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'मैंने जिसकी पूछ उठाई उसको मादा पाया है'
'I could not find even a single male here'
(A brief review of drama by Hemant Das 'Him')
( हिंदी टेक्स्ट नीचे पढ़िए)
Before his death in the young age of 38, Dhumil was able to rip off the so called sanctity of your emotional fiber that connects you to the democratic setup in the perverse form it stands in post-independence era. The nausea over putrefied system is on its peak. The intense super charged outburst has come out in the form of a long poem 'Patkatha' which continues to dozens of pages. Each and every line of the poem is so stout that it would be a challenge for the most adept actor to perform the same on stage and Ashutosh Abhigya has done the magic to act the whole poem perfectly under the direction of NSD pass-out Punj Prakash. Ashutosh was insurmountable on the parameters of facial expression, dialogue delivery, pronunciation, body movements and emotive acting. If we just acknowledge the skills par excellence of Ashutosh what he showed up on 11.9.2017 on the stage of Kalidas Rangalaya, Patna we must say that he outclasses others of his genre in the present era. It was a solo acting presented by him taking help of a little stage property like wooden basket, a cube box etc the implements used to express the tangled up common issues making fatal bite on the fabric of national progress every now and then. The dress code was well aligned to the teared off, gaudy but absolutely theme-less existence of the common gentry in post-independent era. This memorable stage presentation must be seen as a feat achieved by the join efforts of the actor Ashutosh Abhigya and director Punj Prakash.
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Author of this brief review- Hemant Das 'Him'
Photographer- Hemant Das 'Him' / Sanjay Kumar Kundan
You may respond to the email - hemantdas_2001@yahoo.com
नीचे प्रस्तुत है नाटक के आयोजक के द्वारा जारी प्रेस-विज्ञप्ति
पंडारक के रंगकर्मी अजय कुमार की याद में प्रयोगशाला पटना के तत्वावधान में दस्तक पटना की चर्चित प्रस्तुति पटकथा का मंचन।
पटकथा हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित लंबी कविताओं में से एक है जो भारतीय आम अवाम के सपने, देश की आज़ादी और आज़ादी के सपनों और उसके बिखराव की पड़ताल करती है। देश की आज़ादी से आम आवाम ने भी कुछ सपने पाल रखे थे किन्तु सच्चाई यह है उनके सपने पुरे से ज़्यादा अधूरे रह गए। अब हालत यह है कि अपनी ही चुनी सरकार कभी क्षेत्रीय हित, साम्प्रदायिकता, तो कभी धर्म, भाषा, सुरक्षा, तो कभी लुभावने जुमलों के नाम पर लोगों और उनके सपनों का दोहन कर रही है। इस कविता के माध्यम से धूमिल व्यवस्था के इसी शोषण चक्र को क्रूरतापूर्वक उजागर किया है और लोगो को नया सोचने, समझने तथा विचारयुक्त होकर सामाजिक विसंगतियो को दूर करने की प्रेरणा भी देते हैं। कहा जा सकता है कि पटकथा प्रजातंत्र के नाम पर खुली भिन्न – भिन्न प्रकार के बेवफाई की बेरहम दुकानों से मोहभंग और कुछ नया रचने के आह्वान की कविता है। यह कविता बेरहमी, बेदर्दी और बेबाकी से कई धाराओं और विचारधाराओं और उसके नाम के माला जाप करने वालों के चेहरे से नकाब हटाने का काम करती है; वहीं आम आदमी की अज्ञानता-युक्त शराफत और लाचारी भरी कायरता पर भी क्रूरता पूर्वक सवाल करती है।
नाट्य दल के बारे में
रंगकर्मियों को सृजनात्मक, सकारात्मक माहौल एवं रंगप्रेमियों को सार्थक, सृजनात्मक और उद्देश्यपूर्ण कलात्मक अनुभव प्रदान करने के उद्देश्य से “दस्तक” की स्थापना सन 2 दिसम्बर 2002 को पटना में हुई। दस्तक ने अब तक मेरे सपने वापस करो (संजय कुंदन की कहानी), गुजरात (गुजरात दंगे पर आधारित विभिन्न कवियों की कविताओं पर आधारित नाटक), करप्शन जिंदाबाद, हाय सपना रे (मेगुअल द सर्वानते के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Don Quixote पर आधारित नाटक), राम सजीवन की प्रेम कथा (उदय प्रकाश की कहानी), एक लड़की पांच दीवाने (हरिशंकर परसाई की कहानी), एक और दुर्घटना (दरियो फ़ो लिखित नाटक) आदि नाटकों का कुशलतापूर्वक मंचन किया है।
दस्तक का उद्देश्य केवल नाटकों का मंचन करना ही नहीं बल्कि कलाकारों के शारीरिक, बौधिक व कलात्मक स्तर को परिष्कृत करना और नाट्यप्रेमियों के समक्ष समसामयिक, प्रायोगिक और सार्थक रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति प्रस्तुत करना भी है। दस्तक द्वारा रंगमंच एवं विभिन्न कला माध्यमों पर आधारित ब्लॉग मंडली (www.punjprakash.blogspot.com) का भी संचालन दस्तक द्वारा किया जाता है।
लेखक के बारे में
धूमिल का जन्म वाराणसी के पास खेवली गांव में हुआ था। उनका मूल नाम सुदामा पांडेय था। सन् 1958 में आईटीआई (वाराणसी) से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विद्युत अनुदेशक बन गये। 38 वर्ष की अल्पायु मे ही ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गई।मरणोपरांत उन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। वह व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।
सन 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करने वाले अंत्यत प्रभावशाली कवि हैं। उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड़ में जो पूंजीवादी हृदय पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं। कवि धूमिल यह भी जानते हैं कि व्यवस्था अपनी रक्षा के लिये इन सबका उपयोग करती है, इसलिये वे इन सबका विरोध करते हैं। इस विरोध के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रमकता भी मिलती है। किंतु यह केवल नारे तक ही सीमित नहीं होती बल्कि उससे उनकी कविता की प्रभावशीलता बढती है। धूमिल अकविता आन्दोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। वो अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते है जो नई कविता के दौर की काव्य- भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है। उनकी भाषा काव्य-सत्य को जीवन सत्य के अधिकाधिक निकट लाती है। इनके कुल तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं - संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।
अभिनेता के बारे में
आशुतोष अभिज्ञ; पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में ऑनर्स और पिछले लगभग सात वर्षों से नाट्य अभिनय के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस अवधी में इन्होने अब तक कई शौकिया और व्यावसायिक नाट्य दलों के साथ अभिनय किया है। रंगमंच के क्षेत्र में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008-10 का यंग आर्टिस्ट स्कॉलरशिप अवार्ड से भी सम्मानित हुए हैं। इनके द्वारा अभिनीत उल्लेखनीय नाटकों में रोमियो जूलियट और अंधेरा, होली, डाकघर, जहाजी, बाबूजी, दुलारी बाई, हमज़मीन, निमोछिया, एन इवनिंग ट्री, अगली शताब्दी में प्यार का रिहर्सल, बेबी, उसने कहा था, नटमेठिया आदि प्रमुख हैं।
निर्देशक के बारे में
पुंज प्रकाश, सन 1994 से रंगमंच के क्षेत्र में लगातार सक्रिय अभिनेता, निर्देशक, लेखक, अभिनय प्रशिक्षक हैं। मगध विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में ऑनर्स। नाट्यदल दस्तक के संस्थापक सदस्य। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के सत्र 2004 – 07 में अभिनय विषय में विशेषज्ञता। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में सन 2007-12 तक बतौर अभिनेता कार्यरत। अब तक देश के कई प्रतिष्ठित अभिनेताओं, रंगकर्मियों के साथ कार्य। एक और दुर्घटना, मरणोपरांत, एक था गधा, अंधेर नगरी, ये आदमी ये चूहे, मेरे सपने वापस करो, गुजरात, हाय सपना रे, लीला नंदलाल की, राम सजीवन की प्रेमकथा, पॉल गोमरा का स्कूटर, चरणदास चोर, जो रात हमने गुजारी मरके आदि नाट्य प्रस्तुतियों का निर्देशन तथा कई नाटकों की प्रकाश परिकल्पना, रूप सज्जा एवं संगीत निर्देशन। कृशन चंदर के उपन्यास दादर पुल के बच्चे, महाश्वेता देवी का उपन्यास बनिया बहू, फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास परती परिकथा एवं कहानी तीसरी कसम व रसप्रिया पर आधारित नाटक तीसरी कसम, संजीव के उपन्यास सूत्रधार, भिखारी ठाकुर रचनावली, कबीर के निर्गुण, रामचरितमानस को आधार बनाकरभिखारी ठाकुर के जीवन व रचनाकर्म पर आधारित नाटक नटमेठिया सहित मौलिक नाटक भूख और विंडो उर्फ़ खिड़की जो बंद रहती है का लेखन।
देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं मे रंगमंच, फिल्म व अन्य सामाजिक विषयों पर लेखों के प्रकाशन के साथ ही साथ कहानियों और कविताओं का भी लेखन व प्रकाशन। वर्तमान में रंगमंच की कुरीतियों पर आधारित व्यंग्य पुस्तक आधुनिक नाट्यशास्त्र उर्फ़ रंगमंच की आखिरी किताब की रचना सहित कई नाटकों के अभिनय में व्यस्त हैं। रंगमंच सहित विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक विषयों पर आधारी डायरी (www.daayari.bolgspot.com)नामक ब्लॉग के ब्लॉगर और पठन – पाठन और लेखन में विशेष रूचि रखनेवाले एक स्वतंत्र, यायावर रंगकर्मी, लेखक व अभिनय प्रशिक्षक के रूप में सतत कार्यरत हैं।
निर्देशकीय - पटकथा के बहाने
वर्तमान राजनीतिक परिवेश की विडम्बनाओं को प्रतिविम्बित करता हिंदी के प्रसिद्द कवि धूमिल लिखित इस चर्चित कविता को केवल एक अभिनेता के साथ प्रस्तुत करना निश्चित ही एक दुरूह कार्य है। लेकिन मज़ा तो न सध पाने वाली बातों को ही साधने में है। हमने तो अपनी बुद्दी, विवेक और समझ से इसकी लगाम साधते और कलात्मक चुनौतियों का सामना करते हुए भरपूर पीड़ादायक आनंद और तनावपूर्ण रचनाशीलता का मज़ा लिया। उम्मीद है यह अनुभूति आप तक भी पहुंचे। बहरहाल, महीनों, समझने, बूझने, गुनने के पश्चात् जो कुछ भी बन पड़ा अब आपके समक्ष प्रस्तुत है। हाँ एक बात तो निश्चित है कि “मनोरंजन” मात्र ना धूमिल की पटकथा का उद्देश्य है और ना ही हमारी इस नाट्य-प्रस्तुति की, यदि ऐसा होता तो हम धूमिल की पटकथा पर काम नहीं कर रहे होते।
पटकथा केवल एक नाटक नहीं बल्कि रंग-समाज से हमारा एक सार्थक संवाद करने का प्रयत्न है, समकालीन सवालों से साक्षात्कार करने का प्रयत्न है। प्रस्तुति के उद्देश्य को समझकर अपने विवेक से निर्णय करना आपका अधिकार है और सदा रहेगा।
दस्तक, पटना की प्रस्तुति
सुदामा पांडेय “धूमिल” लिखित लंबी कविता - 'पटकथा'
आशुतोष अभिज्ञ का एकल अभिनय
प्रस्तुति नियंत्रक – अशोक कुमार सिन्हा एवं अजय कुमार
ध्वनि संचालन – चंदन रॉय
प्रस्तुति संचालक - रेखा सिंह
सहयोग - अरुण कुमार, राहुल कुमार, संत रंजन, सोनू कुमार, एदीप राज, चुन्नू यादव, सुमित कुमार, राजीव कुमार, देवांश ओझा, शुभम दुबे, राहुल पाठक, बादल कुमार, प्रीति सिंह, रागिनी कश्यप, राकेश कुमार रोशन, प्रिंस कुमार एवं सुशांत कुमार
परिकल्पना व निर्देशन - पुंज प्रकाश
स्थान - कालिदास रंगालय, पटना
दिनांक - 11 सितंबर 2017
समय - संध्या 7 बजे
प्रस्तुति - दस्तक, पटना
आयोजक - प्रयोगशाला, नवादा
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(नीचे प्रस्तुत है आशुतोष द्वारा अदा किये गये संवाद के कुछ अत्यंत प्रभावकारी अंश जो दर-असल प्रसिद्ध कवि 'धूमिल' की लम्बी कविता के चुनिंदा अंश हैं)
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता। यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है
......
गरज़ यह है कि अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है
मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ,और पेड़ों पर
पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुशाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं।
उन्होंने किसी चीज को
सही जगह नहीं रहने दिया
.......
देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
.................
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
मैंने देखा हर तरफ
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
गुट से गुट टकरा रहे हैं
वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं
श्रीमान् किन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं
कुछ योगी हैं
कुछ भोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं
कुछ रोगी हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
आँखों के अन्धे हैं
घर के कंगाल हैं
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मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये
न उन्हें मलाल है,न भय है
...............
हत्यारा!हत्यारा!!हत्यारा!!!’
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह
किसको कहा था। शायद अपने-आपको
शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को
हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है
............
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।
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वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।
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अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
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Actor- Ashutosh Abigya in 'Patkatha' /
Picture courtesy- Sanjay Kumar Kundan
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Actor- Ashutosh Abigya in 'Patkatha' / Picture courtesy- Sanjay Kumar Kundan |
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