यह कतई जरूरी नहीं कि शेरो-शायरी और काव्य-पाठ की महफ़िल औपचारिक माहौल में ही हो। साहित्य का प्रवेश जब तक हमारे रोजमर्रा की ज़िंदगी में नहीं होगा तब तक यह लोकप्रिय नहीं हो पाएगा। साहित्यिक संस्था "लेख्य मंजूषा" इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानती है कि पाठकीयता की समस्या को भयंकर रूप से झेल रही कविता को अनगिन लोगों तक प्रसार के लिए पहले तो इसे मात्र स्थापित मठाधीश साहित्यकारों की धरोहर होने से बचाना होगा और दूसरा इसे गोष्ठियों के औपचारिक प्रारूप के लौह आवरण से भी बाहर निकलना होगा। कवि-गोष्ठियों में गृहिणियों को समुचित संख्या में शामिल करना और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में कवि-गोष्ठियों का आयोजन करवाना इस दिशा में बहुत सोची समझी रणनीति है।
शरद पुर्णिमा के अवसर पर कौमुदी काव्य संध्या का आयोजन लेख्य-मंजूषा द्वारा पटना के फुड मेनिया रेस्तरां में किया गया। संस्था के अभिभावक सतीश राज पुष्करणा जी की अध्यक्षता में एवं मशहूर शायर संजय कुमार कुंदन, समीर परिमल , संस्था की अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव एवं संस्था के सदस्यों की उपस्थिति में किया गया जिसमें ग़ज़ल, कविता और नज़्में पढ़ी गईं.
गोष्ठी की शुरुआत शायर समीर परिमल इस शेर से की -
क़ब्र पर इंसानियत के आशियाने हो गए
लोग छोटे हो गए, ऊँचे घराने हो गए
मर चुके थे यूँ तो हम इक बेरुख़ी से आपकी
ज़लज़ले, सैलाब और तूफ़ां बहाने हो गए
उसके बाद शायर श्री संजय कुमार कुंदन ने कुछ इस तरह महफिल को आगे बढ़ाया -
छोड़िए कुछ भी हो ये आप नहीं समझेंगे
हमको लिखना है बह्र हाल हम तो लिखेंगे
आप तो देखते रहते हैं बदन लफ्जों का
हम इसकी रुह की गहराईयों में उतरेंगे
उसके बाद लेख्य-मंजूषा की अध्यक्ष श्रीमती विभा रानी श्रीवास्तव ने कविता प्रस्तुत की जिसकी पंक्तियां ये थीं -
हद की सीमांत ना करो सवाल उठ जाएगा
गिले शिकवे लाँछनों का अट्टाल उठ जाएगा
लहरों से औकात तौलती स्त्री सम्भाल पर को
मौकापरस्त शिकारियों में बवाल उठ जाएगा
उसके बाद बारी थी शायर मो. नसीम अख्तर की जिन्होंने खुबसूरत नज़्म पेश किया -
ऐ चाँद की किरणों जाओ न
तुम उसको छूकर आओ न
वो कब कब क्या क्या करती है
वो जागती है या सोती है
वो किससे बातें करती है
वो शाम को कैसी लगती है
वो रात को कैसी दिखती है
जब सोए कैसी लगती है
जब जागे कैसी दिखती है
तुम चुपके चुपके जाओ न
तुम उसको छूकर आओ न
हम उसके बिना अधूरे हैं
और जीना मुश्किल लगता है
तुम कान में उसके कह देना
कोई याद बहुत उसे करता है
ऐ चाँद की किरणों जाओ न. .
तुम उसका हाल बताओ न . .
उसके बाद लेख्य-मंजूषा के सदस्यों ने अपनी अपनी रचनाओं को सुनाया जिनमें मुख्य रूप से प्रेमलता सिंह की कविता लोगों को पसंद आई-
नहीं होते अब देश के गद्दार के चर्चे
अब होते हैं बेमतलब और बेकार के चर्चे
मिडिया भी अब बिक चुकी हैं शायद
करती हैं सिर्फ मंदिर, मस्जिद के चर्चे
और अंत में गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे डॉ. सतीश राज पुष्करणा ने चाइनीज कविता 'ताका' सुनाया. उन्हीं की कविता की पंक्तियाँ थीं-
पुरानी चिट्ठी
हाथ में जो आ गई !
पुरानी बातें
जो कहीं खो गई थीं
फिर पास आ गईं
बता के जाता
सच कहो यशोधरा
क्या जाने देती ?
मुझे रात का सूर्य
क्या बन जाने देती ?
कविता पाठ के साथ-साथ स्वादिष्ट चाइनीज़ व्यंजन का भी लुत्फ संस्था के सदस्यों ने उठाया।
.........
नोट- रपट के प्रारम्भ में दिया गया प्रारम्भिक वक्तव्य हेमन्त दास 'हिम' का है.
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