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दिनांक
19 अगस्त 2017, शाम 5 बजे। स्थान–टेक्नो हेराल्ड, दूसरा तल्ला, महाराजा
कामेश्वर कॉम्प्लेक्स , फ्रेजर रोड, पटना। 'दूसरा शनिवार' की गोष्ठी में
प्रभात सरसिज, शिवनारायण, घनश्याम, सुशील कुमार भारद्वाज, अस्मुरारी नंदन
मिश्र, राजकिशोर राजन, शहंशाह आलम, प्रत्युष चंद्र मिश्रा, हेमन्त 'हिम',
समीर परिमल, कुमार पंकजेश, डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा, अमरनाथ सिंह, नेहा
नारायण सिंह, अरविंद पासवान, राजेश कमल, अंचित, बालमुकुन्द, रामनाथ
शोधार्थी, कुंदन आनंद एवं नरेन्द्र कुमार सम्मिलित हुए।
इस गोष्ठी में सामूहिक काव्य-पाठ निर्धारित था, पर उससे पहले बात 'दूसरा
शनिवार' पर होनी थी यानी 'आत्मपरीक्षण'। दो साल की अनवरत यात्रा के पश्चात
यह आवश्यक भी हो गया था कि हम पीछे मुड़के देखें...अपने कार्यक्रमों एवं
इसके उद्देश्यों पर बात करें। पहले सत्र का संचालन प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
के हाथ में था। उनकी तरफ से गोष्ठी की सार्थकता और बढ़ाने के लिए सुझाव देने
हेतु अरविंद पासवान को आमंत्रित किया गया। उनका सुझाव था कि 'दूसरा
शनिवार' की रिपोर्टों एवं पढ़ी गयी रचनाओं का प्रिंट संस्करण आना चाहिए।
पिछली गोष्ठियों के संदर्भ में उनका कहना था कि बात कविता पर अधिक हुई है
वनिस्पत अन्य विधाओं के। अब गोष्ठी में साहित्य की अन्य विधाओं यथा– कहानी,
उपन्यास, संस्मरण आदि पर बात होनी चाहिए। किसी गोष्ठी में हम चित्रकार को
आमंत्रित कर उनकी रचना-प्रक्रिया पर बात कर सकते हैं।बालमुकुन्द ने
इस क्रम में बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि गोष्ठी में नए लोगों को वरीय लोगों
की रचना-प्रक्रिया से परिचित होने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। विभिन्न
साहित्यिक विधाओं पर 'वर्कशॉप' भी लगाया जा सकता है। कार्यक्रमों के
दस्तावेजीकरण पर उनका कहना था कि आज के समय में यह बहुत असरकारक नहीं है।
हाँ, यह अभिलेख का काम कर सकती है।
राजकिशोर राजन का कहना था कि यह
आत्ममुग्धता का दौर है। आलीशान जगहों पर कविताएं पढ़ी जाती हैं तथा बिना
जीवन से जुड़े नकली रचनाओं का निर्माण किया जा रहा है। इससे काम चलनेवाला
नहीं है...जितना अधिक पीड़ा से जुड़ेंगे, कविता उतनी ही प्राणवान होगी।
गोष्ठियों के प्रसंग में उन्होंने आगाह किया कि हमें आह-आह और वाह-वाह की
प्रवृति से बाहर निकलना होगा। प्रिय मित्र की कविताओं की कमियों पर हम बात
नहीं कर पाते। सच को सच कहने के साहस का हममें अभाव है, पर हमें कहना होगा।
उन्होंने 'दूसरा शनिवार' की गोष्ठी में तारानंद वियोगी द्वारा राजकमल
चौधरी के जीवन से जुड़े प्रसंगों पर आयी उनकी कृति 'जीवन क्या जिया, के
शानदार पाठ को याद किया और बताया कि गद्य में कहानीकार अवधेश प्रीत की
रचना-प्रक्रिया को जानने का अवसर हमें गोष्ठी में मिला था। आगे हम इन चीजों
का विस्तार करना चाहेंगे।
अब बारी थी...नरेन्द्र कुमार की।
उन्होंने कहा कि कैसे दो साल पहले कुछ लोगों ने पटना में 'दूसरा शनिवार' की
गोष्ठी की शुरुआत की। यह निश्चित ही एक ताजी हवा का झोंका था जिसने कइयों
को अपनी ओर आमंत्रित किया। अपने पिछले अनुभवों के आधार पर उन्होंने बताया
कि अभी भी सुनने से अधिक सुनाने के लिए लोगों में बेचैनी है। एक और कमी
महसूस हुई कि परिचर्चा के दौरान रचनाओं पर बात करते समय हम पूरी ईमानदारी
से अपनी बात कह पाते तथा सुनने का माद्दा भी कम ही लोगों के पास है। खराब
पर अच्छाई का मुलम्मा नहीं चढ़ाना चाहिए...खराब को खराब कहना ही होगा।
'दूसरा शनिवार' को विस्तारित करने के बिंदु पर उनका कहना है कि पटना
राजधानी है...बड़ा शहर है, अतः हमें यूनिवर्सिटी एवं कॉलेजों में अध्ययन
करनेवालों को जोड़ना होगा। साहित्य में कई पीढियां साथ-साथ बढ़ रही हैं।
उनमें एक पीढ़ी बीस प्लस आयुवर्ग के युवाओं की है, जिन्हें जोड़े बिना
वरिष्ठों की साहित्यिक परंपरा आगे नहीं बढ़ेगी। यह वर्ग साहित्य के छ्ल-छद्म
से दूर रहते हुए बेबाकी से अपनी बात रखता है।
गोष्ठी की अध्यक्षता
कर रहे प्रभात सरसिज ने कहा कि शांतिनिकेतन में जिस उद्देश्य के लिए
खुले-वातावरण में अध्ययन की व्यवस्था की गई, वह आज अब उस रूप में रही कहाँ?
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की परंपरा वहाँ भी बचायी नहीं जा सकी। जहाँ
तक विश्विद्यालय एवं कॉलेजों से जुड़ने की बात है, तो वहाँ वर्कशॉप करके हम
उन्हें 'दूसरा शनिवार' से जोड़ सकते हैं। डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा ने
कहा कि कवियों में अपनी आलोचना सुनने का साहस होना चाहिए। रचनाकारों की
वरिष्ठता इसीमें है कि वे नई पौध को स्थापित होने में खुद सहयोगी हों। अंत में सुझाव देते हुए वरिष्ठ रचनाकार शिवनारायण ने कहा कि 'दूसरा
शनिवार' अपने वर्तमान रूप में ही सही है। गाँधी मैदान के खुले वातावरण में
बैठकर गोष्ठी करना ही इसकी बड़ी पहचान है। अकैडमिक होने के चक्कर में यह
अपनी नैसर्गिकता खो देगी। यह अपने आप में शहर में ताजा झोंका की तरह है
जिसने हम सभी को आकर्षित किया है।
दूसरे सत्र में सहभागियों द्वारा
कविताएं एवं गजलें पढ़ी गयीं। काव्य-पाठ का संचालन राजकिशोर राजन द्वारा
किया गया। प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा का पहला संग्रह 'पुनपुन और अन्य कविताएं'
को बोधि प्रकाशन द्वारा 'दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना 2017'
के तहत प्रकाशित किये जाने की घोषणा को लेकर उन्हें बधाई
दी गयी। गोरखपुर में काल-कवलित हुए नौनिहालों एवं वरिष्ठ कवि चंद्रकांत
देवताले के निधन पर दो मिनट का मौन रख श्रद्धांजलि दी गयी। अंत में
नरेन्द्र कुमार द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया। पढ़ी गयी कुछ रचनाओं के अंश
आप सबके लिए―
अब तुम कहोगे,
देखो न!
शहर के इने गिने,
नामी गिरामी बुद्धिजीवी
अलग अलग विषयों
पर छांट रहे व्याख्यान
उनमें एक से बढ़
कर एक मोटे ताजे सत्ता के जोंक
अपनी सुविधा के
लिहाज से
चुन लिए हैं पक्ष
प्रतिपक्ष
वो भी सिर्फ दिन
भर के लिए
रात को आ जाते
अपने अपने बिल में
(- राजकिशोर राजन)
इक लौ उम्मीद की
है और तूफ़ान से लड़ना है,
मेरे यक़ीन को
यारो गुमान से लड़ना है,
दुश्मन मेरे हो
मगर दोस्त से भी अच्छे हो,
गले मिलो तो ज़रा
फिर इत्मीनान से लड़ना है
किसी के घर की हो
बेटी तो एक चिड़िया है,
ज़रा सी जान को
इस आसमान से लड़ना है,
(- कुमार पंकजेश)
रामनवमी की ध्वजा
बजरंगवली के नाम
से नहीं
बाँस के सहारे ही
लहराती रही है
तीस फीट ऊँचा
आसमान में साल भर
वर्ना कटी पतंग
की तरह गिरी होती
छत-दीवार-गली-मैदान-खेत
में
पेड़ों पर,
काँटों में उलझ कर रह गयी होती
(- अस्मुरारी नंदन
मिश्र)
जिनसे मैं मिला
जिनसे मैंने
बातें की
जिनके साथ यात्रा
की थकान मिटाई
जिनके चेहरे में
ढूंढ़ लिया किसी
अपने का चेहरा
तलाश लिया जिनमें
अपने दिन अपनी
रातों की खुशियां
उन्हें मैं कैसे
भूल सकता हूं
(- शहंशाह आलम)
मेरी पत्नी टोकती
है अक्सर
कि दूध पिलाती
स्त्री को नहीं देखना चाहिए
अब मैं कैसे
समझाऊँ उसे
कि मैं दूध
पिलाती स्त्री को नहीं
टीशन वाली मां को
देखता हूँ
जो थिर भाव से
सृष्टि के सारे
काम करती जाती है
और काम के पूरा
होते ही
इस असार संसार से
विदा हो जाती है
किसी लोकल ट्रेन
को पकड़ कर !
(- शिवनारायण)
एक फालतू मैं कवि
बन गया और
शब्दों को पालतू
बना खूँटे से बाँधने लगा
कुछ शब्दों के
गले में मेरे बनाये पट्टे भी हैं
आदतन वे शिकारी
हो गये हैं
ऐसे ही शब्द
भौंकते हुए
शताब्दी पार चले
आये हैं.
(-प्रभात सरसिज)
धन्य कि आपके बड़े बड़े सिद्धान्त
बस जरा से उनके मानदण्ड दुहरे हैं
एक अनाथ बच्ची कैसी है इस दुनिया में
व्यवस्था के सब लोग ही जहाँ बहरे हैं
(-हेमन्त दास 'हिम')
वो तरस खाकर हमारे ज़ख़्म सहलाते रहे
बदगुमानी में इसे रुतबा समझ बैठे थे हम
याद है अबतक हमें उस रात की जादूगरी
नींद में भोपाल को पटना समझ बैठे थे हम
(- समीर परिमल)
पुनपुन, बहती रहो तुम इसी तरह हमेशा
धरती के इस हिस्से में प्रवेश करती रहो
मनुष्यों और फसलों के भीतर
ज्ञान और सूचना के इस अराजक समय में
सींचती रहो हमारी सम्वेदना
(-प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा)
ऐसा नहीं है कि
इन चेहरों की जरूरत
शहर को नहीं है
पर, वह अपने सपनों की ईंट
थोड़ी और सस्ती जोड़ना चाहता है
और ये चेहरे..!
अपने भूख की कीमत पूरी चाहते हैं
(-नरेन्द्र कुमार)
पर उन्हें भय है
आदिम साये के
स्पर्श से
सदियों से सताये
हुए लोगों से
उनसे जिनके हृदय
पत्थर के नहीं हैं.
(-अरबिन्द
पासवान)
कोई बहुरूपिया है
/ कोई बिदषक /
कोई मूर्ख है /
तो कोई हत्यारा
धूर्त भी हैं
यहाँ और बलात्कारी भी
होड़ सी मची है
इनमें हमारा नायक बनने की
(-राजेश कमल)
दुनिया की
परिक्रमा करना है यहाँ जीवन जीना
श्राद्ध करते हुए
परिक्रमा करना
उसकी जड़ों में
डालना मटके से पानी बार-बार
(-अंचित)
लौटा हूँ जब से अपना ईमान बेचकर
जिन्दा हूँ या मरा हूँ मुझे
कुछ पता नहीं
मुझ को भी घर निकले कई साल हो
गए
बेजान या हरा हूँ मुझे कुछ पता
नहीं
(-रामनाथ शोधार्थी)
मक्खियों को समझ नहीं आता
कि मातृभूमि का अर्थ क्या है
मैं थोड़ी शक्कर मिलाता हूँ
मातृभूमि एक किस्म कि स्थानीय हवा होती है
(-बाल मुकुन्द)
यूँ तो सोचने में सुबह शाम किये हैं
गज़ल जब बनी तब आराम किये हैं
आप ही कहते थे वो लोग हैं झूठे
फिर उन्हें देख क्यूँ सलाम किये हैं
(-कुन्दन आनन्द)
अमन का जिस्म जब चोट खाकर क्रुद्ध होता है
तब उसकी गोद से उत्पन्न गौतम बुद्ध होता है
(-घनश्याम)
लीडर हमारे देश के बनते बड़े महान
फिर भी उनका बस कुर्सी पर है ध्यान
(-बी. एन. विश्वकर्मा)
जिन्दगी कसौटी की दूँगी बारम्बार
सिया सी प्रेयसी बनूँगी हर बार
(-नेहा नाराहण सिंह)
........................
इस रिपोर्ट के लेखक (नरेन्द्र कुमार) एक प्रतिभावान युवा साहित्यकार हैं और समकालीन साहित्य की बहुत अच्छी समझ रखते हैं. इनका ब्लॉग 'अक्षरछाया' भी अपनी विशुद्ध साहित्यिक स्तरीयता के लिए जाना जाता है.
आप अपनी प्रतिक्रिया ईमेल के द्वारा इस ब्लॉग के सम्पादक को भी भेज सकते हैं. आइडी है: hemantdas_2001@yahoo.com
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