जिनकी क़िस्मत में बदनसीबी लिख गया ये वक़्त / उन्हीं के हाथ है इस वक़्त की क़िस्मत लिखना
कोई पहली बार सच कहेगा तो सहजता और संप्रेषणीयता का संकट तो रहेगा ही - ये विचार थे प्रखर युवा साहित्यकार प्रत्यूष चंद्र मिश्र के दूसरा शनिवार’ अपनी हर गोष्ठी से अगली गोष्ठी तक का पाथेय पाता है। हम फिर-फिर मिलते-जुड़ते हैं और आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा अपनेआप बनती जाती है। तो हम फिर मिले... गाँधी मैदान, पटना में गाँधीजी की मूर्ति के पास 6 अक्टूबर, शनिवार शाम 4 बजे पटना के गांची मैदान में गांधी मूर्ति के पास प्रतिरोध के ऊर्जावान कवि एवं शायर आदित्य कमल को सुनने।गोष्ठी में अनिल विभाकर, शहंशाह आलम, राजकिशोर राजन, शशांक मुकुट शेखर, अस्मुरारी नन्दन मिश्र, नवीन कुमार, समीर परिमल, संजय कुमार ‘कुंदन’, श्याम किशोर प्रसाद, प्रत्यूष चन्द्र मिश्र, अविनाश अमन, अनीश अंकुर, सुनील कुमार त्रिपाठी, रंजीत वर्मा, राजेन्द्र प्रसाद, अरविन्द कुमार झा, अमीर हमजा, केशव कौशिक, अक्स समस्तीपुरी एवं नरेन्द्र कुमार उपस्थित हुए।
गोष्ठी की शुरुआत आपसी परिचय से हुई। संचालन करते हुए प्रत्यूष चन्द्र मिश्र ने आदित्य कमल को आमंत्रित किया। रचना के साथ आन्दोलनधर्मिता से जुड़े रचनाकार ने अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए कहा कि वे सांस्कृतिक एवं राजनैतिक संगठनों से जुड़े रहे हैं। वे बैठने की बजाय खड़े होकर पाठ करते रहे। उन्होंने खुद कहा कि इस तरह की गोष्ठी में मैं पहली बार अपनी रचनाएं सुना रहा हूँ। आंदोलनों से जुड़े रहने के कारण बैठना कहाँ हो पाता है। उन्होंने अपने एकलपाठ में गज़लों, कविताओं एवं गीतों का पाठ किया। हम सभी मंत्रमुग्ध हो गज़ल-गीत संग्रह ‘कठिन समय है भाई’ के रचनाकार को सुन रहे थे।
अब रचनाओं पर बात करनी थी। बात करते हुए संजय कुमार कुंदन ने कहा कि मैं गज़लों एवं कविताओं के तकनीकी पक्ष की बजाय उनके असर पर बात करूंगा। अगर कविता मानवता के पक्ष में है, तभी कविता है। कविता प्रतिपक्ष की चीज होती है और आदित्य कमल की कविताओं, गज़लों में यह स्पष्ट है। उनकी रचनाओं में सूक्ष्म अवलोकन है, छोटी-छोटी अनुभूतियां हैं, जो करुणा पैदा करती हैं। प्रतिरोध की गज़लें बहुत हद तक नारेबाजी नहीं है। समय से आगे भी उनकी रचनाएं सार्थक रहेंगी।
बातचीत को आगे बढ़ाते हुए राजकिशोर राजन ने कहा कि आदित्य कमल समकालीन हैं। रचनाएं आन्दोलनकारिता के बैकग्राउंड से प्रभावित है तो नारेबाजी से भी। उन्होंने अरुण कमल को उद्धृत करते है कहा कि “जिसने सच-सच कह दी अपनी कहानी, उसे कैसे कहूँ कि इसे सजाकर लिखो।” कवि को ऐसा ही होना चाहिए। जन से जुड़ाव होना चाहिए। कविताएँ कला का उत्पादन नहीं, उनका सामाजिक सरोकार होना चाहिए। शहंशाह आलम ने अपनी बात जोड़ते हुए कहा कि कवि किसान, मजदूर, कामगार भाइयों के बीच के हैं, यह उनकी रचनाओं से लगता है।
नवीन कुमार ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आदित्य कमल को फेसबुक पर सुनता रहा हूँ। उनका कहना था कि कवियों के अलग-अलग पाठक वर्ग होते हैं। उनकी काव्य-भाषा संवेदना और समाज से प्राप्त विचारों पर निर्भर होती है। समकालीन कविताओं की काव्य-भाषा के आधार पर जो कविताओं को रचते हैं, वे ऐसे ही रह जाते हैं… जुड़ नहीं पाते। जब अपनी भाषा का संस्कार बदलते हैं, तभी जुड़ पाते हैं। आदित्य कमल का पाठकवर्ग तय है। उन्होंने प्रवृतियों पर सोचकर नहीं लिखा। दुनिया की गुलामी, प्रतिरोध, दुखों को जानते हैं… उनसे ही संबोधित हैं।
रंजीत वर्मा ने कहा कि पहली बार ‘दूसरा शनिवार’ की गोष्ठी में आया और बहुत अच्छा लगा। आदित्य कमल को यूट्यूब पर सुना था। आज रूबरू हुआ। वे प्रतिरोध के कवि हैं तथा ‘लेनिन की मूर्ति’ तथा ‘विदूषक’ कविता में वे इसे चिह्नित करते हैं। कवि के आचरण-व्यक्तित्व से भी यह पता चलता है। असमुरारी नंदन मिश्र ने कहा कि आंदोलनधर्मी कविताओं में जनपक्षधरता, प्रतिरोध, कहने का माद्दा और उम्मीद का होना चाहिए। जैसे वे कहते हैं– “धूप के बाग लगाये जाएं।” मतलब उम्मीद आनी चाहिए। उनकी कविताएं सहज संप्रेषणीय हैं। कविता में सहजता-सरलता विशिष्ट गुण है। भोजपुरी गज़लों में सपाटबयानी है।
अरविन्द कुमार झा ने कहा कि आदित्य कमल की रचनाएं स्पष्ट और सही-सही लगीं। फिर आदित्य कमल ने कहा कि जिन लोगों से संसर्ग रहा है, वे चौराहे पर रात के आठ बजे भी आते हैं तो उनके लिए भी मेरे पास गीत होते हैं।
अंत में प्रत्यूष चन्द्र मिश्र ने कहा कि कोई पहली बार सच कहेगा तो सहजता और संप्रेषणीयता का संकट तो रहेगा ही। फिर विष्णु खरे को याद करते हुए दो मिनट का मौन रखा गया। अंत में नरेन्द्र कुमार द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया। गोष्ठी में पढ़ी गयी रचनाओं से कुछ पंक्तियां आपके लिए भी …
1..
अपनी बस्ती की ख़बर , देश की हालत लिखना
अबके लिखना तो ज़रा , घर की मुसीबत लिखना
जिनकी क़िस्मत में बदनसीबी लिख गया ये वक़्त
उन्हीं के हाथ है, इस वक़्त की क़िस्मत लिखना
2.
अपने सीने के, सर्द बुझते अलावों में ज़रा
खोर कर देखिए , कुछ सुलगे शरारे होंगे
वह थकाहारा-सा बैठा हुआ तो होगा मगर
उसके सपने अभी हरगिज़ नहीं हारे होंगे
3.
सदियों से लोगों के सर को छत मयस्सर ना हुई
मंदिरों के वास्ते ईंटें जमा करते रहे
आज के हालात बदतर आ खड़े दहलीज तक
आप हैं कि घर में बैठे मशविरा करते रहे
4
उसकी चुप्पी तो बिना बोले जितना बोल गई
देखना दूर तलक उसका असर जाएगा
उसे पता है बोलने की सजा क्या होगी
मगर वो चुप रहा तो जीते जी मर जाएगा
5
अंधों, पृथ्वी सूरज के चारों तरफ़ घूम रही थी
और तुम ब्रूनो को ज़िंदा जला रहे थे
गैलीलियो को कैद कर रखा था
'पूंजी' को मौन से मारना चाहा था तुम्हारे 'विद्वानों' ने
बेवकूफो , सचमुच हँसी आती है
6
जब हर बात पर हँसी आने लगे
या हँसी उड़ाई जाने लगे हर बात की
गंभीर से गंभीर मसले जब टाल दिए जाएं
हँसी में. ...
या कि शासन में बैठे लोग
हास्यास्पद ढंग से गंभीर हो जाएं
तो समझ लीजिए -
चुटकुले खतरनाक हो चले हैं ....
और हमारी ज़िंदगी के साथ किए जा रहे हैं
अश्लील भद्दे मजाक
7
“धूप के बाग़ लगाए जाएँ
फूल , किरणों के उगाए जाएँ
आपका , मेरा एक-सा दुःख है
क्यों नहीं हाथ मिलाए जाएँ
8
न्याय का अंधेर कि इक फैसले की बाट में
रास्ता तकती रहीं ना जाने कितनी पीढ़ियाँ
आँकड़े ऐसे चढे ऊँचाइयाँ कि क्या कहें
हाँफते बेदम हुए हम फिसले कितनी सीढ़ियाँ
जंग प्रायोजित हुए , स्वार्थों के चौसर बिछ गए
मौत के सौदागरों के दांव बढते ही गए।
.........
आलेख- नरेंद्र कुमार
छायाचित्र - दूसरा शनिवार
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo.com
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