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औरत - वजूद के बँटे रहने की दर्दीली दास्तान
हेमन्त दास 'हिम' के द्वारा नाटक-समीक्षा
ममता मेहरोत्रा एक ऐसी लेखिका हैं जो स्त्री विषयक मुद्दों पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित करती हैं, किन्तु उनकी दृष्टि स्त्रीवादी न होकर निरपेक्ष है। अधिकांश नारीवादी आन्दोलन स्त्रैण मूल्यों में अति-पूर्वाग्रह की वजह से विफल हो जाते हैं। ममता मेहरोत्रा को अच्छी तरह पता है कि नारीवादी मुद्दे सामान्य तौर पर पुरुषों के खिलाफ नहीं होते हैं। वास्तव में, यह उत्पीड़कों के खिलाफ है जो पुरुष या नारी कोई भी हो सकतीं हैं।
उनकी पुस्तक 'टुकड़ों टुकड़ों में औरत' न केवल औरत की बल्कि मर्दों की भी विभिन्न चित्रों को दर्शाती है। सुमन कुमार के निर्देशन में मंचित तीन कहानियों में से 'टुकड़ों टुकड़ों में औरत', 'अक्स' और 'सफर' केवल महिलाओं के मामलों के बारे में मुख्य रूप से पहले दो थे। दूसरी कहानी 'अक्स', जिसकी पटकथा लेखक ने सभी तीन कहानियों को पिरोनेवाले धागे के रूप में इस्तेमाल किया था, महिला मनोविज्ञान पर एक अद्भुत व्याख्यात्मक आकलन था। इसमें एक महिला अपने चेहरे को एक दर्पण में देख रही है और अपने तथा अपने आस-पास के बारे में सोच रही है। वह अपनी सुंदरता और प्रोफ़ाइल से ईर्ष्या करने के लिए दूसरों को दोषी मानती है, हालांकि वास्तविकता में वह खुद ही अन्य महिलाओं से जलती है जो खुद की तुलना में अधिक आकर्षक हैं। उसके सामने उसके अंतर्मन को रूपायित करता एक पात्र है जो उससे प्रश्न पूछता है और उसके वर्तमान विचारों से इतर व्याख्याओं को प्रस्तुत करता है। आखिरकार महिला की समझ में आ जाता है कि उसकी पड़ोसन गीता अगर अपने कामकाज के दौरान अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ हँसकर बातचीत करती है तो कोई गलती नहीं करती है। इसके अलावा, वह अपने भीतर की खामियों को भी देखती है जैसे कि वह इस अधेड़ उम्र में क्यों इतने तंग कपड़े पहनती हैं और क्यों उसने दलालों की सहायता से गलत उद्देश्यों हेतु अपनी सुंदरता का लाभ उठाया? क्या वह अपनी वासना और कामुक इच्छाओं की खातिर अपने पति की ईमानदारी को नहीं बेच रही थी? उसकी अंतरात्मा उससे पूछती है कि क्या ये गतिविधियां पति को समर्पित पत्नी की अपनी स्वयं की छवि के अनुरूप है?
नाटक का दूसरा भाग मुख्य कहानी 'टुकड़ों टुकड़ों में औरत' था यह एक सर्वहारा वर्ग की असहाय महिला की कहानी है जिसमें दो छोटे बच्चे हैं। उसकी साड़ी फट जाती है और तूफान साड़ी का एकमात्र टुकड़ा दूर ले जाता है। इसलिए वह गांव छोड़ देती है और एक साड़ी की तलाश में पास के शहर में चली जाती है। बहुत प्रतीकात्मक रूप से लेखक ने शहर के नैतिक रूप से नग्न लोगों द्वारा शोषण की गाथा प्रस्तुत की है। उल्लेखनीय है कि यह शोषण नियोक्ता (समाज), पुलिसकर्मियों (कार्यकारी), राजनीतिज्ञ (विधायी) और न्यायपालिका द्वारा किया जाता है। केवल भगवान ही ऐसे देश को बचा सकता है जहां शासनतंत्र के
सभी तीन स्तम्भ भष्टाचार में आकंठ लिप्त हों और वह भी पूर्ण अधिकार के साथ। नाटक के इस
टुकड़े में प्रदर्शित गरीब महिलाओं पर शासनतंत्र
और समुदाय के हर वर्ग की असंवेदनशीलता ने दर्शकों के अंतःकरण को अत्यधिक झकझोड़ कर
रख दिया। ।
तीसरे नाटक 'सफर' में एक अधेड उम्र का व्यक्ति घर लौट आया है और पर वह वहां अपनी पत्नी या बेटे को नहीं पाता है। जब वह लोगों से पूछता है तो पता चलता है कि उसका बेटा बड़ा हो गया है और उसे नौकरी मिल गई इसलिए वह अपनी माँ को लेकर कोलकाता चला गया है। यद्यपि यह एक खुशखबरी है फिर भी यह बात इस व्यक्ति के लिए एक त्रासदी की तरह भी है क्योंकि वह जानता है कि उसका बेटा इसलिए उसे बिना खबर किए कलकत्ता चला गया है क्योंकि वह उससे बहुत ज्यादा नफरत करता है। बेटे के इस घृणा का कारण है कि उसका पिता अपने रोजगार के कारण उससे और उसकी मां से दूर उड़ीसा में रह रहा था, जहां काम से छुट्टी मिलना असंभव था। हालांकि उस पिता ने नियमित रूप से पैसे भेजे थे फिर भी उसकी अनुपस्थिति ने उसके बेटे को बहुत ज्यादा सताया था। असल में बच्चे के दोस्त और अन्य व्यक्ति वहां कई तरह की चुभने वाली टिप्पणियों के साथ उसका उपहास किया करते थे। एक ऐसी टिप्पणी जो उस बच्चे के लिए असहनीय थी कुछ इस तरह से थी,'तुम्हारा बाप तो सालों से बाहर रहता है फिर भी तुम्हारी माँ गर्भवती कैसे हो जाती है?" लेकिन यहां लेखक ने एक और मुद्दा भी उठाया है जो उतना ही महत्वपूर्ण है। वह बेटा जो अपनी मां को इतना प्यार करता है कि जब वह बीमार पड़ती है या जब उसे धन की ज़रूरत होती है तो हमेशा उसकी सहायता करता है, वह भी अपनी मां की भावनाओं को महत्व नहीं देता। वह कभी यह समझने की कोशिश नहीं करता कि उसकी मां अब भी अपने पति को प्यार करती है और वह इस तथ्य से पूरी तरह से आश्वस्त है कि उसके पति इतने लंबे समय तक इसलिए दूर रहते हैं क्योंंकि यह रोजगार की मजबूरी है और उसमें स्नेह की कमी बिल्कुुुलल नहीं है। इस तरह जब इतनी देेेखभाल करनेवाले बेटे के मन में माँ की इच्छा या भावना का कोई महत्व नहीं है तो दूसरों के बारे में पूछने के लिए क्या?
अदिति सिंह, महेश, नीतीश कुमार, बसंत, सुनील भारती, सरसिज कुमार, गुंजन कुमार, डॉ शंकर सुमन, विभा कुमारी, मिथिलेश कुमार, हरे कृष्ण सिंह, मुन्ना, राकेश कुमार, अभिषेक कुमार त्रिपाठी, कुमारी विभा सिन्हा आदि ने इस नाटक में अभिनय किया। सुमन कुमार नाटक के निर्देशक थे और अरविंद कुमार पटकथा-लेखक।
सुमन कुमार एक प्रवीण और अनुभवी निदेशक हैं जिन्होंने अपना अच्छा कौशल दिखाया। दर्पण कांच का नहीं रखने का एक उद्देश्य यह था कि दर्शकों के ध्यान को दर्पण की ओर केंद्रित होने की बजाय उस पात्र की ओर केंद्रित किया जा सके जो 'अक्स' नाटक में नायिका के मन को अभिनीत कर रहा था। नाटक के अनुक्रमों में लेखिका की कहानियों का रूपांतरण अरविंद कुमार द्वारा अच्छी तरह से किया गया था। अदिति सिंह के अलावा अन्य कई अभिनेता नियमित अभिनेता नहीं थे, फिर भी उनका प्रदर्शन काफी अच्छा था। तीन कहानियों को एक ही नाटक मे पिरो कर सफलतापूर्वक दिखाए जाने हेतु निर्देशक सुमन कुमार और उनके अभिनेताओं का दल प्रशंसा के योग्य हैं. ममता मेहरोत्रा की कहानियाँ चरम प्रकार की संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करनेवाली होती हैं और विशेष रूप से 'अक्स' में बहुत ही सूक्ष्म विषयों को उठाया गया था और उन्हें मंच पर उतार पाना निश्चित रूप से अत्यंत कठिन कार्य था परन्तु अभिनेताओं ने उसे कर दिखाया।
प्रसिद्ध लेखिका ममता मेहरोत्रा के पिता की स्मृति में मनाया जानेवाला आदि-शक्ति नाट्योत्सव का पहला दिन बहुत शानदार तरीके से सफल रहा।
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Author of this article: Hemant Das 'Him'
E-mail: hemantdas_2001@yahoo.com
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