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प्रतिरोध के शिखर पर अनवरत नए बिम्बों का गुंफन
कवि-गोष्ठी की रिपोर्ट हेमन्त 'हिम' द्वारा
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'गुंफन' यानी पिरोना या सजाना |
शहंशाह आलम विचारधारा के कवि हैं और उनका प्रतिरोधात्मक स्वर वर्तमान कवियों में सबसे प्रखर है. वे एक निर्भीक कवि हैं और बिना शत्रुओं की शक्ति से भयभीत हुए अपने शब्दों के हथियारों को लेकर आमने-सामने की लड़ाई के लिए सबसे आगे खड़े हो जाते हैं. दूसरी विशेषता जो उन्हें अनन्य बनाती है वह है अभूतपूर्व सृजतात्मक उर्वरा शक्ति. वो सालों से प्रतिदिन एक ऐसी कविता रच डालते हैं जो हजारों लोगों के मानस को दिन-भर आलोड़ित किये रखता है. यह आवेगपूर्ण आलोड़न जनसमुदाय को राष्ट्रीय और सामाजिक कल्याण के मार्ग पर बनाये रखे, कवि इस वास्ते अत्यधिक सतर्क है. और यही कारण है कि एक अति-ऊर्जाशील आंदोलन हेतु प्रेरित करती हुई कविता का अंत बिना चूक के सकारात्मक कल्पना के साथ होता है. इस सकारात्मक अंत वाले गुण को बनाये रखने हेतु कवि को कभी-कभी अपने सृजन के घोड़े को थोड़ा लगाम लगाना पड़ता है. इस तरह से यह सिद्ध हो जाता है कि शहंशाह आलम सिर्फ काव्योत्कर्ष के कवि नहीं हैं बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय उत्कर्ष के कवि भी हैं. वास्तविकता तो यह है कि उनकी कलम में एक झरना है शब्दों का, शिल्प का और बिम्बों का जो बिना किसी प्रयास के उनके लिखे हर वाक्य को स्वत: विविध अलंकरणों से गुंफित किये चलता है मानो प्रकृति स्वयँ उतर आई हो कविता रचने.
दिनांक 5 अगस्त,2017 को पटना के गाँधी मैदान में दूसरा शनिवार संस्था द्वारा भारत के विख्यात कवि शहंशाह आलम का एकल काव्य पाठ हुआ. उनके काव्य पाठ के बाद वहाँ उपस्थित अनेक वरिष्ठ और युवा कवियों ने उनके कविता-पाठ से सम्बंधित महात्वपूर्ण टिपण्णियाँ कीं. उसके पश्चात कुछ युवा कवियों ने अपनी कविताएँ सुनाईं. अंत में काफी अजीम शायर संजय कुमार कुंदन ने धन्यवाद ज्ञापन किया.
नीचे प्रस्तुत है इस एकल काव्य पाठ में उनके द्वारा सुनाये गए कुछ कविताओं की एक झलक-
गान
जो गाया जा रहा है
बिना लय बिना ताल के
वह आपके समय का नहीं
मेरे समय का गान है
आपके समय का गान
भरा है चकाचौंध से
सुस्वादु वनस्पतियों से
अमृतमय औषधियों से
अप्सराओं के नृत्य से
मृत्यु के पराजय से
मेरे गान में मेरे चेहरे
का
बस रुदन है अनंत तक फैल
रहा
अनंत-अनंत बार
आपका मुँह चिढ़ाता
आपके गान का
वाक्य-विन्यास बिगाड़ता
जबकि आप मेरे साथ
जो कुछ करते हैं
पूरे अधिकार से करते हैं
सर्वसम्मत
धर्मसम्मत
विधिसम्मत करते हैं
मेरा बलात्कार
मेरी हत्या भी।
.........
छाता
बारिश के बाद छाते में
थोड़ा पानी बचा रह गया है
यह बचा पानी
उन स्त्रियों की देह पर
बचा पानी है
जिन्होंने जी भर नहाया है
दिगंबर आकाश से
झरते पानी में
जैसे नहाती हैं
यक्षिणियाँ
पृथ्वी पर नया रूपक गढ़ते
अन्तरिक्ष के लिए
अपनी देह पर पानी बचाते
रहने दूँगा मैं भी
छाते का पानी छाते में
स्त्रियों यक्षिणियों के
कठिन दिनों के लिए।
........
एक स्त्री के पास
एक स्त्री के पास प्राचीन क्या है
वह बुहारती है घर अंतरिक्ष जानकर
वह पृथ्वीतल में बीज डालती है
कि उगेंगे रहस्यों से भरे अन्न
सुग्गों को नहलाती है ओस की बूँदों से
हरी पत्तियों में से चुन-चानकर
जल में उझलती है अपने इकट्ठे किए आँसू
जो हथियार बनेंगे पानियों में घिसकर
संहारने आदिम दैत्यों को एक न एक दिन
यह सच है एक स्त्री के पास उसके लिए
समय का सबसे पुराना वह कोना होता है
जिसमें गाती है अपने समय का अनूठा कोरस
जो बारिश लाता है वृक्षों वनस्पतियों के लिए
और इस तरह एक स्त्री इस ग्रह की आयु
बढ़ाती जाती है अपने लिए प्रेम को बचाते।
..........
ढोलकिया- काव्यांश
यह भी सच है
हर ढोलकिया जाग रहा है
अपने विरोध को साधते हुए
अपनी ढोलक की आवाज़
दूसरे ढोलकिया तक
पहुँचाते हुए
यक्षिणी (एक) -काव्यांश
यह आकाश जो कोरा है
तुम्हारी छुअन की
प्रतीक्षा में
शताब्दियों-शताब्दियों से
यक्षिणी (तीन) -काव्यांश
तुम स्वर्ग की चौपाइयाँ
सुनाते हो
जब अपनी धुन में मगन
मेरे आँगन में उग आईं
वनस्पतियों की हज़ार-हज़ार
क़िस्में
पुरखों की तरह मुझे आकर
दुलारती हैं
मेरी इस योनि को अपनी
औषधि से चमकाते
तुम्हें लगता है मैं ही
यक्ष हूँ तुम्हारा
तुम्हारी ही तरह मृत्यु
को पराजित करता हुआ
यक्षिणी (चार) -काव्यांश
सुनो, यक्षिणी! भूले हुए सारे शब्द
लौट रहे हैं तुम्हारी
नाभि की तरफ़
मेरे हाथों ढले जलकुंड
में नहा-धोकर
यक्षिणी (पाँच) -काव्यांश
तुमने कहा नर्तक अपने इस
समय से बतियाते
कि यक्ष-प्रश्न कठिन होते
हैं चट्टानों की तरह
प्रश्न तो अकसर कठिन ही
होते हैं
मेरे मनुष्य-जीवन के और
तुम्हारे यक्ष-प्रेम के
तुम्हें पाने के लिए
पृथ्वी पर नक्षत्रों को छितराते
युधिष्ठिर जैसा हर
यक्ष-प्रश्न के लिए तैयार हूँ तब भी
यक्षिणी (छह) -काव्यांश
और यह अंतरिक्ष रोज़ अनथक
गाता है तुम्हारी इस देह को
मेरी देह से मिलाता किसी
प्राचीन लिपि को स्वर देता हुआ।
कवि ने 'बादल', 'उत्खानन,'पट' आदि कविताएँ भी पढ़ीं.
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वरिष्ठ शायर संजय कुमार कुंदन ने कवि द्वारा पढ़ी गई कविताओं पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि शहंशाह आलम पूरे काव्य-जगत में अपना लोहा मनवा चुके हैं. देश की कोई भी ऐसी सम्मानित पत्रिका नहीं है जिसने इनकी रचनाएँ बार-बार न छापी हों. ये अति-उच्च उत्पादन क्षमता वाले रचनाकार हैं. बड़े आश्चर्यजनक बिम्ब ये गढ़ते हैं और अंत तक उसका निर्वाह करते हैं. इनकी कविताएँ सुनने में तो आसान लगती हैं पर आसान होती नहीं हैं. अपने स्वभाव और शब्द-विधान की अत्यधिक सरलता के बावजूद भी ये एक कठिन कवि हैं क्योंकि इनका काव्य का साहित्यिक स्तर काफी ऊँचा है. डॉ. बी.एन. विश्वकर्मा ने कहा कि शहंशाह आलम राष्ट्रीय स्तर के मूर्धन्य कवियों में से हैं और इनकी कविताओं को ध्यान लगाकर सुनना होता है जो समझ, समझ के समझ में आती हैं. परन्तु ये कविताएँ ऐसी भी नहीं है जिन्हें कोशिश करने पर भी कोई साधारण आदमी कुछ भी न समझ पाए.
वरिष्ठ कवि प्रभात सरसिज ने कहा कि ये एक बोझिल कवि बिल्कुल नहीं हैं. ये व्याकरण के पीछे नहीं चलते बल्कि हिन्दी का व्याकरण ही इनके पीछे चलता है. 'काहे से' का प्रयोग एक नये संदर्भ में ये बहुतों बार करते हैं. साथ ही' स्त्री के लिए भी 'आते हो' का प्रयोग एक नए तरीके का प्रयोग है जो ये बार-बार करते हैं. ये निश्चित रूप से क्रांतिकारी कवि हैं. कर्मशील बिम्ब इनके काव्य की विशेषता है. जैसे- लोहार, बढ़ई आदि का उल्लेख शुरु में ही नहीं बल्कि बार-बार मिलता है एक ही कविता में. कविता की भावी दौड़ इनकी है. हँ, इनकी रफ्तार बहुत तेज है.
युवा शायर समीर परिमल ने कहा कि इनकी कविता लगता है मानो बीच ही में खत्म हो जाती है. सरल सी लगने वाली कविताएँ काफी गहराई लिए है. युवा कवि अंचित ने कहा कि इनकी कवितामें समयबोध सीखने योग्य है. ये प्रतिदिन उस दिन चर्चित रही सामयिक घटनाओं का संदर्भ कविताओं में डालते हैं.
वरिष्ठ कवि मुकेश प्रत्यूष ने कहा कि शहंशाह आलम की कविताओं में निरन्तरता चौंका देने वाली है. यह कवि पूजा की भाँति प्रति दिन कविताएँ रचता है. इतनी सक्रियता को सालों तक लगातार बरकरार रखना आश्चर्यजनक है और यह शहंशाह आलम ही कर सकते हैं.
कार्यक्रम के अगले दौर में अंचित, नेहा नारायण सिंह, रामनाथ शोधार्थी, सलमान अरशद, संजय कु. कुंदन, अस्मुरारी नंदन मिश्र , हेमंत 'हिम' और कुमार राहुल ने भी एक-एक कविता पढ़ीं.
अजीम शायर संजय कुमार कुंदन ने अपनी एक सुन्दर नज़्म पढीं-
"अब न जागेंगी हिज्र की राते^
झूठ बोलें तो किस तरह बोलें
किस जुबाँ से दिलजोई करें"
ऊर्जावान युवा शायर रामनाथ शोधार्थी ने दमदार शेर पढ़े-
"खा ही जाती भूख मुझे कल रात
खुद को खाकर बचाया है खुद को"
कवयित्री नेहा नारायण सिंह ने अपनी नारी-स्वर की कविता कुछ यूँ पढ़ी -
"वो निर्भया थी जो आगाज़ कर चली गई
उसे अंजाम तक पहुंचाने वाले होंगे हम
अपनी आजादी को आप पानेवाले होंगे हम"
अस्स्मुरारी नंदन मिश्र ने अपनी कविता में प्रतिरोध को देशद्रोह साबित करनेवालों के खिलाफ एक कविता पढ़ी-
" यही उनकी जीत थी .... / जो प्रचारित हुई कि / यह हमारी हार थी
क्या करें, अदालत भी लाचार थी
हमारी अनुपस्थिति को कबूलनामा मान लिया गया"
हेमन्त 'हिम' ने सामूहिक बेबसी को व्यक्तिगत रूप में प्रकट किया-
"बेजान से वजूद में थोड़ी जान आई थी
खुद को बयां करने जो मैंने कलम उठाई थी
उनकी थी सदा और मैं जाने को बेचैन,
बीच में बेबसी की बड़ी गहरी खाई थी"
इस कार्यक्रम में राजकिशोर राजन, अरविंद पासवान, कुमार पंकजेश, अनीश अंकुर, सलमान असहादी साहिल, जयप्रकाश, जीतेंद्र वर्मा आदि भी उपस्थित थे.
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