महिला सशक्तीकरण की ओर एक सार्थक प्रयास
महिलाएँ रचनात्मकता की उद्गम स्रोत होतीं हैं. किन्तु बिहार जैसे एक पारम्परिक परिवेश में उनमें औद्योगिक गुणों का विकास नहीं हो पाता. कई बार चुल्हा-चौका और बच्चों की परवरिश के चक्कर में उनमें मौजूद शिल्पकला और चित्रकला आदि वहीं दब कर रह जाती हैं और बाहर निकल ही नहीं पातीं इस दिशा में 26 से 30 सितम्बर तक ज्ञान भवन, गांधी मैदान के बिहार महिला उद्योग संघ द्वारा आयोजित महिला उद्योग मेला ने पहल लेकर बहुत अच्छा किया.
उन्होंने मेले के माध्यम से महिलाओं के घर से बाहर आकर अपने उत्पादों के ग्राहकों तक सीधा पहुँचाने का प्रयत्न किया.हालाँकि बिक्री बहुत ज्यादा नहीं हुई सभवत: दावों के अनुसार इतने बड़े मेले जिसमें 150 के आसपास स्टॉल थे पचास लाख रुपयों की बिक्री हुई. परंतु महिलाओं ने उत्पादों की सामूहिक खरीदारी करनेवालों से सीधा सम्पर्क कायम किया. इसके अतिरिक्त उनमें बाजार प्रबंधन, विक्रयकला, मूल्य निर्धारण आदि के सम्बंध में भी बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला.
मधुबनी जिले से आई एक महिला शिल्पकार ने बताया कि उन्हें आश्वासन मिला था कि आने-जाने के रुपये 1500/= प्रति उद्यमी, और रुपये 500/= खाने पीने हेतु राशि के अलावे ठरने की व्यवस्था भी दी जाएगी. किंतु यहाँ आकर सिर्फ रुपये 500/= और आने-जाने का वास्तविक बिल प्रस्तुत करने तक सीमित भुगतान प्राप्त हो रहा है. साथ ही रात में ठहरने का कोई इंतजाम नहीं दिख रहा है.
बिहार राज्य सरकार एवं कपड़ा मंत्रालाय, केंद्रीय सरकार से सम्मानित धीरेंद्र कुमार ने बताया कि उनकी शिल्पकलाएँ लोगों द्वारा काफी पसंद की जा रहीं हैं. उन्होंने यह भी बताया कि उनके प्रयासों से बिहार के कुछ विश्वविद्यालयों में शिल्पकला का सर्टिफिकेट कोर्स चलाया जा रहा है जो स्वागत योग्य कदम है. यह बिहार से शिल्पकला को मरने नहीं देगा.
मेले में मधुबनी चित्रकला की धूम मची रही. मेले का गौर से निरीक्षण करने के बाद मिथिला कला, संस्कृति और कैथी लिपि के विशेषज्ञ भैरब लाल दास ने बताया कि मिथिला की चित्रकला विश्वप्रसिद्ध है और जापान के एक शहर में अवस्थित संग्रहालय में तो मिथिला पेंटिंग की एक पूरी गैलरी ही है. लेकिन गाँव घर में रहनेवाली नई पीढ़ी की महिलाएँ अब इससे विमुख होतीं जा रहीं हैं. इसलिए उनका विचार है कि मिथिला चित्रकला की एक स्थाई गैलरी बिहार में बननी चाहिए जिसमें एक प्रशिक्षण केंद्र भी हो. उन्होंने बताया कि उनके प्रयास से बिहार के कुछ विश्वविद्यालयों में कैथी और तिरहुत्ता लिपि का सर्टिफिकेट कोर्स चलाया जा रहा है.
नूतन बाला ( मोबाइल- 9430037544) मधुबनी से अपनी मिथिला चित्रकला के कलात्मक पोस्टर और अनेक शिल्पकलाएँ मेले में लाईं थीं जिनमें से अनेक बिकीं भी. कुछ को उन्होंने अपर्याप्त मूल्य का प्रस्ताव आने के कारण बेचने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि लोग मिथिला पेंटिंग की इतनी कलात्मक मौलिक प्रतियों को मात्र 700-800 रुपये में खरीदना चाहते हैं जबकि इनका मूल्य रुपये 5000/= प्रति के आसपास होना चाहिए.
ग्राम नवानी (मधुबनी ) की मनोरमा देवी ने बताया कि महिलाओं को अब आगे आकर उद्यमशीलता में अपनी रूचि दिखानी ही होगी ताकि उन्हें उनकी मेहनत का सही मूल्य मिल पाए.
मेले का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने के पश्चात एक सामाजिक चिंतक डॉ. शम्भू कुमार सिंह ने बताया कि मेला में उन्होंने अपने उत्पादों को विक्रय करने के बारे में स्वयं जाना जिससे बिचौलिये की बिना मदद लिए भी वस्तुएँ बेची जा सकतीं हैं.
वीणा दत्त भी आईं थीं गाँव से बनाई अपनी कलात्मक सामग्रियों को बेचने और उनका अनुभव भी ठीक-ठाक रहा. उन्होंने कहा कि वो अपने परिवार के लोगों के साथ यहाँ आ पाईं लेकिन यहाँ आकर उन्हें खुद अपने स्टॉल संंभालने का मौका मिला जो घर के कामों से बिलकुल अलग तरह का काम था.
कुल मिलाकर महिला उद्योग मेला आज के समय की जरूरत कहा जा सकता है और इसके आयोजक ने महिला सशक्तीकरण की ओर एक अच्छा कदम बढ़ाया है.
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आलेख- डॉ. शम्भू कुमार सिंह
छायाचित्र- बिहारी धमाका ब्यूरो
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