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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Monday 5 June 2017

हृषीकेश पाठक के कहानी-संग्रह 'प्लेटफॉर्म की एक रात' की समीक्षा

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आज के आम जीवन के अनुभव की कहानियाँ

    हृषीकेश पाठक एक अत्यंत सम्वेदनशील और ईमानदार लेखक हैं. सम्वेदना का स्तर बहुत ही उच्च है और उनके वर्तमान कथा-संग्रह प्लेटफॉर्म की एक रात की कहानियाँ किसी भी प्रकार के 'वाद' से मुक्त बिल्कुल मानवतावादी कहानियाँ हैं. पूरे संग्रह में लेखक की भाषा अत्यंत सहज है और लेखक ने एक भी मिनट के लिए कहीं बोझिल नहीं होने दिया है. लगता है लेखक ने कुछ रचा नहीं है बस आपबीती को उढ़ेल कर रख दिया है बिल्कुल उसी गहनता के साथ जिस गहनता में उन्होंने अनुभव किया होगा. अपने या अपने समाज के अनुभवों को पाठकों तक पूरा-का-पूरा यथावत सम्प्रेषित कर पाना लेखक की सबसे बड़ी विशेषता है.

       कहानियाँ न तो बौद्धिकता के जंजाल में उलझी हैं न ही निरुद्देश्य प्रलाप तक सिमट कर रह गई हैं. लेखक का एक स्पष्ट उद्देश्य है और वह है सामाजिक और व्यवस्थागत अंतर्विरोधों को उजागर करना और वह उसने सफलतापूर्वक किया है. एक गरीब से गरीब खोमचावाला भी यात्रियोंसे कुछ लूट लेने की फिराक में ही है न कि अपने ही जैसे गरीब यात्रियों के प्रति कोई सम्वेदनशीलता दिखाए.

        एक कहानी में कई कहानियाँ हैं और अतीतावलोकन (फ्लैश बैक) का सहारा अधिकांश कहानियों में लिया गया है. जहाँ कहानी 'चंद्रकालो' कई परतें ली हुई है वहीं सलोनी, विजयिनी, रेखा और सरला डोम सीधे-सीधे एक मुद्दे का निर्वाह करती दिखती है. प्लेटफॉर्म की एक रात, जीजिविषा और ट्रेन के सात घंटे में लेखक घटना के बाइट्स (छोटे अंश) को रखता चला जा रहा है जो यूँ तो आपस में जुड़ी नहीं हैं लेकिन स्थितियों को स्पष्ट करने हेतु आवश्यक है. 'मंच' और 'हैप्पी न्यु ईयर' सामान्य रूप से समाज में सम्वेदनशीलता के विलोपन को बहुत ही तीखेपन के साथ प्रदर्शित करने में सफल रही कहानियाँ हैं.

        हृषीकेश पाठक छोटी-छोटी घटनाओं को इतनी स्वाभाविकता से बयान करते हैं मानो वह आपको आपकी ही आपबीती सुना रहे हों. इनकी कहानी वस्तुत: कहानी लगती ही नहीं है - या तो आँखों देखा हाल लगती है या संस्मरण. कभी-कभी रिपोर्टाज की भी गंध आती है, अगर ऐसा कह दें तो इसे अवमानना नहीं मानी जानी चाहिए. 'गोधरा से आगे' का विन्यास कहानी की स्थापित मान्यताओं के अनुरूप लगता है जिसमें घटनाओं का एक प्रारूप है, एक उत्स है और एक अन्त. साथ ही, उत्स और अंत  के बीच भी घटनाओं की तारतम्यता का निर्वाह हुआ है और लड़ियाँ पूरी तरह से जुड़ी हुई हैं. बाकी दसो कहानियाँ समाज और व्यवस्था की कटु सच्चाइयों का चिट्ठा मात्र है पर लेखक की महानता यह है कि ये सच्चाइयाँ वो इतनी साफगोई, ईमानदारी और स्वाभाविकता के साथ रखते हैं कि लगता ही नहीं कि कोई कुछ सुना रहा है.  पढ़नेवाले को लगता है  इस लेखक को मेरी आपबीती कैसे मालूम हो गई जिसको वह बयाँ कर रहा है! हाँ, रेलगाड़ियों की यात्रा लेखक ने खूब की है इस कहानी-संग्रह को अगर आधार मान कर कहा जाय तो और टीटीई, सिपाही, खोमचेवाले द्वारा खूब प्रताड़ित भी हुए हैं.

          कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अगर पाठक पढ़ कर 'प्लेटफॉर्म की एक रात' को गुजार लें तो उनकी अंतर्दृष्टि का तो विस्तार होगा ही, उन्हें यह भी लगेगा कि इस बड़ी दुनिया में कोई और भी है उनके अनुभवों, उनकी कठिनाइयों और उनकी संघर्षपूर्ण जीजिविषा को बिल्कुल वैसा ही समझता है जैसा कि वे स्वयं और ऐसा लगना ही आज के युग में सबसे बड़ी राहत की बात है. आनन्दाश्रम प्रकाशन, गाज़ियाबाद से प्रकाशित पटना के हृषीकेश पाठक की ग्यारह कहानियों वाली 128 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य रु.200/= मात्र है और किसी के अनुभवों और चिन्ताओं को साझा करते हुए एक रास्ता दिखाने का यह मूल्य कुछ भी नहीं है. यह पुस्तक निश्चित रूप से खरीदकर पढ़ने और पढ़ाने के लायक है.

         आइये, अब .सभी कहानियों को क्रमगत रूप से देखते हैं-

मंच

      कहानी के चरम-बिंदु को ही कहानी का लक्ष्य कहना गलत होगा. हर एक अनुच्छेद अपने आप में एक लघुकथा है. मूल कथ्य है राजनीति के घिनौने चेहरे को दिखाना जो भोली-भाली जनता  को अपने शातिर दिमाग से आपस में भिड़वाना खूब जानती हैं. इसमें सिर्फ मंच बनानेवाला जोरन और उसी के द्वारा बनाये गए मंच में दफन उसका बच्चा ही नहीं मरता और बहुत से गरीब और बेसहाआ अन्य लोगों की जानें भी जातीं हैं.

हैप्पी न्यू ईयर

"जिस समय शहरी दरिंदे कमली के जिस्म के साथ जश्न मना रहे थे, ठीक उसी समय पूर्व से ही घात लगाये स्यार अकेला पाकर बच्चे को उठा ले गये और जश्न मनाने लगे. ऐसा संयोग ही था कि दोनों ही माँ और बेटे एक ही समय जश्न के शिकार हो गए."

    सहज स्वाभाविक ग्रामीण संस्कृति से कटे शहारियों में मूल्यों के अध:पतन को दर्शानेवाली यह कहानी प्रारम्भिक भाग में लम्बी भूमिका तैयार करती है फिर उकेरकर परोस देती है शहरी जीवन की घिनौनी सोच को जहाँ दीदी और वासना की वस्तु में भी कोई अंतर नहीं दिख पाता है शहरी बिग़ड़ैल नवयुवकों को. पूरी कहानी एक वृतचित्र की तरह है जिसमें उन तथ्यों को चिन्हित किया गया है जो प्रमाणित करते हैं कि किस तरह से संवेदनशीलता का ह्रास ही पर्याय बन बैठा है नगरीकरण का. क्या मानवता को भूल बैठना ही अनिवार्य अर्हता है विकास करने की?

प्लेटफोर्म की एक रात

       "भगवान न करे किसी को प्लेटफोर्म पर रुकने की नौबत आये" प्लेटफोर्म पर दी गई सुविधाओं के विरोधाभासों का अच्छा वर्णन से प्रारम्भ होती है. किस तरह कदम-कदम पर यात्री को खतरों का सामना करना पड़ता है और उसका वहाँ ठहरने का मतलब उसका सबकुछ लुट जाना तय है ठीक उसी तरह जैसे भ्रष्ट तंत्र में जीते हुए आपको अपना सबकुछ यहाँ तक कि अपनी सोच, अपने विचारधारा, अपने संस्कार और अपने मूल्यों को पूरी तरह से खो देना पड़ता है.

      रिक्शे पर बैठने पर उचक्के चाकू दिखाकर सामान लूटते हैं, बूट पोलिश करनेवाला बिना अनुमति की अठारह कीलें ठोककर दो की बजाय अडतीस रूपये झपट लेता है. टी.सी. लेडिस टिकट की झूठी बात कह कर भयादोहन करता है, पुलिसवाला सत्तू को आरडी एक्स विस्पोटक कह कर दो सौ रुपये तान लेता है. रिक्शेवाला गलत स्थान पर उतार कर अँधेरे में रौब से सौ रूपये भाड़े के नाम पर छिनकर चलता बनता है. जिस्मफरोशी का धंधा करनेवाली औरतों की शर्मनाक हरकतें भी परेशानी पैदा करती हैं.

         यात्रियों को भी बख्शा नहीं गया है-
" अब तो गाडी में टिकट लेकर यात्रा करना या प्लेटफोर्म टिकट लेकर प्लेटफोर्म पर जाना अप-टू-डेट की निशानी नहीं रह गई है."

गोधरा से आगे

"..पेट में हाथ डाल कर निकालता है एक जिन्दा भ्रूण .... बाएं हाथ से भ्रूण को पैर से टांगकर .... दाएं हाथ से चाकू से खच् , ... वह भ्रूण चीख भी तो नहीं पाया था ...... राम नाम सत्य ..... अल्लाह हो अकबर ..... सब कुछ देखते देखते हो गया था."

"वह टोली उसे नाथू राम गोडसे की टोली लगने लगी थी. आज न जाने कितने गाँधी की हत्या होगी?"

"बात नई नहीं है, परन्तु पुरानी भी नहीं है, क्योंकि उस घटना के बाद ऐसी कोई घटना नहीं घटी, जिससे उसे भुलाया जा सके."  लेखक की प्रभावकारी कथा शैली को उपर्युक्त तीनो कथन पाठकों से परिचय कराते हैं जिसे पढ़ते ही उसका रोम-रोम खड़ा हो जाता है.

       यह कहानी घटनाक्रम को सिलसिलेवार और प्रभावकारी ढंग से बयान करनेवाली एक बहुत ही मजबूत कहानी है. कथ्य और कहने की शैली दोनों जानदार हैं. पात्र पूरी तरह से जीवंत हैं. समीर की सौ मुसलमानों को मारकर एमएलए बनने की ख्वाइश  और यह जानकार कि निन्नानवे मुसलमानों को मारकर अब सौवें शिकार के रूप में वह अपनी प्रेमिका रुखसाना को मारने पर ही आमादा है, समीर कि माँ स्तब्ध है. इस चरम तक पहुँचने के पहले सम्प्रदायवादी बेटा और उसकी निष्पक्ष माँ के बीच तर्कों का आदान-प्रदान किसी भी देशवासी की आँखे खोलने के लिए पर्याप्त है. जब समीर बिना किसी परवाह के रुखसाना पर गोली दाग ही देता है तो उसकी माँ उसकी गोली को अपने सीने पर लेकर रुखसाना को बचा लेती है. कहानी दिल दहला देने वाली और मार्मिक बन पड़ी है.

जीजिविषा

       यह कहानी अपने शीर्षक से ही स्पष्ट है और सभी प्रकार की कटुताओं और चरम दु:ख के बाद भी नायक किस तरह से सकारात्मक निर्णय लेता है उसका सटीक वर्णन है.. कहानी में एक और कहानी है और वही प्रमुख है. आरम्भ से अंत तक एक बेरोजगार किस तरह से सामाजिक अपमान के दंश को सहता फिरता है. एक नौकरी मिलती-मिलती रह जाती है इसलिए कि कोई प्रभावशाली आदमी अपने पसंद के उम्मीदवार की सिफारिश कर देता है बिल्कुल उसी समय. और यहाँ तक कि बच्चे की जान भी सेठ और डॉक्टर की असम्वेदनशीलता के कारण चली जाती है. एक-एक पल को जैसे जी रहे हों कथाकार स्वय. इतनी बारीकी से उन्होंने बयान किया है. जब विशाल अपने ही सहपाठी डॉक्टर से अपने बच्चे का इलाज करने हेतु झोपड़पट्टी में चलने का निवेदन करता है तो वह दोस्त उसे नाक-भौं सिकोड़ कर ठुकरा देता है. उस समय निर्जीव पेड़-पौधे भी उसे उस पर व्यंग्य करते लगते हैं.  

      विशालअपने बच्चे की मौत के जिम्मेवार सेठ और डॉक्टर की हत्या करने के इरादे से रवाना होता है तो पत्नी विनीता उसे रोक लेती है यह कहते हुए कि तुम ने भी तो अहं का लबादा ओढ़ रखा है. ग्रेजुएट के लायक काम नहीं मिलता तो मजदूरी तो कर सकते हो. दोनो मजदूरी करने लगते हैं. फिर आगे चल कर दोनो की अच्छी नौकरी लग जाती है और पूरा परिवार सुखी जीवन व्यतीत करने लगता है.

ट्रेन के सात घंटे 

        ट्रेन पर यात्रा करते हुए कुछ घंटों के अनुभव में  ही लेखक ने व्यवस्था और समाज की पोल खोल कर रख दी है वह भी अत्यंत सरल तरीके से. रिजर्वेशन के बावजूद भी किसी धनी ओफिसर को नाजायज रूप से उस सीट पर बैठाने के लिए एक गरीब आदमी टीटीई द्वारा ट्रेन से धकेल दिया जाता है. किताब वाला काम-वासना वाले चित्रों को चारो तरफ से बंद करके लड़कों को लुभाता है फिर मात्र उसे छूने का पाँच रुपये एँठ लेता है. टीटीई गरीबों को तो टिकट रहने पर भी चाँटा जड़ देता है लेकिन सुटेड-बुटेड सम्भ्रांत दिखने वाले आदमी को टिकट नहीं देने पर भी कुछ नहीं करता. वक्यूम काटने की रिवाज कुछ इस तरह है कि -"कभी उनके दादा रोका करते थे, फिर उनके पिता और अब वे रोक रहे हैं.."  चाहे इस से किसी गम्भीर रूप से बीमार नवयुवक के इलाज में देरी से उसकी मौत ही क्यों न हो जाये.

      लस्सी के लिए दो के बदले बीस रुपये ले लिए जाते हैं और वो भी पूरे रौब के साथ पुलिस की उपस्थिति में जिसे इन उच्चक्कों को नियंत्रित करने की बजाय बीस में से पाँच रुपये कमीशन पाने में ज्यादा रूचि है. मात्र एक-एक घंटे के पाँच-पाँच सौ पाने के लोभ में वो खूबसूरत  बंजारन  नवयूवतियाँ टी.टी.ई. और सिपाही के साथ चलने को तैयार हो जाती हैं. लेखक कटाक्ष करते हुए कहता है;".. खानाबदोश यानी जिसका अपना घर नहीं हो. लगभग पचास वर्षों के प्रौढ़ लोकतंत्र में भी उसे मत देने का अधिकार नहीं हो." 

चंन्द्रकालो

       कई परतों को लिये हुए यह एक बहुत मार्मिक कहानी है. किसी बाल-विधवा की अपने मायके में जीवन-संघर्ष और उसके अपने ही भाइयों के उसके प्रति कपट को खोल कर रख देनेवाली इस कहानी में कहा गया है कि एक कमजोर को दूसरा कमजोर कैसे जबर्दस्ती शहीद साबित करके अपने अपराधों की ढाल बना रहा है.  उस बाल-विधवा को अपने विधवा होने पर उतना दुख नहीं हुआ जितना किशन के अंग्रेजों से लड़ते हुए मारे जाने पर उसकी पत्नी के विधवा बन जाने पर. चंद्रकालो ने तो अपने विवाह का मतलब समझा ही नहीं था तो पति की बीमारी में मृत्यु पर कोई खास असर नहीं पड़ा. लेकिन किशन को वह अपने गाँव में बहुत स्नेह करती थी जिससे उसकी पत्नी कि हालत पर उसे तरस आ रहा था. 

        मायके में लगभग पचास सालों से रह रही चंद्राकालो ने उपले बेच-बेच कर कुछ रुपये जमा किये थे अपने बोमा में जिसमें लगभग 200 चाँदी के सिक्के थे. उन में से 100 सिक्के निकाल कर वह किशन की पत्नी को देना चाहती थी ताकि उसका भविष्य सुरक्षित रह सके. परंन्तु उसके भाइयों ने वह बोमा ही गायब कर दिया था. अपनी जीवन भर की मेहनत की कमाई को लुट गया देख कर चंद्रकालो को विलाप करता देख कर उन्होंने वह इल्जाम फिरंगियों पर लगा दिया. उन्होंने कहा कि अंग्रेंजों को यह पता चल गया था कि वह अंग्रेजों के विद्रोही शहीद किशन के घर आती-जाती है इसलिए वे उसे ढूढने आये थे वही बोमा और उसमें रखे रुपय भी ले गये होंगे. यह सुनते ही चंद्रकालो की आँखों में अंग्रेजों के विरुद्ध वितृष्णा की ऐसी लहर उठी कि वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठी और पागलपन में अंग्रेजो को पत्थर मारने लगी. जवाब में उनकी गोलियाँ खाकर वह मर गई. दर-असल वह अंगेजों की गोलियाँ का नहीं बल्कि पारिवारिक षड्यंत्र का शिकार बनी थी.चंद्रकालो को शहीद का दर्जा देना कुछ मक्कार भारतवासियों को अपना अपराध छुपाने का एक उपक्रम मात्र है. 


सरला डोम

      सारे दावों के  बावजूद  आज  भी दलित के आत्मविश्वास  की  क्या  स्थिति है, उसका अभिलेख  है यह कहानी. आज भी डोम अपने पुश्तैनी काम यानी लाश को आग देना आदि कामों में लगा हुआ है और नेतागण दलितों को हरिजन कहने को अपराध घोषित करने में लगे हैं. एक सेठ की माता का देहावसान हो जाने पर आग देने के लिए रुपयों के मुद्दे पर कहासुनी हो गई सेठ के परिवारवालों से और उन्होंने लाठी पीट-पीटकर सरला के बच्चों को गम्भीर रूप से घायल कर दिया या यूँ कहें कि मरनासन्न कर दिया.. अब सरला सोच नहीं पा रहा था कि क्या करे? रपट लिखाये पुलिस में या रहने दे. अंतत: तमाम आशंकाओं को नकारते हुए सरला डोम पुलिस के पास रपट लिखवाने में जाता है, यहीं कहानी का अंत होता है. आप समझ सकते हैं जहाँ पुलिस को रिपोर्ट लिखवाना इतना बड़ा कदम हो कि कहानी का चरम-बिंदु बन जाए उस समाज में विषमता की क्या स्थिति है?'

विजयनी

      विजयनी शीर्षक कहानी में इस स्थापित मिथक को तोड़ा गया है कि लड़की के लिए विवाह करना अनिवार्य है.अर्थात पुरुष का पल्ला थामे बिना नारी जी ही नहीं सकती चाहे पुरुष उस पर अत्याचार ही क्यों न करता फिरे. नायिका को अपने विवाह हेतु रिश्ता खोजते समय पिता की दुर्गति देख कर लड़कों से ऐसी वितृष्णा हो जाती है कि वह पहले तो खुद पढ़-लिख कर बी.डी.यो बन जाती है फिर किसी लड़के से शादी करने से ही इनकार कर देती है. परन्तु अपने काम को इतने मनोयोग से करती है कि उसे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है.


सलोनी

     आठ माह की नतनी सलोनी को अपने पिता के घर जाने पर उसकी अनुपस्थिति में नाना-नानी और ननिहाल के बच्चे-बूढ़े और जवान की क्या हालत हो जाती है, इसका बड़ा ही स्वाभाविक वर्णन है. उसकी परनानी तो उसे देखते ही गम्भीर बीमारी से मानो स्वस्थ हो जाती है. लेखक ने ठीक कहा है-
"इस छोटी सी जान में कितनी जान है कि अनजान भी पहचान वाला हो जाता है और बेजान में जान डाल देती है"

रेखा

       रेखा एक पालतु कुतिया का नाम है जो जन्म से ही लेखक के घर पर रह रही थी. एक बार उसने साँप से लेखक को बचाया. रोज लेखक के लौटने का इंतजार कॉलोनी के गेट पर किया करती थी. लेखक के पास टॉर्च नहीं होने पर उसे आगे-आगे रास्ता दिखाते हुए घर तक लाती थी.एक बार वह कैंसर से ग्रस्त हो गई. वह लेखक के पास आने से कतराने लगी.लेखक का भी स्थानांतरण हो गया था. एक बार लेखक ने काफी मान-मनौवल  से बुलाया तो रेखा लेखक के पास आ गई. लेखक ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया फिर उससे हाथ जोड़ के विनती की कि अब उसका स्थानांतरण हो गया है और वह बीमार रहती है सो उसका साथ छोड़ दे ताकि लेखक को दूसरे शहर में उसकी चिन्ता न रहे. उसके एक घंटा बाद से रेखा जो गायब हुई, वह कहीं नहीं मिली.... दूर दूर तक ढूँढने पर भी न रेखा मिली न  रेखा की लाश"
       एक जानवर के अंदर मौजूद सम्वेदनशीलता का चरम उदाहरण है यह कहानी और लेखक का अपराधबोध बिल्कुल सहज है. यद्यपि उसने कोई अपराध नहीं किया है परन्तु एक अन्य जंन्तु-योनि में जनमी रेखा का प्रेम और उसके प्रति इतना अधिक था कि लेखक अपने-आप को सिर्फ इस लिए नहीं माफ कर पा रहा है कि उसने क्यों रेखा को प्यार से उसका साथ छोड़ देने का निवेदन किया और रेखा ने क्यों उसके इस निवेदन को स्वीकार करके उसे जीवन-भर के लिए एक अक्षम्य अपराध-बोध से जकड़ कर रख दिया. पढ़ कर लगता है कि काश, ऐसी समझ इनसानों में भी होती जो रेखा नामक कुतिया में थी!

समीक्षक: हेमन्त दास 'हिम'
समीक्षक का इ-मेल: hemantdas_2001@yahoo.com







Hrishikesh Pathak





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