|
नाटक 'पप्पू पास हो गया' के कलाकार |
जइसहीं ‘भोजपुरी साहित्य में सामाजिक चेतना’ मसेला पर बतकही के खबर मिलल हम बगलगीर भिलोटन
भाई से ई बात बतवलीं. ऊ छूटते जवाब दिहलन, “दुर मरदे! ई कवनो नया बात बा! भोजपुरिया मनई के त शुरुए से
ई सुभाव रहल बा कि ऊ सभसे पहिले समाज आ देस का बिसे में ना खाली सोचेला, बलुक अगुवाई करत बढ़ि-चढ़ि के कुरबानियो देला,
बाकिर अपना बारे में एकदम आखिर में अखियान
करेला. लोग कहेला, भोजपुरियन के
लाठी आ लठई मशहूर ह, मगर ई दूनों
सामाजिक चेतना जगावेके औजार हौअन स. लाठी तकतवर आ आँतर से मजबूत होके रचनात्मक काम
करावे के परतीक ह, त लठई कवनो अनेति-अतियाचार
बरदास ना करेके बल-बेंवत के. जीवटता अइसन कि चाहे मॉरिशस होखे भा अउर कवनो जगह,
जहवाँ-जहवाँ गइअलन, उहाँ के धरती के सरग बना दिहलन.
The moment I
came to know about discussions on brainstorming session over 'Social
consciousness in Bhojpuri literature, I shared this to my neighbour Bhilotan
Bhai. He promptly replied,"It's nothing, man! Is this something new? This
has been the nature of Bhojpuri people since the very beginning that they not
only think about the society and nation but also give big sacrifices while
taking initiatives and then pay attention towards themselves at the end. People
say that the stick and cudgel are famous about Bhojpuri people. Though these
two are actually the instruments of social awakening. Where stick is the symbol
of implementation of constructive works with inner strength and power, cudgel
is of force of intolerance to injustice and oppression. If you talk about their
gumption, whether they went to Moritius or any other place, wherever they went,
they turned that place to heaven.
"बाकिर भिलोटन
भाई!" हम टोकत कहलीं, "बतकही के बिसे
भोजपुरी साहित्य बा आ तूँ भोजपुरी मनई के गाथा गावे लगलS."
"But Bhilotan
Bro!" I interrupted him, The topic of our discussion is Bhojpuri
literature and you drifted to the people of Bhojpuri."
‘अरे बुरबकदास!’ भिलोटन भाई फरिया के कहलन, ‘जइसन मनई के मिजाज सुभाव रही, ओइसने न साहित्य रचाईं. इहवाँ के अदब के मूल सुर शुरुए से
समाज के चेतावल-जगावल रहल बा. हमनी के आदि कवि हौअन कबीर, जे बेगर लाग-लपट के दू टूक बात कहे खातिर जानन जालन. मार
किसिम के रूढ़ि, कुरीत, आडंबर, अंधविसवास, धरम-मजहबके नाँव
पर कठमुल्लापन, पोंगापंथी –
सभकर खुल्लमखुल्ला विरोध कबीरे नू अपना
साखी-उलटबाँसी के मारफत कइअले रहलन. ऊ कागज के लिखी के ना, आँखिन देखी के हिमायती रहलन. अब देखS, दलित, नारी के अँखिगर बनावे खातिर एने जाके विमर्श शुरू भइल हा. बाकिर हीरा डोम
भोजपुरी कविता ‘एगो अछूत के
सिकाइत’ ओह घरी लिखलन जब दलित
विमर्श के कवनो अवधारना ना रहे आ 1914 में ऊ मरमवेधी कविता ‘सरस्वती’ में छपल रहे. ओकरा पहिने 1911 में अंगरेजी के प्रकांड विद्वान रघुवीर नारायण
राष्ट्रीय चेतना जगावे का गरज से ‘बटोहिया गीत’
के सिरिजना अपना महतारी भासा में कइले रहलन –
‘सुंदर सुभूमि भइया भारत के देसवा से, मोर प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया’ जवन आजादी के लड़ाई में जन-जन के कंठहार बनल
रहे. तहार का ख्याल बा?”
"O dear
fool man!" Bhilotan brother told categorically,"As the mind and
nature of people are, so is the literature. The basic theme of of the
literature here had been awakening and keeping alert the society since the very
outset. The first poet of ours is Kabir who is well known for speaking blunt
and nonchalantly. Many types of customs, ill practices, hypocrisy,
superstitions, religious fundamentalism in the name of religion, vanity- the
overt opposition was dared through his Saakhi-ulatbansi only by Kabir. He was
supporter not of what is written rather of what he did see from his eyes. Look,
it's only recently when the discussions have started for making downtrodden
class and women aware. But Hira Dom wrote his poem in Bhojpuri 'Grivance of un
untouchable' at a time when there was no concept of discussion for oppressed
class. Long back in 1914, that poignant poem had been published in 'Saraswati'
magazine. Before that in 1911, Raghuvir Narayan, the profound scholar of
English composed 'Baatohiya song' in his mother tounge- "This beautiful golden
land of the nation India, So my soul and mind reside in the caves of snow, O
traveler"This song had become a rage in the freedom movement by making it
garland of throat of each and every man of the country., What is your
view?"
‘भिलोटन भाई!’ हम बात के आगा बढ़वलीं, भिखारी ठाकुर के
नाटक ‘बिदेसिया’ आ ‘गबरघिचोर’ स्त्री-विमर्श के
नायाब नमूना बाड़न स. ‘बिदेसिया’
में दूगो गाँव आ शहर के अबला एगो मरद के जाल
में अझुराके रहि जात बाड़ी स. ‘गबरघिचोर’
के नायिका के बहरबाँसू मरद जब शहर में कमाए चलि
जात बा, त गाँवे के एगो नवही ओकरा
के हवस के शिकार बनाके जनमल बेटो पर दावा करे लागत बा, बाकिर नायिका पंचाइत में कहत बिया ‘घर में रहे दूध पाँच सेर, केहू जोरन दिहल एक धार, का पंचाइत होखत बा, घीव त साफे भइल हमार!’ कहे के माने ई कि
जेकर दूध, ओकर घीव! ऐसहीं महापंडित
राहुल बाबा ‘मेहरारुन के
दुरदसा’ नाटक में लैंगिक भेद के
चित्र उकेरत कहले रहलन – ‘एके भाई बपवा से,
एकहि उदरवा से दोनों के जनमवा भइल रे पुरुखवा
/ बेटा के जनमवा प नाच आ सोहर
होला / बेटी के जनम परे सोग रे पुरुखवा / चनवा धरतिया प बेटवे के हक होला /
बेटिया के किछउ न हक रे पुरुखवा / मरदा के खइला-कमइला के रहला बा, तिरिया के लागेला केवाड़ रे पुरुखवा!” महेन्दर मिसिर
बाजारवाद पर कहि गइलन – “माया के नगरिया
में लागल बा नजरिया ए सोहागिन सुनS चीझुआ निकाला
अनमोल...”
Bhilotan Bhai!
I took the discussions ahead. 'Bidesia' and 'Gabarghichor' by Bhikari Thakur are the
unique examples of concern about women. In 'Bedesia' two women are tangled in
the net of a man. When the female character in 'Gabarghichor' is left by his
husband for earning money at farther city, then a young man of the village not
only rapes her but also claims her son already born. And the heroin states in
the village assembly, "There was five kilo of milk in the house, Someone
added a little curd into it / What would do the assembly, all the ghee of mine
has been removed." The meaning of this is as "One who owns milk also
owns the butter".Like this the great pundit Rahul Baba said in 'The
adversity of the women' while depicting the gender bias."From the same
parents, from the same stomach, both took birth, O man ? There happens to be
merriment and music on the birth of the son / But on the birth of the daughter,
gloom pervades / On the moon and on earth, it's only son who has claim / There
is no right of the daughter, O man / She survives on the earnings of the man /
For woman the door is shut, O man!"
Mahender Mishra had told about the market-mindedness - " The market is set
in the city of glamour, O married woman! Listen, give your priceless
materials."
‘खूँटा में मोर दाल बा, का खाँईं, का पिहीं,
का ले परदेस जाईं! खूँटा में अँटकल दाल के
निकाले खातिर चिरई समाज के सभे समरथी लोग से निहोरा कइले रहे आ आखिर में ओकर हक
हासिलो भइल रहे. द्विवेदी भाई! भोजपुरी के मान्यता के दिसाईं आठवीं अनुसूची के दाल
संसद के खूँटा में अँटकल बा. का ई दाल खूँटे में अँटकल रही.
My pulse has stuck in the peg. How I eat
and how I drink, and what I take abroad?" For taking out the grain of
pulse stuck in the peg, the bird had urged to all the able persons and
ultimately it won in her attempt of getting what belonged to her. Brother
Dwivedi! For recognition of Bhojpuri the pulse of entry into Eight schedule is
stuck in the peg. Whether this will remain stuck as it is?
.........
(भोजपुरी भाषा को आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने के विषय पर मनोरंजक लेख)
जैसे ही ‘भोजपुरी साहित्य में सामाजिक चेतना के मसले पर वार्तालाप की खबर मिली, मैंने पड़ोसी भिलोटन भाई से यह बात कही. उन्होंने तुरंत जवाब दिया, “अरे यार, ये भी कोई नई बात है क्या? भोजपुरी समाज का तो शुरू से ही यह स्वभाव रहा है कि वह सबसे पहले न सिर्फ समाज और देश के बारे में सोचता है बल्कि अगुआई करते हुए बढ़-चढ़ के कुर्बानी भी देता है. हाँ. अपने विषय में बिलकुल अंत में सोचता है. लोग कहते हैं कि भोजपुरी लोगों के लाठी और लठई मशहूर हैं. किन्तु ये दोनो वस्तुत: सामाजिक चेतना जगाने के औजार हैं. लाठी अंदर से मजबूतहोकर रचनात्मक कार्य कराने का प्रतीक है तो लठई कोई अनिति-अत्याचार को बर्दाश्त नहीं करने की शक्ति और ताकत का. जीवटता ऐसी कि चाहे मॉरीशस हो या और कोई जगह, जहाँ-जहाँ वे गये, वहाँ की चरती को स्वर्ग बना दिया.
“लेकिन भिलोटन भाई!” मैंने उनको टोका,” आज के वार्तालाप का विषय है भोजपुरी साहित्य और आप तो वहाँ के लोगों के बारे में बताने लगे.”
“अरे बुरबक” भिलोटन भाई ने स्पष्ट करते हुए कहा, जैसा लोगों का मिजाज-स्वभाव रहेगा वैसा ही न साहित्य भी लिखाएगा. यहाँ के साहित्य का मूल स्वर हमेशा से लोगों को जगाने और चेतना लाने के का रहा है. हम लोगों के आदि-कवि हैं कबीर जो बिना लाग-लपट के दू टूक बात कहने के लिए जाने जाते हैं. नाना प्रकार की रूढ़ि, कुरीति, आडम्बर,अंधविश्वा, धर्म-मजहब के नाम पर कठमुल्लापन, पोंगापन्थी – सबका खुल्लम-खुल्ला विरोध कबीर ने ही अपनी साखी-उलटबाँसियों की मार्फत किया. वो कागज पर लिखा हुआ पर नहीं बल्कि आँख का देखा हुआ के हिमायती थे. अब देखो, दलित और नारी को दृष्टि प्रदान करने हेतु अब जाकर विमर्श शुरू हुआ है. परन्तु हीरा डोम ने भोजपुरी कविता‘एक अछूत की शिकायत’ उस वक्त लिखी थी जब दलित विमर्श की कोई अवधारणा नहीं थी और 1914 में वह मर्मभेदी कविता ‘सरस्वती’ में छपी थी. उसके पहले अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान रघुपति नारायण ने राष्ट्रीय चेतना जगाने के वास्ते‘बटोहिया गीत’ का सृजन अपनी मातृभाषा भोजपुरी में किया था – ‘सुंदर सुभूमि भइया भारत के देसवा से, मोर प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया’ जो कि आजादी की लड़ाई में जन-जन का कंठहार बना था. तुम्हारा क्या ख्याल है?
‘भिलोटन भाई, मैंने बात आगे बढ़ाई. भिखारी ठाकुर के नाटक ‘बिदेसिया’ आ ‘गबरघिचोर’ स्त्री-विमर्श के नायाब नमूना रहे हैं. ‘बिदेसिया’ में दो गाँव और शहर की अबला एक ही मर्दके जाल में उलझ के रह जाती है. ‘गबरघिचोर’ की नायिका का निर्वासित पति जब शहर में कमाने चला जाता है तो गाँव का ही एक नवयुवक उसको हवस का शिकार बना कर जनमी बेटो पर दावा करने लगता है तब नायिका पंचायत में कहती है ‘घर में रहे दूध पाँच सेर, केहू जोरन दिहल एक धार, का पंचाइत होखत बा, घीव त साफे भइल हमार!’ कहने का अर्थ यह कि जिसका दूध, उसीका घी! ऐसे ही महापंडित राहुल बाबा ‘मेहरारुन के दुरदसा’ नाटक में लैंगिक भेद के चित्र उकेरते हुए कहते हैं – ‘एके भाई बपवा से,एकहि उदरवा से दोनों के जनमवा भइल रे पुरुखवा / बेटा के जनमवा प नाच आ सोहर होला / बेटी के जनम परे सोग रे पुरुखवा / चनवा धरतिया प बेटवे के हक होला / बेटिया के किछउ न हक रे पुरुखवा / मरदा के खइला-कमइला के रहला बा, तिरिया के लागेला केवाड़ रे पुरुखवा!” महेन्दर मिसिर बाजारवाद पर कह गए– “माया के नगरिया में लागल बा नजरिया ए सोहागिन सुनS चीझुआ निकाला अनमोल...”
‘खूँटा में मोर दाल बा, का खाँईं, का पिहीं, का ले परदेस जाईं! खूँटा में अँटके दाल (एक दंतकथा) को निकालने हेतु पक्षी समाज के सभी समर्थ लोगों से अनुनय किया था और आखिर में उसकी एक उपल्ब्धि भी हुई थी. द्विवेदी भाई! भोजपुरी के मान्यता के दिशा में आठवीं अनुसूची का दाल संसद के खूँटा में अँटका पड़ा है. क्या यह दाल खूँटा में ही अँटका रहेगा.
............
............
No comments:
Post a Comment
अपने कमेंट को यहाँ नहीं देकर इस पेज के ऊपर में दिये गए Comment Box के लिंक को खोलकर दीजिए. उसे यहाँ जोड़ दिया जाएगा. ब्लॉग के वेब/ डेस्कटॉप वर्शन में सबसे नीचे दिये गए Contact Form के द्वारा भी दे सकते हैं.
Note: only a member of this blog may post a comment.