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"हाशिया ही देता है परिणाम"
दूसरा शनिवार नामक साहित्यिक संस्था द्वारा पटना के गाँधी मैदान में 8 जुलाई, 2017 को वरिष्ठ कवि मुकेश प्रत्यूष का एकल काव्य पाठ का आयोजन हुआ जिसमें बिहार के अनेेेक गणमान्य साहित्यकार, कलाकार और कलाप्रेमी उपस्थित हुए. मुकेश प्रत्यूष ने अनेेेक कविताएँ सुनाईं जिनमें से कई
रचनाएँ काव्य-श्रेणी का अंश थीं. ‘राजा’ उनकी एक ऐसी ही एक श्रेणी है जिसमें उन्होंने राजनीतिक
परिदृष्यों को गढ़ते हुए क्रूर यथार्थ से परिचय करवाया.
मुकेश, राजनीति के जंगल में आदमी की आत्मा को तो तलाशते ही हैं, वो आसमान के तारे में
अपनी दिवंगत माँ के दर्शन भी करते हैं और तमाम वैज्ञानिक सत्यों की अवहेलना करते हुए
कहते हैं कि सवाल ज्ञान का नहीं आस्था का है.
‘राजा’ सीरीज की कविता में ‘शुक्र मनाता हूँ’ के बहाने उन्होंने राजनीतिक दुर्व्यवस्था के ताने-बाने
को तार-तार कर रख दिया. ‘चूहे’ शीर्षक कविता में पहले तो चूहों से हुई तबाही का जिक्र है और
फिर चूहों को पकड़ने के उपाय के बाद चूहों को कैद कर लेने के बावजूद कवि उसे पीट-पीट
कर मारने को तैयार नहीं होता बल्कि उसे घर से कहीं दूर छोड़ आता है इस संशय के बावजूद
कि कहीं वे प्रताड़क जीव वापस न लौट आएँ. एक
प्रताड़क के प्रति कवि का प्रेम स्तब्ध कर देने वाला है. उनकी कविताएँ ‘पहाड़’ भी चर्चित रही जिसमें मुकेश
कह उठते हैं कि वो लकड़ियाँ तो नीचे भी चुन लेंगे लेकिन उन्हें जलाएंगे कैसे क्योंकि
सारी आग तो पहाड़ के पास है, किस तरह से पत्थर और पहाड़ ने उनके सामान्य जीवन को व्यापक रूप
से प्रभावित किया है, इसका खाका खींचा गया है. 'हवा' कविता में उनके प्रतिरोध का स्वर पूर्ण आवेग के साथ मुखरित हुआ है.
उनकी एक नई काव्य-श्रेणी ‘अपनी शवयात्रा में’ चल रही है जिसकी एक रचना सुनाते हुए उन्होंने कहा कि ‘उनके शव को जलाने हेतु कोई निर्धारित स्थल नहीं है और हो भी नहीं सकता क्योंकि
वे एक सामान्य जन हैं. उनके शव को दूसरे अधजले शव वाले स्थान पर ही जलाये जाने की संभावना
है और लोगों को उनके अंश के अन्य शव के अंश से मिल जाने की कोई चिन्ता न रहेगी बल्कि हड़बड़ी इस बात की रहेगी कि जल्दी से काम खत्म हो ठीक उसी तरह जिस तरह कवि स्वयं अपने जीवन
में हमेशा हड़बड़ी में रहता है. अपनी शवदाह की बात करते समय भी कवि अपनी शिकायत खुद से
करना नहीं नहीं भूलता जो कि उसके स्वयं के प्रति निरपेक्ष भाव का जीता-जागता प्रमाण
है.
कवि द्वारा सुनाई गई कुछ कविताएँ नीचे प्रस्तुत हैं-
जिजिविशा
हालांकि
खत्म कर दी थी मैंने
सारी की सारी संभावनाएं विकास की
मिटा दी थी जिन्दगी की हर पहचान
बंद करके
दरवाजे, खिड़कियां, रोशनदान
किन्तु दो दिन में ही अंकुर गए
भींगे बिखरे बूंट
छोड़ गया था मैं जिन्हें
सड़ने और बर्बाद होने के लिए.
हाशिया
जैसे उठाने से पहले कौर
निकालता है कोई अग्रासन
उतारने से पहले बिछावन से पैर
करता है कोई धरती को प्रणाम
तोड़ने से पहले तुलसी का पत्ता या लेने से पहले गुरु का नाम
पकड़ता है कोई कान
वैसे ही लिखने के पहले शब्द
तय करता है कोई हाशिये के लिये जगह
जैसे ताखे पर रखी होती है लाल कपड़े में बंधी कोई किताब
गांव की सीवान पर बसा होता है कोई टोला
वैसे ही पृष्ठ पर रहकर भी पृष्ठ पर नहीं होता है हाशिया
मोड़कर या बिना मोड़े
दृश्य या अदृयस तय की गई सीमा
अलंध्य होती है हाशिये के लिये
रह कर भी प्रवाह के साथ
हाशिय बना रहता है हाशिया ही
तट की तरह
लेकिन होता नहीं है तटस्थ
हाशिया है तो निश्चिंत रहता है कोई
बदल जाये यदि किसी शब्द या विचार का चलन
छोड़ प्रगति की राह यदि पड़ जाये करनी प्रयोगधर्मिता की वकालत
हाशिये पर बदले जा सकते हैं रोशनाई के रंग
हाशिये पर बदले जा सकते हैं विचार
हाशिये पर किये जा सकते हैं सुधार
इस्तेमाल के लिये ही तो होता है हाशिया
बिना बदले पन्ना
बदल जाता है सबकुछ
बस होती है जरुरत एक संकेत चिह्न की
जैसे बाढ़ में
पानी के साथ आ जाता है बालू
जद्दोजहद में बचाने को प्राण आ जाते है साँप
मारते सड़ांध पशुओं के शव
कभी-कभी तो आदमियों के भी
और चले जाते हैं लोग छोड़कर घर-बार
किसी टीले या निर्वासित सड़क पर
वैसे ही
झलक जाती है जब रक्ताभ आसमान के बदले गोधूली की धुंध
हाशिया आ जाता है काम
पर भूल जाते हैं कभी कभी छोड़ने वाले हाशिया
हाशिये पर ही दिये जाते हैं अंक
निर्धारित करता है परिणाम हाशिया ही
हाशिया है तो हुआ जा सकता है सुरक्षित।
.........
काव्य-पाठ के बाद उपस्थित साहित्यकारों ने पढ़ी गई कविताओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की. अरुण शाद्वल ने 'पहाड़ और पत्थर' कविता के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि कविता काफी प्रभावकारी है. यद्यपि अनेकानेक कवियों ने 'पहाड़' शीर्षक पर काव्य-श्रेणी का निर्माण किया है लेकिन मुकेश प्रत्यूष का नजरिया इस लिहाज से बिल्कुल अलग है कि उन्होंने न सिर्फ इसे वर्तमान परिदृष्य से जोड़ दिया है बल्कि अपने जीवनानुभवों को भी खुलकर डाला है. मुकेश प्रत्यूष की कविताओं में राजनीतिक स्वर प्रमुख है.
वरिष्ठ शायर संजय कुमार कुंदन ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि मुकेश की कविताएं यूँ ही नहीं बल्कि प्रसंगवश लिखी गई हैं. इनकी कविताएँ किसी कारखाने में तैयार कविता सी नहीं है बल्कि स्वमेव प्रस्फुटित हुई हैं जो कि अत्यंत सहज और स्वाभाविक हैं. 'अपनी शवयात्रा में' मणिकर्णिका संदर्भ की कविता उनकी प्रौढ़ता का परिचायक है और उनकी कविताओं से उनका विकास-क्रम भी परिलक्षित होता है.
अस्स्मुरारी नंदन मिश्र ने कहा कि मुकेश की कविता स्वत:स्फूर्त कविताएँ हैं. उनको मुकेश की कविताओं का तोड़ अच्छा लगा यानी कि कविता के शिल्प ने उन्हें प्रभावित किया. युवा शायर समीर परिमल ने कहा कि मुकेश प्रत्यूष की कविताएँ श्रोता के साथ एकाकार हो रहीं थीं. उनकी कविता सुननेवाले को लगता है कि कवि उन्हीं के अनुभव को सुना रहा है. राकेश प्रियदर्शी ने कहा कि सुनाई गई सारी कविताएँ जीवन के अनुभव पर आधारित थीं. कवि ने जो अनुभव किया वही लिखा है और वह श्रोता तक उसी रूप में पहुँच भी रहीं हैं.
वरिष्ठ कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि मुकेश प्रत्यूष की रचनाएँ विभिन्न मन:स्थितियों की कविताएँ हैं और करुणा जगाने वाली हैं जो निश्चित रूप से स्वत:स्फूर्त हैं. 'पहाड़' शीर्षक कविता में प्रतिरोध का स्वर दिखता है. 'हाशिया' में आम आदमी की दशा को दिखाते हुए कहते हैं कि हाशिया इस्तेमाल किया जाता है लेकिन वहाँ लिखा गया अंक ही परिणाम देता है. कविताएँ राजनीतिक विकृतियों को प्रतिध्वनित करती हैं. एक बेचैनी और छटपटाहट देर तक बजती रहती है मस्तिष्क में इन कविताओं को सुनने के बाद. हमजा भाई ने कहा कि 'कोशिश' कविता में जो कवि ने भट्ठी में काम करनेवाली लड़की की तुलना जलती रोटी से की है वह अनूठी है.
वरिष्ठ कवि शिवदयाल ने विस्तार से अपनी बातों को रखा और कहा कि मुकेश प्रत्यूष काफी गम्भीर रचनाकार हैं. साथ ही उनका व्यक्तित्व सहज है. ठीक इसी तरह इनकी कविताएँ भी बुनावट की दृष्टि से सहज परंतु कठिन जीवनानुभवों को दिखाने वाली कविताएँ हैं. इनकी कविताओं में एक शिल्प है. इन्होंने अपने एकाकी अनुभवों को सफलतापूर्वक सामूहिक अनुभव में बदल दिया है.उनकी 'हाशिया' कविता मुख्य धारा की गहरी समझ को रेखांकित करता है. इन्होंने श्रेणी (सीरीज) वाली कविताएँ लिखीं हैं जो उनकी दृष्टि के विभिन्न फलको को दिखाता है. राजकिशोर राजन ने कहा कि मुकेश की भाषा और शैली औरों से पृथक है. इनकी सहज सी दिखनेवाली कविताएँ दर-असल सहज बिल्कुल नहीं हैं और एक गहरी समझ वाली कविता है.
अंत में अवधेश प्रीत ने अपने शब्दों को रखा. उन्होंने कहा कि मुकेश की कोई भी रचना अराजनीतिक नहीं है. यहाँ तक कि 'माँ' कविता भी नहीं. वहाँ भी कवि आस्था और ज्ञान के बीच चल रहे प्रतिरोध को दिखा रहा है.. कवि की कविता 'हाशिया' इनकी सिग्नेचर पोएम मानी जा सकती है. मुकेश प्रत्यूष निरपेक्ष नहीं है लेकिन उनकी पक्षधारिता मनुष्य की पक्षधारिता है. हर रचना बहुस्तरीय है. मुकेश की कविता धीमे स्वर में संवेदना जागाने वाली कविता है वह कभी भी 'लाउड' नहीं होती.
कार्यक्रम में नरेन्द्र कुमार, प्रत्यूष चन्द्र मिश्र, अनीश अंकुर, कुमार पंकजेश, हेमन्त 'हिम', डॉ. रामनाथ शोधार्थी, कुंदन आनंद और अनेक युवा साहित्यप्रेमी भी मौजूद थे.
आलेख: हेमन्त दास 'हिम'
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Photo courtesy- Sanjay Kumar Kundan |
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