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ज़िन्दगी क्या है गुनाहों के सिवा कुछ भी नहीं / हँसी के चेहरे में आहों के सिवा कुछ भी नहीं
दूसरा शनिवार- 11.11.2017 (भाग-2)
गोष्ठी के दूसरे शायर थे
कुमार पंकजेश. शिल्प के ख्याल से आज़ाद इनकी ग़ज़लों में एहसासों को बड़ी ही नजाकत के
साथ पिरोया गया है. यद्यपि ये आशियाना जलालानेवाले समाज को मदरसे और क़ुतुब को बख्स
देने की गुजारिश करते दिखाते हैं और सियासत की गन्दी चालों से वीरान हो रही
बस्तियों की त्रासदी का बयां भी करते हैं फिर भी इनकी गज़लों की मुख्य भावभूमि समाज
की बजाय व्यक्ति है. यदि व्यक्ति संवेदनशील हो जाएगा तो समाज की बुराइयां अपने-आप
कम हो जायेंगी. ये भावनाओं की पतवार से रिश्तों की नैया खेते हुए प्रहारक एव^ जिस्म और जेहन ही नहीं बल्कि रूह तक को घायल कर देनेवाले इस दुनिया रुपी बबंडर
के पार उतरना चाहते हैं.
क्यूँ पड़ी बीरान
सी ये बस्तियाँ
क्या सियासत हो
रही है फिर यहाँ
फूँकते हो क्यूँ
मदरसे और कुतुब
दिल नहीं भरता
जलाकर आशियाँ?
मुद्दतें गुजरीं
भुला डाला हमें
सुब्ह से क्यूँ
आ रही हैं हिचकियाँ
लाख चाहे ऐब हो
किरदार में
माँ छुपा लेती
हैं मेरी खामियाँ
फिर सेहन में है
गौरैयों का हुजूम
आ गई ससुराल से
क्या बेटियाँ
भाई कतरा कर निकल
जाता है अब
गुम हुईं बचपन की
सारी मस्तियाँ
हो अदब तहज़ीब या
हो मौशिकी
सबसे पहले है
जरूरी रोटियाँ.
......
ज़िन्दगी क्या है
गुनाहों के सिवा कुछ भी नहीं
हँसी के चेहरे
में आहों के सिवा कुछ भी नहीं
हर तरफ फैला हुआ
है ये प्यास का सेहरा
मगर ये सच है
सराबों के सिवा कुछ भी नहीं
तेरा चेहरा है,
चेहरा ये ज़िन्दगी का है
राज ही राज,
हिजाबों के सिवा कुछ
भी नहीं
तंज के
तीरों से जख्मी हुई
जो रूह मेरी
यूँ लगा
तेरी पनाहों के
सिवा कुछ भी
नहीं
कितनी सांसों
को लिया और कितनी हैं बांकी
हयात ऐसे हिसाबों
के सिवा कुछ भी नहीं
जो है किरदार
निभाना है बखूबी सबको
सब के चेहरों पे
मुखौटों के सिवा कुछ भी नहीं
जेहन तो जेहन है
जो रूह भी ज़ख़्मी कर दे
ये बस जुबां है जुबाओं के सिवा कुछ भी नहीं.
......
मैंने पुराने
राब्तों की शाल
जो तह करके रखी
थी
इस गुलाबी ठंढ
में
फिर से निकाल ली
हैं
थोड़ी सिहरन थोड़ी
हरारत
हथेलियों से आता
पसीना
आंखों में कुछ
खुश्क पल
होठों पर भींगे
हुए बोसे
अब धूप भी गुम है
और
धनक भी गुम
यादों की सिलवटों
को सीधी करने को
\तकिये के नीचे रख
दूंगा
आज रात सारे
मरासिम
इस उम्मीद पर कि
फिर से
मुस्कुराएंगी
करवटों में पिघली
सांसे
कसमसायेंगी,
पिघलेंगी
और रंगों में
ज़ज्ब हो जायेंगी
कहाँ होता है ऐसा
अक्सर
कि धूप हुई बारिश
में
और धनक हंसने लगी
एक सिरे को मैं
और दूसरे सिरे को
तुम
पकड़े हुए दूर चल
पड़े
दूर उफ़क की ओर.
जिंदगी में
इन्होने जोखिम की बड़ी घाटियों को पार तो कर लिया है लेकिन इस प्रयास में इन्हें
इतनी खरोंचे और चोटें मिली हैं कि अब ये पूरी तरह से घायल हैं. पर अब भी उनकी
आंखों में एक ऐसी दुनिया का का स्वप्न है जहां पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर सद्भाव होगा, विश्वास होगा और शान्ति भी.
......
आलोचना-2 (कुमार पंकजेश के संबंध में):
पंकजेश की ग़ज़लों
में अनुभूति की मृदुलता चरम पर है. रिश्तों की अहमियत को ये ये तरह समझते है मानो
वो हवा और पानी के जैसी जरूरी चीज हो जीने के लिए. इन्हें रचनाशीलता के सातत्य को
कायम रखना होगा और निश्चित रूप से बहर पर ध्यान देना होगा क्योंकि जानकार लोगों ने
उसपर सवाल उठाये. वैसे तो सभी रचनाकर्मी का चित्रफलक अलग-अलग होता है और होना भी
चाहिए फिर भी अगर देश और दुनिया पर ज्यादा तवज्जो देने के आज के रुख पर भी ध्यान
दिया जाय तो शायद बुराई नहीं होगी.
.........
नोट: इस आलेख का
लेखक कोई बड़ा साहित्यकार और समालोचक नहीं है. इसलिए उसकी टिप्पणियों को पाठकीय
टिपण्णी समझी जाय समालोचकीय नहीं.
.....
इस आलेख के लेखक- हेमन्त दास 'हिम'
फोटोग्राफर - हेमन्त 'हिम'
ईमेल - hemantdas_2001@yahoo.com
http://biharidhamaka.blogspot.in/2017/11/11112017.html
भाग 1 का लिंक- http://biharidhamaka.blogspot.in/2017/11/11112017.html
भाग 2 का लिंक - ऊपर पढ़िए
भाग 3 का लिंक - http://biharidhamaka.blogspot.in/2017/11/11-17.html
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