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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Thursday 22 August 2019

निर्माण कला मंच द्वारा नाटक 'बिदेसिया' 20.8.2019 को पटना में मंचित

 औरत की दुश्मन औरत ही क्यों ?

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संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित और भिखारी ठाकुर द्वारा लिखित बहुचर्चित नाटक 'बिदेशिया' का मंचन पटना के प्रेमचंद रंगशाला में देखने और देश के यशस्वी रंगकर्मी संजय उपाध्याय से मिलने का आज 20.8.20119 को अवसर मिला। कलाकारों का जीवंत अभिनय, जानदार संगीत तथा प्रकाश व्यवस्था ने हृदय को छू लिया। कथानक का ऐसा आकर्षण कि पूरा हाल खचाखच भरा हुआ था यहां तक कि सैंकड़ों दर्शक खड़े थे और सीढियों पर बैठ गए थे। 


'बिदेसिया' एक संगीतमय नाटक है भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर का। इसमें दो मत नहीं है कि रोजी और रोजगार के लिए पलायन हमारे राज्य बिहार में सदियों से होता आ रहा है। देश और दुनिया के कई हिस्सों में जाकर अपनी मेहनत से  पहचान भी बनाते रहे हैं। लेकिन सच यह भी है कि यह पलायन हमेशा सुख-शांति नहीं लाता है।, बल्कि जीवन को दो राहों पर ला  कर खड़ा कर देता है। और फिर शुरू हो जाती है दुःख और दर्द की अंतहीन कहानी। अपनी माटी से दूर होने से लेकर जीवन साथी से विलग होने की त्रासदी पुरुष से अधिक नारी को झेलनी पड़ती है। टीस, विरह और प्रेम वियोग के विहंगम दृश्य को बहुत ही कारुणिक संवाद  गीत. और संगीत के माध्यम से रंगमंच पर साकार रूप दिया गया है, जो नाटक से जुड़े सभी पात्रों के लिए एक कठिन उपलब्धि है,। यह प्रस्तुति "निर्माण कला मंच" के द्वारा और संजय उपाध्याय के निर्देशन में पूरी तरह सफल रही है।

इस भोजपुरी नाटक में एक ऐसे युवक पर कहानी केंद्रित की गई है जो शादी के कुछ दिनों के बाद ही कोलकाता शहर घूमने और रोजगार की खातिर पलायन कर जाता है। वह शहर खूब भाता है उसे।। रोजगार पाने के क्रम में, वह भी बाजार का एक हिस्सा बन जाता है। कोई विदेशिया कब तक शहर की रंगीनियों से खुद को दूर रख सकता है भला? वह  विवाहित युवक भी इन विसंगतियों से खुद को बचा नहीं पाता है और वह वहां एक दूसरी महिला के साथ, अपना एक और घर बसा लेता है।

कुछ सालों के बाद वह युवक जब अपने गाँव वापस आता है तो घर में पहली पत्नी कोहराम मचाने लगती है। इस बीच कोलकाता वाली पत्नी भी वापस घर में पहुंच जाती है। कुछ नाराजगी और ना-नुकुर के बाद दोनों पत्नी. साथ साथ रहने को तैयार हो जाती हैं। यह रोचक अंत लेखक के सकारात्मक नजरिए को रेखांकित करती है।

लेकिन, हम इक्कीसवीं सदी में पहुंचने के बाद भी सौतन रखने के लिए तैयार हैं क्या? दूसरी शादी करने में पुरुष या नारी  जिसकी भी अहम भूमिका रही हो, बात अंततः घर की नारी के फैसले पर ही टिकी रहती है। और एक औरत की उपेक्षा या तिरस्कार एक औरत ही करती है। आखिर वह औरत यह क्यों नहीं समझती कि यदि उसके साथ भी  उपेक्षा की जाए तो कैसा लगेगा? आखिर और अंततः बात प्रेम की हो, दहेज उत्पीड़न की हो, बाल विवाह की हो, या फिर "विदेशिया" कहानी की सौतन की बात हो, हमारे सभ्य समाज में भी औरत की दुश्मन औरत ही क्यों होती है?

मुझे भिखारी ठाकुर की कालजयी कृति "विदेशिया" इसलिए भी बहुत पसंद आई कि मेरे विचारों के अनुरूप था इसका कथानक। वर्षों पहले लिखा गया यह नाटक तमाम संकीर्णताओं और ढकोसलापन से दूर है। और सबसे बड़ी बात कि यह आज भी उतना ही प्रासंगिक।है।
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आलेख - सिद्धेश्वर
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्यूरो
लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com)
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल -editorbejodindia@yahoo.com





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