बेनीपुरी रथ का टूटा हुआ पहिया थे और धर्मवीर भारती अतिप्रसिद्ध 'अंधा युग" के रचयिता
रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, त्याग की महत्ता, साहित्यकारों के प्रति सम्मान भाव दर्शाया है, वह अविस्मरणीय है। वहीं धर्मवीर भारती की कविताओं कहानियों और उपन्यासों में प्रेम और रोमांस के तत्व स्पष्ट रुप से मौजूद है।"
मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) विभाग की ओर से आयोजित जयंती समारोह में "बेनीपुरी के शब्दचित्र तथा धर्मवीर के भावोत्कर्ष:एक विश्लेषन" विषय पर, संस्था के निदेशक इम्तियाज अहमद करीमी ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया।
बिहार राज्य अभिलेख भवन में आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डां रामदेव प्रसाद ने कहा, "रामवृक्ष बेनीपुरी को अंधकार के खिलाफ रौशनी की तलाश के लिए सतत बेचैन साहित्यसेवी के रुप में याद करना अधिक सही होगा। बेनीपुर विलक्षण व्यक्तिव के थे, जिन्होंने जीवन की बहुरंगी धाराओं को समेटकर आगे बढ़ने मे विश्वास रखा।"
(हालालँ कि किसी के व्यक्तिगत कार्य पर अपनी उंगली उठाना, कुछ अजीब- सा जरुर लगता है। लेकिन जब हम किसी महापुरुष के व्यक्तित्व की बात करते हैं तब क्या उनसे प्रेरणा लेने की बात हम आम आदमी से नहीं करते हैं ? जब हम खुद साहित्यिक गोष्ठियों की मर्यादा और अनुशासन नहीं अपना पातें तो श्रोताओं से पूरे भाषण, विचार और विद्वत लोगों के संवाद सुनने की अपेक्षा क्यों करते हैं? अक्सर यही होती है, जैसा कि आज भी हुआ, कि अपने वयक्तव देकर, निदेशक /संयोजक महोदय , किसी कार्य की व्यस्तता प्रकट कर, फिर वे गोष्ठी से बाहर चले गए।)
सवाल यह भी है कि जब राजभाषा विभाग माह में एक पूरा दिन भी साहित्यिक गोष्ठियों के लिए पूरी तरह नहीं निकाल सकता तो फिर यह आयोजन क्यों और किसलिए, किसके लिए ? और ऐसा ही कुछ अन्य संस्थाओं की गोष्ठियों में होता है, तो फिर उसकी आलोचना क्यों ?
क्या यह सब कुछ प्रायोजित तमाशा-भर नहीं लगता ? मेरी समझ से साहित्य को बाजारु बनाने के बजाए, साहित्य में जीना ही, ऐसे अमर साहित्यकारों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी और एक साफ- सुथरा साहित्यिक समाज का निर्माण कर सकेंगे हम !
इस संगोष्ठी में, संस्था के निदेशक इम्तियाज साहब के चले जाने के बाद स्कूल कालेज से आमंत्रित कुछ छात्र-छात्राओं ने भी अपने-अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये, जो एक स्वस्थ परंपरा को जन्म दे रही है और विभाग का यह सराहनीय प्रयास है।
रश्मि कुमारी ने कहा कि "धर्मवीर जी को पढाई और घूमक्करी में बहुत रुचि थी।। जबकि रामवृक्ष बेनीपुरी कहा करते थे कि मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूं। टूटा पहिया निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। अन्याय के खिलाफ मेरी लेखनी उठेगी और टटा हुआ पहिया को ही अपना अस्त्र बनाएगी।"
सुरभि कुमारी ने कहा कि बेनीपुरी हिंदी साहित्य के पुरोधा थे। कई करिश्माई प्रतिभाओं के जनक रहे हैं बेनीपुरी जी। उनकी रचनाओं को पढ़कर ऐसा जरूर लगता है कि वे देशभक्त और क्रांतिकारी प्रवृत्ति के थे। उनके साहित्य सृजन की भाषा सहज, सरल और व्यावहारिक थी।"
कुमारी ज्योत्सना के विचार में रेखाचित्र को समृद्ध करने में बेनीपुरी जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है।
धर्मवीर भारती के कृतित्व पर चर्चा करते हुए मनीषा साह कहती हैं ,"उनकी "गुनाहों का देवता" सदाबहार रचना थीं। "सूरज का सातवां घोड़ा" तो इतनी जीवंत रचना है कि इस कहानी पर श्याम बेनेगल जैसे श्रेष्ठ फिल्मकार ने फिल्मांकन भी किया। समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य कसने में उनकी अद्भुत क्षमता देखी मैंने।
यह सच भी है कि' धर्मयुग' की पत्रकारिता से लेकर 'अंधायुग' नाटक की सृजनात्मक तक, धर्मवीर भारती ने अपनी अलग पहचान बना रखी है।
डां रेखा सिंहा ने कहा कि" धर्मवीर भारती ने आर्थिक संकट के दौर में मात्र सौ रुपए में संपादन का काम संभाला था। उन्होंने पत्रिका को एक नई ऊंचाई दी। अंधायुग उनका प्रसिद्ध नाटक तो है ही "चांद और टुटे हुए लोग" उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना रही है। उनके संदर्भ में एक काव्य पंक्ति याद रही है -
"जिंदगी के फलसफों में,कुछ धूप बाकी है !
तपते हुए चुल्हो में,अभी कुछ आंच बाकी है!"
अब मौका था, मंच पर आसीन अतिथियों की बातें और चर्चा की । सभी एक से बढ़कर एक विद्वान। भाई कालेज के प्रोफेसर हैं तो, विद्वान तो होंगे ही। किंतु विद्वता का कोई विद्वान तांडव करने लगे, अपनी मंचानुसासन ही भूल जाए तो, श्रोताओं में कानाफूसी शुरू तो हो ही जाती है,और तब सबसे अधिक परेशान दिखता है मंच का संचालन कर रहा मानुष। बार बार उठकर पहुंचता है माईक तक, फिर आतंक के मूड में पांडित्य दिखला रहे विद्वान का तेवर देख कर वापस भी लौट आता है, अपनी जगह पर। बच्चों को अनुशासन सिखलाने वाले ही दिग्भ्रमित हो जाएं, तो बंटाधार होगा न?
...... खैर किसी एक का नाम यहां पर नहीं लूंगा। अधिकांश प्रोफेसरों ने लम्बे - लम्बे लेक्चर जरूर दिया मगर , यह भूलकर कि यह साहित्यिक संगोष्ठी है, कालेज का क्लास रुम नहीं। इसलिए अधिक समय लेकर भी उन्होंने विषय से संदर्भित बहुत कम उल्लेखनीय बातें कही। ... और जब तक राजभाषा या सरकारी/ गैर विभाग, केवल प्रोफेसरों में विद्वता का गुण खोजते रहेंगे, तब तक ऐसी परिणित तो होगी ही ? अब उन्हें कौन समझाए कि साहित्य की चर्चा में, नए- पुराने रचनाकारों की ही अधिक उपादेयता है वह भी खेमा, जाति और भाई -भतीजावाद से बाहर निकलकर ।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए पटना विश्वविद्यालय के भू. पू. प्राध्यापक डां रामदेव प्रसाद जी ने कहा कि "अंधकार के बीच रौशनी की तलाश के लिए सतत बेचैन रहते थे बेनीपुरी जी। उनके विलक्षण व्यक्तिव में जीवन की बहुरंगी धराओं को समेटने का आभास मिलता है।वे माटी की मूरतों को गढ़ने वाले उनमें प्राणों की स्फूर्ति भरने वाले आत्मा के अद्भुत शिल्पी थे।
डां उमाशंकर सिंह ने बेनीपुरी को यूवा शक्ति के प्रति अत्यंत आस्थावान और आशावान बतलाया।
डां हरेकृष्ण तिवारी ने यह भी कहा कि बेनीपुरी को साहित्य और राजनीति दोनों क्षेत्रों में समान रुप से अधिकार था। जबकि डां रेखा सिंहा ने कहा कि " धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार, और सामाजिक विचारक थे। वे अपने समय की प्रतिनिधि साप्ताहिक पत्रिका 'धर्मयुग' का संपादन कर, उपकी अलग पहचान दी थी। हजारों पाठकों की संख्या बढ़ गयी थी। और वे 1972 में पद्म श्री से भी सम्मानित हुए।
.... और, जब राजभाषा विभाग के विशेष सचिव डां उपेन्द्र नाथ पांडेय के बोलने की बारी आती है , तब सब के सब चौकन्ने हो जाते हैं - क्या पता यह प्रचंड विद्वान अधिकारी, अतिश्योक्ति में, न जाने क्या कुछ बोल जाए!
उनके संबंध में एक उद्वरण तो मैं ही आपको दे सकता हूं! वे जिस साहित्यकार की जयंती पर बोलते हैं, तब वे अपनी पिछली बातों को को ही शायद भूल जाते हैं। प्रेमचंद की जयंती में, उन्होंने ही कहा था कि - "मेरे निजी पुस्तकालय में जितनी भी किताबें हैं, उनमें सिर्फ और सिर्फ मैं प्रेमचंद को ही पढ़ता हूं वैसा कोई दूसरा रचनाकार हुआ ही नहीं। कुछ ऐसा ही वे तुलसीदास, फिर संत रविदास, फिर कबीर,फिर दिनकर, फिर महावीर प्रसाद द्विवेदी, फिर माखन लाल चतुर्वेदी, फिर निराला...... के बारे में भी कहा।.
और आज बारी थी, दो अद्वितीय साहित्यकारों की, रचनाकारों की। और उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी के बारे में कहा कि पूरे देश में बेनीपुरी जैसा कोई भी रचनाकार नहीं है और मैं सिर्फ उन्हीं को खूब पढ़ता हूं।
हालाँकि वे जो कुछ भी बोलते हैं उसमें ऐसा लालित्य होता है कि एकटक होकर पूरे लोग उन्हें गंभीरता से देखते और सुनते हैं। उनके शब्दों में कुछ ऐसा ही जादू होता है शायद। उन्होंने कहा कि पद्य के अपेक्षा गद्य को शास्त्रकारों ने दुःसाध्य बतलाया है। ववामनक ने इसीलिये गद्य को कवियों की कसौटी माना है।
उन्होंने यह भी साफ - साफ कहा कि - "पूरे भारतवर्ष में, आज हिंदी का जो मानचित्र है, उसमें रामवृक्ष बेनीपुरी और धर्मवीर भारती जैसे एक भी साहित्यकार आज नहीं दिखता। आखिर हमें सोचना ही होगा कि बेनीपुरी की "माटी की मूरतें" की साठ हजार प्रतियां कैसे बिक जाती है, जबकि आजकल के लेखकों को अपनी 500 प्रतियां भी बिकवाने में सफलता नहीं मिलती। इसलिए आज ऐसे एक भी लेखक नहीं रहें जिन पर जयंतियां मनाई जा सके।
उन्होंने यह भी कहा कि" सिलाई तो एक टेलर मास्टर भी कर लेता है और घर की मां भी। दोनों में भावोत्कर्ष का मामला है। एक का संबंध व्यावसाय से है तो एक का संबंध भावनात्मकता से। "
उन्होंने ऐसा कहकर, आजकल के लेखक और उनके लेखन पर सवालिया निशान नहीं लगा दिया है क्या ?
इस साहित्यिक समारोह में एक सत्र था काव्य पाठ का। इस सत्र में अनिल कुमार सिंह/अश्मजा प्रियदर्शिनी/अमित कुमार आजाद /बिन्देश्वर प्रसाद गुप्ता /अल्पना भारती और पंकज कुमार ने काव्य पाठ किया।
........ कहना गलत न होगा कि दो-तीन कवियों को छोड़कर, औरों ने सिर्फ खानापूर्ति ही की। यानि कविता के साथ मजाक!( हलाकि, वे कवि संतुष्ट अवश्य नजर आ रहे थे, जो काफी जद्दोजहद के बाद यहां तक पहुंचने में सफलता पाई थी और हजार रुपये का चेक भी प्राप्त किया था।
एक कवि पंकज ने तो यह कहकर श्रोताओं को अचम्भे में डाल दिया कि मैं यह कविता अपनी प्रेमिका के लिए पढ़ रहा हूं-
" मुहब्बत में नहीं कोई भी गिला है मुझे
जख्म ईनाम में सही, मिला है मुझे !!"
फिर भावुकता में यह भी कह गया कि - "आपलोग मेरी इन काव्य पंक्तियों पर तालियां बजाते रहिए, तो मुझे लगेगा कि मेरी प्रेमिका खुश हो रही है।"
जबकि ऐसा व्याख्यान देने के बिना भी एक सार्थक कविता पढा जाना अधिक प्रभावकारी होता है, जैसा कि नवोदित कवयित्री अल्पना कुमारी ने अपने प्रेम गीत को, बहुत ही संजीदगी के साथ पेश किया -"
"प्रेम में बंधकर दीवानी आ गई
रात की रैना सुहानी आ गई।"
आज यमुना के किनारे प्यार का त्योहार है।
प्रेम जिसने भी किया, प्रेम का ही हो गया!!"
इस सत्र में, नवोदित कवि अनिल कुमार सिंह की गजल ने तो पूरी महफ़िल ही लूट लिया -
"पत्थर होते हुए इस दौड़ में
गीत अगर मैं न गाता ।
तो धीरे-धीरे मैं भी।
पत्थर ही हो जाता.।। "
शब्द बन गए शूल ।
चुभन मैं और कहां सह पाता।
मैं गीतों का फूल उपजाता।
तो आगे और किधर जाता.?
मुझे ऐसा लगता है कि, ऐसी संगोष्ठीयों के अंतिम सत्र में, चार - पांच ऐसे नए- पुराने कवियों को उनकी एक - एक कविता के साथ प्रस्तुत किया जाता है, जो मंच पाने के लिए छटपटा रहे होते हैं। हालांकि, भीख के रुप में मिला यह अवसर भी , कवियों को अपनी प्रतिभा को दिखलाने का अच्छा अवसर देता है। किन्तु अधिकांश कवि कविता के लिए मिले अपने पांच मिनट के समय को , अपने अनावश्यक व्यक्तव्य और आत्मपरिचय देने में ही बर्बाद कर देते हैं और जब उन्हें चेताने की मुद्रा में संचालक महोदय खड़े हो जाते हैं तब वे राजधानी एक्सप्रेस बनकर अपनी कविता अलापने लगते हैं। आखिर साहित्यकारगण भी अपनी मर्यादा, मान-सम्मान और अनुशासन नहीं समझेंगे तो और दूसरों पर उंगलियां उठाने का हक हमें बनता है क्या ?
अन्यथा लेने की ये बातें है क्या कि ऐसे गरिमापूर्ण आयोजन में, कवियों का चयन, उनकी कविताओं को आमंत्रित कर, उन कविताओं का मूल्यांकन कर, फिर कवियों को आमंत्रित करना चाहिए, सिर्फ चमचागिरी, जातिगत भेदभाव, पद-प्रतिष्ठा, खेमेबाजी या किसी के दबाव में आकर नहीं!
आज हमारे साहित्य समाज में, ऐसी विसंगतियों का ही प्रकोप क्यों बढ़ता जा रहा है? पुरस्कार से लेकर सम्मान तक, मंच से लेकर प्रकाशन तक, ऐसी अराजकता क्यों और किसलिए..?
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आलेख - सिद्धेश्वर
रपट के लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com
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