती संवाद के संदर्भ में अनधिकार मैंने इतना कुछ कह भी दिया। इस लोकार्पण के मंच पर तो  गंभीरता से चर्चा तक नहीं हुई। इस बात को सभागार में बैठे सुधी श्रोतागण भी महसूस कर रहे थे मुझे ऐसा महसूस हुआ।
         
परमानंद की जयंती पर विस्तार से चर्चा के बाद शुरु हुआ एक ठंड भरी शाम में कवि सम्मेलन का दौर। वह भी एक प्रतिनिधि कवि सुनील कुमार दूबे के ओजस्वी  संचालन में।
              
कड़कती ठंड में  लगभग तीस कवियों का काव्य पाठ, सौ से अधिक श्रोताओं के बीच एक यादगार शाम में परिणत हो गई। कवि गोष्ठी का आरंभ हुआ बलवीर सिंह भसीन की समकालीन तेवर की कविता से हुई - 
" कमाल होते हैं वे लोग
   जो अलकतरा पी जाते हैं
  किंतु उबकाई नहीं होती!
    औरों की बात क्या करें
    ये जानवरों का चारा भी खा जाते हैं
और ढेकार भी नहीं भरते!! "
         
जीवन दर्शन को रेखांकित करती हुई, एक और समकालीन कविता का पाठ किया कालिनी द्विवेदी ने-
-"  काम कुछ ऐसा करो
     जो मन को शांति दे,
     लोगों की पसंद क्या है
        ये सोचना तुम छोड़ दो!!
         समय एक विशाल सागर हैं
           लहरें तो आएंगी ही
            तुम समय की रेत पर
              पदचिन्ह अपना छोड़ दो!! "

 बदलते मौसम को आवाज दी अपने मधुर गीत के माध्यम से, कुमार अनुपम ने-
"रोटी की गोलाई में
  आत्मा भटक रही/
     मिट रहा हो जो , उसे उबार दो
     डूब रहा हो जो, उसे पतवार दो ।
   धूंध भरे मौसम को
   वासंती श्रृंगार दो !

 सिद्धेश्वर की समकालीन गजल ने भी श्रोताओं की भरपूर तालियां बटोरी -
कुदरत को यह करके दिखा देना चाहिए
इंसान  को  फरिश्ता बना  देना  चाहिए
उर्यानियत  के दौर  में एहसास ने  कहा
तस्वीर  को  लिबास  पहना  देना चाहिए।
जिसमें छुपे हैं  मेरी  जिंदगी  के राज
वो ख़त जरुर तुमको जला देना चाहिए।
जब जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है दोस्त
वादा  अगर किया  है निभा  देना चाहिए।
नफरत का राग लोग अलापा करे 'सिद्धेश'
उल्फत का  गीत  तुमको सुना  देना चाहिए।

इन्दु उपाध्याय  अपने ही अंदाज में कविता सुनाई - 
"नदी को शायद ही पता होगा
              जिससे मिलने को आतुर है
               वह उसके मीठे जल को भी
                  खारा कर देगा! "

ओम प्रकाश पांडेय ने इन शब्दों में वर्तमान राजनीति का सजीव चित्रण किया -
     "उसे मिल गया लावारिस
        कटोरा घी का / तो ओढ़ कर कम्बल
         पीने के लिए बन गए दोनों दोस्त!! " 

डॉ. दिनेश दिवाकर की कविता किसी छोड़ कर जानेवाले पर थी-
"भगवान भला करना उसका
    जो चला गया चमन छोड़कर
       जिसने बाग को स्वयं लगाया था!! "

ऋतुराज राकेश की कविता भी खूब सराही गई -
" आपने आकर मौसम
    जवां कर दिया।
 शुक्रिया आपका, आपका शुक्रिया!! 

मनोरमा तिवारी, राजकुमार प्रेमी, श्रीकांत व्यास, अजय कुमार सिंह, यशोदा शर्मा, डा मनोज कुमार, जयप्रकाश, अचल भारती, सुषमा कुमारी, बच्चा ठाकुर, नंद कुमार मिश्र ने भी गीत गजलों से सर्द काव्य संध्या में गर्माहट लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

गजल की बानगी में मीना कुमारी परिहार की भी बेजोड़ प्रस्तुति रही -
"हवा में बहुत विष घुला है सियासी
  अंधेरों में दीपक जलाएंगें  कैसे ?
   'मीना' प्यार करने में मुश्किल बड़ी है।
     जमाने को अब हम मनाएंगे कैसे ?!"

संचालन के क्रम में सुनील कुमार दूबे ने एक विहंगम सामाजिक तस्वीर को अपनी कविता में डालने में कामयाब रहें -
"बच्चे कुत्तों के साथ खेलते हैं
  टांफी आधा कुत्ते के मुंह में डालता है
  इधर बुढा बाप चुपचाप उसे ताकता है!!

अपनी दमदार कविता की जबरदस्त प्रस्तुति के साथ सामने आएं श्रीकांत सत्यदर्शी-
" यों शाम आती है
    कई रोज आती है!
     मन का कोई मनहूस कोना मर जाता है
        मैं चुप रहता हूं
         मगर /सारा महौल डर जाता है !!"

अंत में कुछ ऐसी तीन गजलों को बानगी के तौर पर आपके सामने रख रहा हूं, जो भाव, शिल्प, गायकी और अभिव्यंजना के तौर पर, आज की सर्द काव्य संध्या में पूरी तरह गर्मी लाने में कामयाब रही और इस कवि सम्मेलन को यादगार बना दिया -!

एहतियात के तौर पर डां शंकर प्रसाद की ये गजल देखिए -
"पूछे तो जाके  क्या हादसा हुआ 
 क्या बात है, वो काफिला क्यों रुका हुआ?
वो जाने किस ख्याल में, क्या सोचता हुआ
चुपचाप ही गुजर गया बस देखता हुआ
 इस तरह डरकर जीना पड़ा  हयात में
जैसे हो जीवन तुझसे कर्जा लिया हुआ।

इसी तरह श्रेष्ठ गजल की अदायगी के लिए मशहूर शायर मृत्युंजय मिश्र करूणेश की बानगी देखिए-            
"ये बोझ कम तो न भारी है, और क्या कहिए
जिंदगी मौत की मारी है, और क्या कहिए।
कर्ज- ब्याज  बढें रोज , चुकाए  न  चुके
जन्म -जन्म की उधारी है, और क्या कहिए।?
पिये बगैर  ही  गुजरे  बरस,  ये  तौबा 
मगर न उतरी खुमारी है, और क्या कहिए?
आईना  भी है  पागल,  हुआ   है  दीवाना।
किसने  जुल्फें सवारी  है और क्या कहिए ?
न  सो सके,  न   जागे, इस  तरह  हमने ।
तमाम  उम्र  गुजारी  है  और क्या कहिए. ।
लिखी दिल से गजल, दिल से जो पढी़ तुमने
वो हमने दिल में उतारी है, और क्या कहिए?"

और अंत में एक गजल अनिल सुलभ की -
" बेखुदी में  कुछ  कह  गए
   सह जाते  तो अच्छा था ।
   बेरुखी के बदले कुछ भी
कह  जाते  तो अच्छा था।
मेरी  हर   राह   पर
दीवार  बने  खड़े हैं लोग
एक  कुदाल  लेकर 
 आ  जाते  तो अच्छा था।
यह  बेपनाह मुहब्बत का
मकबरा  है  ' सुलभ '!
यहां दिल  और   जाम 
 रख  जाते. तो अच्छा था।। "\

समारोह के अंत में धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता निभाई बांके बिहारी साव ने।
................
आलेख - सिद्धेश्वर 
रपट के लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
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