सामाजिक विडम्बनाओं से फूटा मेरा भोजपुरी साहित्य
जब एक बिहारी गुस्से में या रोब से बात करता है तो अंग्रेजी में करता है लेकिन जब वह रोता है तो बिल्कुल उस भाषा का प्रयोग करता है जिसमें उसकी माँ उससे बातें करती है चाहे वह भोजपुरी हो, मैथिली, मगही, अंगिका या बज्जिका हो. कहने का अर्थ है कि अपनी लोकभाषा का सम्बंध आदमी के दिल से होता है जबकि अन्य भाषाओं का दिमाग से. और, कोई भी जीवन व्यवहार भले ही दिमाग से कर ले वह महसूसता तो दिल से ही है. इस संदर्भ में 20.10.2018 को बी.आइ.ए. सभागार, पटना में 'आखर' द्वारा भोजपुरी साहित्यकार पर केंद्रित काय्रक्रम निश्चित रूप से प्रशंसनीय है..
भोजपुरी-हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका सरोज सिंह ने प्रभा खेतान फाउंडेशन, मसि इंक द्वारा आयोजित एंव श्री सीमेंट द्वारा प्रायोजित आखर नामक कार्यक्रम में बातचीत कर रही थीं. वैसे भाव जो गहरे उतरे होते हैं मन में उनकी अभिव्यक्ति के लिए मातृभाषा ही सबसे सहज होती है. मैंने अपने घर और परिवेश से भोजपुरी सीखी है, इसीलिए रचना के लिए आने वाले गहन भाव स्वाभाविक रूप से भोजपुरी में आते हैं. इसी लिए मैंने भोजपुरी को लेखन भाषा के रूप में चुना. उक्त बातें भोजपुरी की साहित्यकार सरोज सिंह ने कहीं.
हिंदी के प्रसिद्ध पत्रकार निराला बिदेसिया उनसे बातचीत कर रहे थे. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हिंदी में भी मैं लिखती हूँ, और भोजपुरी में भी, पर भोजपुरी में लेखक-पाठक अंतःसंबंध बहुत घनिष्ट है.
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि मैंने पहली रचना कक्षा चार में बांग्ला में लिखी. अपने समाज और परिवेश से जुड़ाव मुझे भोजपुरी की ओर खींच लाया. घर और समाज से ही मुझे साहित्य के विषय और किरदार दोनों मिले. खास तौर पर विडंबना वाली चीजें मन में गहरी उतर गयीं. इसी लिए रचना भाषा के रूप में भोजपुरी सहज लगती गयी. हालांकि शहरी परिवेश की कहानियों को भोजपुरी में लिखना चुनौतीपूर्ण लगता है.
भोजपुरी साहित्य में महिलाओं की उपस्थिति के सवाल पर उन्होंने कहा शिक्षा-सत्ता-सम्पत्ति से महिलाओं को दूर रखा गया. भोजपुरी समाज में यह समस्या ज्यादा रही. जबतक भोजपुरी साहित्य मौखिक परंपरा में था, तबतक महिलाओं का साहित्य में दखल था, लेकिन लिखित साहित्य के आगमन के बाद, व्यवस्थित शिक्षा से बाहर होने कारण महिलाएं साहित्य में पीछे छूट गयीं. स्त्री-विषयों पर स्त्रियां ज्यादा जीवंत साहित्य की रचना कर सकती हैं, क्योंकि उन्होंने इन विषयों को जिया होता है. उन्होंने हिंदी में 'द्रौपदी' और भोजपुरी में एक कविता सुनाई.
अपनी आगामी योजनाओं के बारे में उन्होंने बताया कि वे फिलहाल भोजपुर क्षेत्र के व्यंजनों और खान-पान के इतिहास पर शोधपरक रचना कर रही हैं.
प्रसिद्ध कथाकार ऋषिकेश सुलभ ने कहा कि सरोज सिंह के पास कहानियों की नई भाषा और नया मुहावरा है. उनकी लेखनी में अपनी मातृभाषा की महक है.
भोजपुरी और हिंदी के साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी ने भोजपुरी में स्त्री लेखन के बारे में विस्तार से जानकारी दी. वहीं बिहार की संस्कृति के जानकार भैरवलाल दास जी ने भोजपुरी के थरुहट समाज जो मातृसत्तात्मक रही उसके विषय में कहा.
वक्ताओं ने व्यक्ति के जीवन में भाषा की भूमिका और उसके महत्व पर भी चर्चा की.
इस कार्यक्रम में नाटककार-लेखक ऋषिकेश सुलभ और मैथिली लेखिका
पद्मश्री उषा किरण खान जैसी प्रसिद्ध हस्तियाँ भी थीं. कवि अनिल विभाकर, लेखक रत्नेश्वर सिंह,
संजय चौधरी, कवि-पत्रकार हेमन्त दास 'हिम', मैथिली संस्कृतिकर्मी शिव कुमार मिश्र,
रंगकर्मी अरुण कुमार सिन्हा,
आदि लोग मौजूद थे. महिला साहित्यकारों में विभा रानी श्रीवास्तव, अर्चना त्रिपाठी, ज्योति स्पर्श आदि भी उपस्थित थीं.
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आलेख- बिहारी धमाका ब्यूरो
छायाचित्र- बिनय कुमार एवंं आखर
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आइडी- editorbiharidhamaka@yahoo.com
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