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Monday, 6 November 2017

विशुद्धानन्द की 'पाटलिपुत्र में बदलती हवाएँ : सिहरती दूब' का लोकार्पण 5.11.2017 को पटना में सम्पन्न

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संक्रांति काल में साहित्य बन जाता है इतिहास

"भोजन योग्य अन्न करने को ज्यों कणमर्दन शाश्वत है
सृष्टिकार के कालचक्र का घूर्णन नर्तन साश्वत है" (लोकार्पित पुस्तक से)


कालचक्र के घूर्णन नर्तक के अधीन पुस्तक लोकार्पण से स्मृतिसभा-सह-लोकार्पण कार्यक्रम में परिणत अपनी तरह के एक अनोखे समारोह में प्रखर गीतकार, नाटककार, पटकथालेखक, रेडियो रूपक लेखक स्व. विशुद्धानन्द की पुस्तक  'पाटलिपुत्र में बदलती हवाएँ: सिहरती धूप' का लोकार्पण बी.आई.ए. सभागार, सिन्हा लाइब्रेरी रोड, पटना में 5 नवम्बर, 2017 को किया गया. कार्यक्रम का संचालन भागवत अनिमेष और अध्यक्षता डॉ. शिववंश पाण्डेय ने की. हृषीकेश पाठक के द्वारा धन्यवाद ज्ञापन हुआ. साहित्य, इतिहास और राजनीति के अनेक सुप्रसिद्ध व्यक्तियों ने पुस्तक का लोकार्पण किया और लेखक तथा उनकी कृति पर अपने विचार व्यक्त किये. वक्ताओं में सांसद (डॉ.) सी.पी. ठाकुर, बिहार अभिलेखागार के निदेशक डॉ. विजय कुमार, बिहार-झारखण्ड के पूर्व मुख्य सचिव विजय शंकर दूबे, बिहार, काशी प्रसाद शोध संस्थान के निदेशक विजय कुमार चौधरी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. अनिल सुलभ, दूरदर्शन के उपमहानिदेशक पी.एन.सिंह, आकाशवाणी पटना के केंद्र निदेशक डॉ. किशोर सिन्हा, समालोचक डॉ. शिववंश पाण्डेय, 'नई धारा' के सम्पादक डॉ. शिवनारायण आदि शामिल थे. 

सबसे पहले आये हुए अतिथियों और दर्शकों का स्वागत स्व. विशुद्धानंद के पुत्र प्रणव ने किया और कहा कि उन्हें दु:ख तो बहुत है कि उनके पिता द्वारा निर्धारित इस कार्यक्रम में वे स्वयं नहीं हैं लेकिन खुशी भी है कि जिस तरह जिस दिन उन्होंने कार्यक्रम रखा था हम सब मना रहे हैं. लोकार्पण के पश्चात संचालक भागवतशरण झा 'अनिमेष' एक-एक कर वक्ताओं को आमंत्रित करते रहे और सब ने अपनी अपनी बातें रखीं. 

सांसद सी.पी.ठाकुर ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने विशुद्धानन्द के नाटकों को रेडियो पर सुना है और उनकी विलक्षण प्रतिभा से काफी प्रभावित रहे हैं. पाटलिपुत्र के इतिहास बिम्बिसार काल से लेकर बिल्कुल आधुनिक काल तक का इतना सुंदर वर्णन दुर्लभ है. यह पुस्तक न सिर्फ ज्ञान देनेवाला है बल्कि पाठकों को सभ्य भी बनाता है. 

डॉ. अनिल सुलभ ने साहित्य और इतिहास के अंतर्सम्बंधों पर प्रकाश डाला और कहा कि साहित्य ही इतिहास को आगे बढ़ाता है. विशुद्धानंद ने पाटलिपुत्र के इतिहास को साहित्यिक दृष्टि से जो वर्णन किया है वह अद्भुत है. लोगों को पाटलिपुत्र के इतिहास को रोचकता के साथ जानने का मौका मिलेगा और लेखक की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम होगी. यद्यपि वे उन्हीं फिल्मी दुनिया के लोगों द्वारा छले भी गए जिनके लिए उन्होंने सर्वाधिक काम किया.

डॉ. किशोर सिन्हा ने विशुद्धानन्द से अपना चालीस सालों का रिश्ता बताते हुए कहा कि विशुद्धानन्द बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे- चाहे वह कविता हो, कहानी हो, रेडियो लेखन हो या फिल्म. हर जगह उन्होंने अपना झण्डा सफलतापूर्वक गाड़ा और पाठकों-श्रोताओं को चमत्कृत करते रहे. तमाम लोकप्रियता के बावजूद वे धरतीपुत्र यानी डाउन-टु-अर्थ बने रहे. उन्होंने कहा कि आकाशवाणी और दूरदर्शन हेतु लेखन बहुत कड़े अनुशासन की माँग करता है. रेडियो रूपक में साहित्य के तमाम स्वरूप इसमें समाहित हैं. 13 कड़ियों का उनका धारावाहिक 'सुरसतिया' के नाम से प्रसारित हुआ था जो महादलित वर्ग की पीड़ा का सजीव वर्णन करता है. पुस्तक के रूप में वह 'माथे माटी चंदन' के नाम से आया. विशुद्धानंद का हिन्दी भाषा के साथ-साथ अंगिका, मगही, भोजपुरी आदि बोलियों पर भी पूर्ण अधिकार था.

पी.एन. सिंह ने विशुद्धानन्द के काव्य को नेपाली और दिनकर का मिला-जुला रूप बताया. वे छन्द के साथ-साथ मुक्तछन्द भी अच्छा लिखते थे. 1990 ई. में पटना दूरदर्शक के खुलने पर जब वे (पी.एन. सिंह) कार्यक्रम अधिशासी के तौर पर आए तो बेहतर नाटक लेखक की तलाश करने पर सिर्फ उनका नाम लोगों ने बताया.  उन्होंने तीस के लगभग फिल्मों के गीत और पटकथा का लेखन किया और सफल रहे. वे मधुरकंठ के स्वामी तो थे ही उनकी गायन की प्रस्तुति की शैली भी लाजवाब थी. और यही गुण उनके पुत्र प्रणव में भी संचरित हुआ है. 

डॉ. विजय कुमार चौधरी ने कहा कि पुस्तक में पटना के 2600 वर्ष के इतिहास को 200 पन्नों में समेटा गया है. साहित्यकार जब इतिहास लिखता है तो वह इतिहासकार के  लिखे इतिहास की तरह शुष्क नहीं होता बल्कि जीवन्त होता है. और विशुद्धानन्द जैसा जीवन्त लेखन करनेवाला तो बिरले ही होता है. उन्होंने दो सूत्रधारों इतिहास पुरुष और संस्कृति देवी के माध्यम से 2600 वर्षों की घटनाओं को पिरोया है.

डॉ. विजय कुमार ने साहित्य को मानव सभ्यता को आगे ले जानेवाली मशाल बताया. सच्चा इतिहास साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है और उसमें कुछ भी रचनात्मक लेखन की गुंजाइश नहीं रहती. ज्यादा रचनात्मक बनाने से इतिहास के खो जाने का डर रहता है. विशुद्धानंद ने इन बातों का ख्याल रखते हुए इतिहास की सच्चाई को भरसक बचाने का प्रयास किया है. उन्होंने लोकार्पित पुस्तक में इमरजेंसी से लेकर बिहार म्यूजियम के बनने तक के पटना के सफर का लगभग सच्चा वर्णन किया है. 

डॉ. शिवनारायण ने कहा कि पटना के जितने भी नाम हुए- पाटलिपुत्र, कुसुमपुर, पुष्पपुर, पटना आदि का सुंदर वर्णन है इस पुस्तक में. पटना नाम इसलिए पड़ा क्योंकि प्राचीनकाल में यह एक प्रसिद्ध पट्टन (जलयान पत्तन) था. साहित्य यद्यपि आनंद की वस्तु है लेकिन सिर्फ शांतिकाल में. जब संकट की घड़ी हो अथवा जब संक्रांति काल हो तो साहित्य एक तरह से इतिहास का काम करने लगता है. साहित्य और इतिहास परस्पर एक दूसरे के जैसे ही हैं सिर्फ उनमें स्थान और तिथि का फर्क है. कभी-कभी इतिहास में तिथि और स्थान नहीं लिखे होते किंतु युग का सम्पूर्ण यथार्थ लिखा होता है जबकि कभी-कभी इतिहास में सिर्फ तिथि और स्थान होते हैं युगीन यथार्थ नहीं.  विशुद्धानन्द शिल्प के ख्याल से मध्यमार्थी थे- छंद और छंदमुक्त दोनो में लिखते थे. वे मार्कण्डेय प्रवासी, काशीनाथ पाण्डेय, विंध्वासनी दत्त त्रिपाठी की श्रेणी के उच्च श्रेणी के छन्द विधा के कवि तो थे ही. भोला प्रसाद तोमर जैसे उत्कृष्ट छंद कवि को परिवार वालों ने भुला दिया लेकिन समाज के लोगों ने अब तक जीवित रखा है  जबकि ललित कुमुद, गोपीबल्लभ सहाय जैसे महान छन्द कवि आज लगभग भुला दिये गए हैं क्योंकि समालोचकों ने छंद को महत्व नहीं दिया. लेकिन विशुद्धानन्द आसानी से भुलाये जाने वाले कवि नहीं होंगे क्योंकि इन्हें परिवार और समाज दोनों याद रखेंगे.

फिर विशुद्धानंद के पुत्र प्रणव ने अपने पिता की एक कविता 'पर्वत को हिल जाना होगा शर्तिया' का सस्वर पाठ किया जिसका उपस्थित दर्शकसमूह ने करतल ध्वनि से स्वागत किया. 

फिर विजय शंकर दूबे ने बर्बरीक जैसे मामूली समझे जानेवाले पात्र पर खण्ड काव्य की रचना कर डालने हेतु विशुद्धानन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा की. उन्होंने कहा कि सच्चा इतिहास तो विशुद्ध गणित होता है क्योंकि वह साक्ष्यों पर आधारित होता है. उसमें कुछ भी अपनी ओर से जोड़ा नहीं जा सकता. जब विशुद्धानन्द ने पुस्तक को पढ़्ने हेतु इन्हें दिया तो इन्होंने छ:-सात सुझाव दिये ऐतिहासिक रूप से और सुदृढ़ करने वास्ते जिन्हें विशुद्धानंद जी ने लगभग पूरी तरह से अपनाया है. बिम्बिसार पितृहंता था या नहीं यह विवादास्पद है. बौद्ध ग्रंथ उन्हें पितृहन्ता कहते हैं जबकि जैन ग्रंथ नहीं. विशुद्धानंद ने ऐसे मुद्दों पर सुझाव को अपना कर पूरा परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया है.

अंत में डॉ. शिववंश पाण्डेय ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि साहित्य और इतिहास एक-दूसरे के पूरक हैं और साहित्य को भी साक्ष्य मान कर इतिहास लिखा जाता है. यह पुस्तक न तो इतिहास है न भूगोल है बल्कि सब का एक सम्मिश्रित घोल है. 

कार्यक्रम के अंत में हृषीकेश पाठक ने आये हुए सम्मानित अतिथियों का और उपस्थित सुधी श्रोताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया और अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की. इस अवसर पर योगेंद्र प्रसाद मिश्र, बिश्वनाथ वर्मा, हेमन्त दास 'हिम', आनंद किशोर शास्त्री, डॉ. रमेश पाठक, राजकुमार प्रेमी समेत नगर के अनेक गणमान्य कवि उपस्थित थे.
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इस रिपोर्ट के लेखक- हेमन्त दास 'हिम'
फोटोग़्राफर- हेमन्त 'हिम'
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