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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Thursday, 9 November 2017

अस्तित्व अंकुर के साथ एक काव्य गोष्ठी पटना में 8.11.2017 को सम्पन्न

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मेरे दुश्मन को है मालूम मेरी दुश्मनी की हद / कहीं जाना हो तो बच्चे मेरे घर छोड़ जाते हैं

दिल्ली से पधारे हिन्दी गज़ल के युवा किन्तु राष्ट्रीय स्तर के अत्यंत सशक्त हस्ताक्षर अस्तित्व अंकुर के साथ पटना के कुछ सुधी कवियों ने 8.11.2017 को शायर संजय कुमार कुन्दन के आवास पर एक काव्य-संध्या का आनन्द लिया. यह गोष्ठी चली तो अनौपचारिक ढंग से लेकिन संवाद की गहराई और गम्भीरता के लिहाज से यह कई औपचारिक गोष्ठियों से भी कहीं ऊपर थी.


पहले कुछ शायरों ने अपनी गज़लें पढ़ीं फिर अस्तित्व अंकुर का लम्बा सत्र चला और फिर शेष कवियो/ शायरों ने अपनी रचनाएँ पढ़ीं.  अंकुर की खासियत है अत्यंत सरल शब्दों में गहरी से गहरी बात कह जाना. अंकुर वह शिकारी है जो लकड़ी की टहनियों से बड़े-बड़े खूँखार पशुओं का शिकार कर डालता है. इनकी गज़ले मामूली समझी जानेवाली और बिल्कुल बोलचाल के शब्दों का अविश्वसनीय ढंग से जादूई इस्तेमाल करती हैं और सिद्धस्त शायरों जैसी नजाकत बरतते  हुए तमाम समकालीन मुद्दों को पूरी शिद्दत के साथ उभारती हैं. पहले प्रस्तुत है अस्तित्व अंकुर के द्वारा सुनाई गई गज़लों के नमूने-

मेरे दुश्मन को है मालूम मेरी दुश्मनी की हद
कहीं जाना हो तो बच्चे मेरे घर छोड़ जाते हैं
...
रिश्ते जिनमें पल-पल घुटता हो कोई
जायज होकर भी कितने नाजायज हैं
....
खता को खता मान लो, इसमें कोई बुराई नहीं
फैसला एक गलत हो गया भूल थी वो बेवफाई नहीं
कैसे भूलें तुम्हें तुम कहो तुम कहो कैसे भूले तुम्हें
ले गए दिल मगर आज तक तुमने कीमत चुकाई नहीं
ये गज़ल, गीत सब आप के, और तो और हम आप के
सब ये तोहफे हैं लेकिन सनम, आपकी ये कमाई नहीं
ये न समझो फसाना न था, रूठने का बहाना न था
रूठ सकते थे हम भी मगर, बात दिल से लगाई नहीं
कब से बैठे थे तन्हाई में, रंग अश्कों में घोले हुए
आपकी याद आई नहीं, हमने होली मनाई नहीं
...
मेरी नजरों से गिरेंगे तो सभल जाएंगे
खुद की नजरों से मगर बचाये रखिये
अपना किरदार बड़ा साफ नजर आएगा
फासला खुद से जो रखते हैं, बनाये रखिये

मेरी शिकस्त के पीछे हजार चेहरे हैं
हरेक शख्स मेरा इस्तेमाल करता है
हो आसमाँ को मुबारक चाँद और तारे
मेरा चिराग मेरी देखभाल करता है
.....
देवता सारे जमीं पर आ बसे
आदमी बेमौत मारे जाएंगे
....
हमने दहशत को नहीं सिर्फ हिफाजत खातिर
आपको सौंपी है तलवार, अदब से चलिए
हमको बाँटोगे तो हम और करीब आएंगे
हम कसम खाते हैं इस बार, अदब से चलिए
ये कलम है किसी चौखट पे नहीं रुक सकती
ये लिखा करती है किरदार, अदब से चलिए.

अस्तित्व अंकुर के उपर्युक्त शेरों के बाद अब उन अन्य कवियों और शायरों की झलकी भी देखिए जिन्होंने इस अवसर पर अपना काव्य-पाठ किया.

अक्स समस्तीपुरी ने अपनी रचना से कार्यक्रम का आगाज़ किया. खुद पर बात आने की परिस्थिति का वर्णन उन्होंने यूँ किया-
महफिल में नाम उसका पुकारा गया था और
सब लोग थे कि मेरी तरफ देखने लगे
जो कहते थे कोई तुझे ठुकरा न पाएगा 
जब बात खुद पे आई तो वो सोचने लगे

ओसामा खान ने अपनों द्वारा ही जीना मुहाल करने की कशमकश की तस्वीर खींची-
अपने ही जीना जब मुहाल करें
कहाँ जा के तब हम सवाल करें
ज़र्फ दरिया का देखिए साहब
अब समन्दर से भी सवाल करें

डॉ. रामनाथ शोधार्थी ने रूमानी अंदाज में वंचित वर्ग तक विकास योजनाओं के नहीं पहुँच पाने की बात पर अपने अशआर पेश किये-
आसमां से अगर उतर आये
मेरी सूरत उसे नज़र आये 
किस तरह ख़्वाब तक पहुंचता मैं 
पांव निकले न मेरे पर आये

'दिल्ली चीखती है' के शायर समीर परिमल ने मुहब्बत की पुकार को सुनते हुए अपनी कशमकश का इजहार यूँ किया- 
जहाँ की नफरत से चाक दिल को किसी की चाहत बुला रही है
तुम्हे मुबारक तुम्हारी दुनिया, हमें मुहब्बत बुला रही है
अभी भी जारी है जंग खुद से, कि ज़िन्दगानी है कशमकश में
इधर शराफत बुला रही है, उधर बगावत बुला रही है

फिर परिमल ने अपनी बुराई को बुराई के माध्यम से ही परास्त किये जाने के विरोधाभास का सुंदर चित्रण किया-
मिटाने को नक्शे-कदम को तुम्हारे
तुम्हारी ही राहों पे हम चल पड़े हैं
रक़ीबों को क़ासिद बनाया तो देखा
कि पत्थर के सारे  सनम चल पड़े हैं

हेमन्त दास 'हिम' ने एक अंतर्द्वंद्व से टूटते आदमी की स्थिति को इस तरह से दर्शाया -
यह भवन कभी न हिला था आँधी और तूफानों से
अंदर से जो रिसा तो खुद को शनै: शनै: ढहने दिया
नन्ही आँखें, अँटकी बूँदें, गज़ब नजारा था वह यारों
चुप बस सुनता रहा उम्र भर और उन्हें कहने दिया
.
उनके बाद आयोजक अज़ीम शायर संजय कुमार कुंदन ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने की साजिश को नाकाम करते हुए कहा-
आपको छोड़ कर है भला कौन कौमपरस्त
सब को कहते रहें गद्दार भला डर कैसा
आपने कत्ल किया और शहादत बख्सी
अब तो कुन्दन भी है तैयार भला डर कैसा

फिर अस्मुरारी नन्दन मिश्र ने बहुत कम शब्दों मे क्रूर अट्टाहासों के परिवेश में घुट रही करुणा को साफ-साफ दिखाने में सफल रहे-
दुआओं की
प्रार्थनाओं की
सलाहों की 
प्रेमालापों की ध्वनि
जितनी थी आहिस्ता
उतने ही जोर के थे अट्टहास
उतने ही घोर थे धमाके.

और अंत में कवि घनश्याम ने अपनी रचना सुनाई. उनकी रचनाओं में हिंदी और ऊर्दू के शब्दों का जो कलात्मक संंयोजन होता है वह विलक्षण है. देखने लायक कुछ पंक्तियाँ इस  तरह से भी थीं- 

घने जंगल से होकर हम सुरक्षित लौट आए
नगर में भी सुरक्षित रह सकेंगे कह नहीं सकते
.....
भूख से छटपटा रहे हंस को
नेह के चंद मोती चुगा दीजिए
हो रही हो जहाँ घृणित साजिशें
आग उस कोठरी में लगा दीजिए
....
ये गूँगे और बहरों का शहर है
किसी से कुछ यहाँ कहना वृथा है
तुम्ही से ज़िंदगी में रौशनी है
चतुर्दिक कालिमा ही अन्यथा है.

इस अवसर पर नवीन कुमार ने भी एक मुक्तछन्द कविता पढ़ी. गज़ल और  कविताओं के  साथ  चाय-नाश्ते का दौर चलता रहा. एक मीठे अहसास के साथ यादगार शाम का सौहार्दपूर्ण माहौल में अंत किया गया.
............
इस रिपोर्ट के लेखक- हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया भेजने का ईमेल - hemantdas_2001@yahoo.com



































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