प्रासंगिक विषय के गाम्भीर्य को अक्षुण्ण रखते हुए मनोरंजक प्रस्तुति
(ब्लॉगर की टिपण्णी नीचे पढ़िये)
स्थानीय कालिदास रंगालय में रंगमार्च, पटना द्वारा आयोजित थिएटरवाला
नाट्योत्सव के तीसरे दिन जन-विकल्प, सीतामढ़ी द्वारा मृत्युंजय शर्मा लिखित नाटक 'सपनों का मर जाना...' का मंचन युवा निर्देशक राजन कुमार सिंह के निर्देशन में
किया गया। ये नाटक स्कूली बच्चों और युवाओं में पनप रहे आत्महत्या की प्रवृति के
लिये जिम्मेदार सामाजिक परिस्थितियों की पड़ताल करने का प्रयास करती है। कैसे कोई
सपना समझौता में बदल जाता है और कभी-कभी आत्महत्या तक कि नौबत आ जाती है।
'सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना' पाश की इस पंक्ति में निहित कथ्य का विस्तार करता है ये नाटक। एक बच्चे का सामाजिक परिवेश घर और विद्यालय होता है। इन दो द्वीपों के बीच वो इंद्रधनुषी सपने बुनता है। दिन-प्रतिदिन छोटे-छोटे अभावों और समस्याओं से उसका टकराव होता है और अंततः वो किसी और ही दिशा में निकल पड़ता है। तब तक सबकुछ बदल चुका होता है। सबकुछ होता है, बस उसके सपने सच नही होते। सपनो में कामयाबी सिर्फ प्रतिभा, मेहनत और पुरजोर कोशिशों से नही मिलती, बल्कि हमारा पारिवारिक-सामाजिक-राजनीतिक परिवेश उसे न सिर्फ प्रभावित करता है, बल्कि बिखेर देता है। ऐसे में या तो हम समझौता कर लेते हैं या आत्महत्या या फिर अपने धैर्य के साथ अपने सपनों को सजाने में तब तक जुटे रहते हैं, जब तक वो सच न हो जाये।
इसकी परिकल्पना में एक मुख्य पात्र को विभिन्न कलाकारों द्वारा चित्रित करने का प्रयास किया गया है, ताकि वो एक इकाई का नही बल्कि समेकित रूप से हर बच्चे का प्रतिनिधित्व करे, जो विभिन्न परिस्थितियों में जी रहे हैं। विद्यालय और घर के बीच की खाई को स्पष्ट रेखांकित करने का निर्देशक ने भरपूर प्रयास किया है। पार्श्व संगीत और प्रकाश के इस्तेमाल से नाटक को घर और विद्यालय के बीच एक पार्क के बहाने एक बच्चे के सपनों को उड़ान देने की कोशिश की गई है। राजन ने मैं नास्तिक हूँ, एक और मोहरा, रिफंड के बाद फिर से युवाओं पर केंद्रित नाटक द्वारा उनके मनोभाव और सामाजिक परिस्थिति को दर्शाने का सफल प्रयास किया है। दर्शक नाटक के अंत तक अपनी कुर्सी से चिपके रहे और तालियां नाटक की सफलता बयान कर रही थी।
नवोदित लिली ओझा पहले ही नाटक में प्रभावित करती है। राज, प्रज्ञानशू, रौशन और नीतीश ने भी अच्छा अभिनय किया है। यूरेका माँ के किरदार में और सत्यजीत बाप के किरदार में जंचे हैं। अन्य कलाकारों ने भी अच्छा काम किया, कुल मिलाकर नाटक का मंचन बेहद सफल रहा।
मंच पर अन्य कलाकारों में मृत्युंजय शर्मा,रमेश कुमार रघु, ज्ञान पंडित, विक्की राजवीर, अर्पित शर्मा, राहुल राज एवं संतोष राजपूत।
मंच परिकल्पना- प्रदीप गांगुली, प्रकाश परिकल्पना- रौशन कुमार एवं राहुल रवि, रूप-सज्जा एवं नृत्य संयोजन- नूपुर चक्रबर्ती, वेश-भूषा- सरिता कुमारी, संगीत- दीपंकर शर्मा, पात्र सामग्री- संतोष राजपूत, यूनिफार्म- ईशान इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल के सौजन्य से।
(नाटक की उपरियुक्त रिपोर्ट जन-विकल्प संस्था द्वारा प्रदत्त सामग्री पर आधारित)
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बिहारी धमाका की टिपण्णी:
नाटक की प्रस्तुति निर्देशकीय कौशल, मंच-सज्जा, आलेख, नृत्य-दृष्य, अभिनय, प्रकाश-संयोजन, ध्वनि-व्यवस्था आदि अनेक मापदण्डों पर धमाकेदार रूप से अपना प्रभाव दर्शकों पर डालने में सफल रही। कम उम्र के अभिनेताओं के रहते हुए भी निर्देशक राजन कुमार सिंंह उनसे बेहतर काम लेने में सफल रहे। राज, प्रज्ञानशू, रौशन और नीतीश ने अपेक्षा के अनुरूप बेहतर अभिनय किया। सत्यजीत (बाप), यूरेका (माँ), मृत्युंजय शर्मा ने तो मंझा हुआ अभिनय किया ही, लिली ओझा, रमेश कुमार रघु, ज्ञान पंडित, विक्की राजवीर, अर्पित शर्मा, राहुल राज एवं संतोष राजपूत ने भी कुशल अभिनय करके इस नाटक को जीवन्त कर दिया। मुख्य पात्र (छात्र) की मित्र छात्रा में वास्तव में विशेष अभियन प्रतिभा है। मुख्य पात्र और उसकी बहन ने भी अच्छा अभिनय किया।
नुपूर चक्रवर्ती के नृत्य संयोजन में एक गाने पर पूरा नृत्य के प्रदर्शन ने नाटक को काफी मजेदार बना दिया और चूँकि यह छात्रों के जीवन पर आधारित था इसलिए नृत्य का वह दृष्य इसमें खप रहा था। कहानी का अंत थोड़ा और स्पष्ट किया जा सकता है।
आज के समय के अनुसार बिल्कुल प्रासंगिक विषय को बखूबी उठाने के लिए मृत्युंजय शर्मा निश्चित रूप से बधाई के योग्य हैं। समाज को ऐसे विषयों पर नाटक की प्रस्तुति की काफी जरूरत है।
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