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संकटों का सामना और कठिन कार्य में विजय के लिए देवी दुर्गा की उपासना
(अररिया में दुर्गा जी की भव्य प्रतिमा के साथ पढ़िये)
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अररिया (बिहार) काली मंदिर में स्थापित दुर्गा जीकी भव्य प्रतिमा. अररिया में इस मंदिर का विशेष महत्व है. इसके पूजारी नानू दा मंदिर के चढ़ाये गए कपड़े और अन्य वस्तुओं को गरीब और जरूरतमंदों को बाँट देते हैं. और तो और ये मंदिर के प्रति श्रद्धा रखने के साथ-साथ भक्तों को अंधविश्वास से दूर रहने के लिए भी प्रेरित करते हैं. इन कारणों से लोग इस मंदिर के प्रति लोगों के प्रति आदर और श्रद्धा में विशेष वृद्धि हुई है. (फोटो साभार - संजीव गुप्ता) |
भारतीय सनातन धर्म की एक अद्वितीय विशेषता ईश्वर की शक्ति की नारी रूप में
कल्पना है जिसके पीछे शास्त्रसम्मत प्रमाण हैं. यहाँ की हिन्दु परम्परा
में दुर्गा को शक्ति रूप में पूजनीय माना गया है जिस प्रकार सरस्वती को ज्ञान का, लक्ष्मी को धन का, काली को दुष्टों के संहार का और संतोषी को
संतोष का प्रतीक माना गया है. इनके पूजन का उद्देश्य मानव के मन और जीवन
में वीरता, रक्षा, ज्ञान, अर्थ और संतोष जैसे गुणों का समावेश करना है.
ईश्वर के इन रूपों को माँ कहकर संबोधित करना एक स्त्री की क्षमताओं का
सम्मान है जिसमें स्त्री को कमजोर न मानकर उसे क्रोध, दया, क्षमा, तप,
शौर्य आदि गुणों से युक्त माना गया है. कई देवी देवताओं के साथ चित्रित
पशु पक्षी या पेड़ पौधे की उपासना प्रकृति के साकार रूप की रक्षा का संकल्प
है.
संकटों का सामना और कठिन कार्य में विजय के लिए देवी दुर्गा
की उपासना की जाती है. जो लोग मूर्तिपूजा को अंधविश्वास मानते हैं उन्हे
यह जानना चाहिए कि यूरोप में विंसी की कलाकृति मोनालिसा की मुस्कुराहट के
चित्रण से सदियों पहले भारतीय मूर्तिकारों और चित्रकारों ने क्रोध , दया,
रक्षा, संघर्ष , ध्यान जैसी भावनाओं से युक्त मुखाकृति का निर्माण करके
मानवीय मनोभावना का अध्ययन कर लिया था. दुर्गा के बड़े नेत्र क्रोध की
भावना प्रदर्शित करते हैं. इसी प्रकार सरस्वती का चित्रण शांत मुस्कुराती
मुखाकृति और हंस मोर तथा वीणा और पुस्तक के साथ है. लेखकों ने भी स्तुति
में मंत्रों और भजनों की रचना की है जिसे सुनने मात्र से आँखे नम हो
जाती है.
माथे पर तिलक लगाना, मूर्तिपूजा और देवनागरी लिपि के अक्षरों में रचित मंत्र, ये सब बिहार में देवी दुर्गा के प्रति आराध्य भाव की अभिव्यक्ति के विशेष साधन हैं. शिकारी मानव जब कृषक मानव बना तब वह पूरी तरह अहिंसक नहीं बना है.
रक्षा की भावना में हिंसा का तत्व स्वीकार्य है. अफगानिस्तान में अहिंसक
बौद्धों का नरसंहार और शांत बुद्ध की प्रतिमा का विखंडन पूर्ण अहिंसा की
सीमा को दिखाता है. ऑस्ट्रेलिया जैसे महादेश के लोग कभी गोरे अंगरेजों के
शासन से नहीं निकल सके और ऑस्ट्रेलिया एक द्वीप की तरह उपनिवेश बनकर रह
गया. भारत में आदर्शों की भिन्नता रही है. मध्यम मार्ग वाले बुद्ध, पूर्ण
अहिंसक महावीर और माँ दर्गा- काली के आदर्श सह अस्तित्व में रहे हैं. यही
कारण है कि आक्रमणकारियों और भिन्न आदर्शों की एक लंबी पीढ़ी भारत को
अफगानिस्तान या ऑस्ट्रेलिया की तरह विजित नहीं कर सकी. बलि प्रथा किसी पर
बाध्यकारी नहीं है और समय के साथ इसके प्रचलन में भारी
कमी आई है. आशा है, आनेवाले समय में
यह पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा क्योंकि मात्र अत्याचारियों का विनाश करनेवाली
देवी कभी भी निरीह पशु के संहार से प्रसन्न नहीं हो सकती.
देवी दुर्गा के महिषासुर पर विजय के चित्रण में उनके
दस हाथ दिखाये गए हैं और यह वास्तव में गतिशील शस्त्र संचालन का प्रतीक है
और साथ में गणेश कार्तिक सरस्वती लक्ष्मी का चित्रण. इन चारों के सहयोग
यह दर्शाते हैं कि विकट स्थिति का सामना सब मिलकर ही कर सकते हैं. यही
विजय का मंत्र है.
दुर्गा पूजा दस दिनों तक चलने वाला एक
उत्साहपूर्ण त्योहार है. खिलौनों का मेला लगना, पूजा पंडाल की भव्यता,
संगीत, आरती हवन, मंत्रोच्चार, फूल माला की बिक्री, सड़कों घरों मंदिरो की
सफाई, कपड़ों की बिक्री आदि कार्यों की गति बढ़ जाती है जिससे कई लोगों के
रोजगार और मनोरंजन को तेज गति मिलती है. पूजा स्थानीय सामूहिकता और
सम्पन्नता का प्रतीक है. मंदिर कभी लोभ ईर्ष्या या संपत्ति के केन्द्र न
बने , बल्कि सामाजिकता सामूहिकता और आर्थिक क्रियाकलापों के केन्द्र
बनें--- यह ध्यान देना मंदिर प्रबंधन समिति का पवित्र दायित्व है.
माँ दुर्गा के नौ रूपों अर्थात शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा,
कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धीदात्री के
रूप में यह पूजा वास्तव में पूजन की एक श्रृंखला है जो कलश स्थापन से लेकर
पूजन और विसर्जन तर की एक प्रक्रिया है. भक्तिमय मन से लोग अपनी
शारीरिक क्षमता और आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार उपवास रखकर विधििपूर्वक पूजन
करें तो कार्यों में सफलता मिलती है किन्तु दुर्गा पूजन का प्रतीक स्वयं के
मन और शरीर की क्षमता में वृद्धि करना है. पारिवारिक शांति और सहयोग का
सार कन्या पूजन में निहित है.
चुकि यह पूजा एक बड़ी अवधि तक चलती
है. अत: हमें पूजा अवधि में सुरक्षा का विशेष ध्यान रखना चाहिए. समाज यदि
स्त्री विरोधी या स्त्री मन को चोट पहुँचानेवाली प्रथाओं जैसे कन्याभ्रूण
हत्या, दहेज उत्पीड़न, अश्लील चित्रण, छेड़छाड़ , नारी से स्वास्थ्य की
उपेक्षा जैसे गंदी और परिवार - समाज- देश को कमजोर करने वाली सोंच का
परित्याग करे तो वह सबसे बड़ी पूजा होगी. साथ ही गरीबों के बीच मिठाई और
वस्त्र वितरण , बच्चों को खिलौना उपहार देना जैसे कार्य ज्यादा होने से
पूजा सार्थक होगी साथ हीं लाउडस्पीकरों की तेज ध्वनि से नवजात शिशु,
वृद्ध और बीमार लोगों के कष्ट को ध्यान में रखकर शोर कम किया जाए एवं अच्छी
क्वालिटी का वाद्य उपकरण पर संगीत- मंत्र बजे तो पूजन का आनंद और बढ़
जाएगा.
अंत में, या देवी सर्वभूतेषु माता/ दया/ क्षमा/ तप/ शक्ति रूपेण संस्थिता: / नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:.
माँ सभी प्राणियों में हैं. आँखे बंद कर ध्यान में इसे अनुभव करें. तभी माँ आपके आचरण में भी प्रकट होगी.
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इस लेख के लेखक - संजीव गुप्ता
आप अपनी प्रतिक्रिया इस ईमेल आइडी पर भी भेज सकते हैंं- hemantdas_2001@yahoo.com
लेखक आयकर विभाग में कार्यरत हैं और एक अत्यंत सामाजिक चेतना के प्रति काफी जागरूक लेखक हैं.
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