विवाहेतर प्रेम प्रसंग जितना रोमांचक होता है उससे कहीं पेचीदगियाँ भी उसमें सन्निहित होती हैं जो ज़िंदगी को पूरी तरह से अस्त व्यस्त करके रख देती है.. हालाँकि यह विषय पिछले कुछ दशकों में अछूता तो नहीं रह गया है लेकिन आज भी पारम्परिकता और दिखावे के आदर्श में गर्व करनेवाले भारतीय समाज में ऐसे शब्दों को ही हेय समझा जाता है खुल कर बात करने की बात तो दूर की बात है. बिहार के बेगुसराय में जन्मे और टीवी पत्रकारिता में लम्बा अनुभव रखनेवाले नीलांशु रंजन ने इस पर पूरा उपन्यास लिख कर एक बड़े साहस का परिचय दिया है. आज के संंदर्भ में जब पारिवारिक आदर्श की बातें जोर पर हैं, प्रस्तुत विषय को पाठकों की उत्साहजनक स्वीकृति मिलना एक सुखद आश्चर्य है.
बिहारी धमाका ब्लॉग ने नीलांशु रंजन के उपन्यास "खामोश लम्हों का सफर" जिस पर एक फिल्म निर्देशक ने फीचर फिल्म बनाने का ऐलान कर रखा है के रचयिता नीलांशु रंजन का साक्षात्कार लेने हेमन्त दास 'हिम' को उनके पास भेजा और नतीजा है उनके उपन्यास के साथ-साथ हिंदी साहित्य के विभिन्न ज्वलंत सवालों पर उनकी बेबाक राय जो आपके सामने है-
नीलांशु रंजन- यह तो जब आप उपन्यास पढ़ेंगे तभी जान पाएँगे कि उपन्यास का यह शीर्षक मैंने क्यों दिया है? वैसे भी शीर्षक कथानक के मुताबिक़ ही तय होता है। आपके सवाल का जवाब ख़ुद उपन्यास में मौजूद है और इसकी तफ़्सील से की गई है। लम्हे यूं भी ख़ामोश ही होते हैं और बड़ी ख़ामोशी से आपको निहारते हैं।
नीलांशु रंजन- कोई भी चीज़ बेसबब नहीं होती। ज़ाहिर है , कुछ लिखने के लिए, कुछ करने के लिए आपको अपने आसपास अपने परिवेश में ही देखना होता है और वहीं से उपन्यास व कहानियों के कथानक भी बुनने होते हैं।
नीलांशु रंजन-फ़िल्म निर्देशक राहुल रंजन ने मेरे उपन्यास को पढ़ा और उन्हें कहानी इतनी पसंद आई कि उन्होंने तय किया कि उनकी अगली फ़िल्म इसी उपन्यास पर आधारित होगी। मेरा यह उपन्यास विवाहेतर प्रेम पर आधारित है। विवाहेतर प्रेम पर पहले भी लिखा जा चुका है । लेकिन राहुल रंजन का मानना है कि यह एक बेहतरीन प्रेम कथा है लीक से हटकर।
नीलांशु रंजन-- मैंने समाज को कुछ देने के ख़्याल से नहीं लिखा है। जब मैं लिखता हूँ तो समाज को कोई संदेश देना मेरा मक़सद नहीं होता और न ही मैं इसकी कोशिश करता हूँ। जो सोचता हूँ , महसूसता हूँ वही लिखता हूँ।
नीलांशु रंजन-मेरी निजी ज़िन्दगी के प्रभाव का होना , न होना उतना मायने नहीं रखता। प्रभाव कई तरह के होते हैं। हाँ, इतना ज़रूर है कि यह कहानी हमारी- आपकी और समाज के हर आदमी की ज़िन्दगी का आईना है।
सवाल6. अपने रचना-प्रक्रिया के बारे में बताइये.
नीलांशु रंजन-- बचपन से ही कहीं न कहीं कहानियां लिखने की बात ज़हन में घूमती थी। नंदन, पराग जैसी पत्रिकाएं भी पढ़ता था। लेकिन कहानियां लिखने की बात जो दिमाग़ में घूमती थी, उसे दस्तावीज़ी तौर पर शब्दों में ढाल नहीं पा रहा था। फिर बहुत ज़माने बाद 2011-12 में इस पर मैंने गंभीरता से सोचा और इस जानिब काम शुरू किया। कुछ कहानियाँ लिखीं और 2013 के आजकल के अक्तूबर अंक में जो मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई, वह थी "साॅरी ये राॅन्ग नम्बर है" । इस कहानी को लोगों ने बहुत पसंद किया और कई चिट्ठियां आईं। फिर कुछ दिनों बाद ' जनपथ' में मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई " बतहवा" । यह और भी ज़्यादा पसंद की गई। इस पर भी टेली फ़िल्म बनने की बात चल रही है। उसके बाद " आजकल" में फिर एक कहानी आई " बिंदिया"। तो सफ़र इस तरह कहानियों का शुरू हुआ। फिर न जाने कैसे- क्यूँ मैं 2014 के आख़िर में नज़्मो की ओर मुड़ा और 2017 तक तक़रीबन सौ नज़्में मैंने लिखीं। 2017 की फरवरी में मेरी नज़्मो का अलबम " नज़्म-ए-नीलांशु" के नाम से आया जिसे राहत इन्दौरी साहिब ने रिलीज़ किया। अभी जुलाई में फिर मेरा उपन्यास आया। अभी बहुत जल्द मेरी नज़्मो का संग्रह आ रहा है। फ़िलवक़्त एक उपन्यास पर काम चल रहा है।
सवाल7. अपनी साहित्यिक उपलब्चियों के बारे में बताइये.
नीलांशु रंजन-- साहित्यिक उपलब्धियाँ यही हैं। हाँ, ये ज़रूर है कि कम दिनों में मैंने अदबी दुनिया में एक छोटी सी जगह बनाई है। अभी कई जगहों पर लगातार मेरे एज़ाज़ में सम्मान समारोह आयोजित हो रहा है।
सवाल8. क्या आज के माहौल में कोई लेखक निर्भीक होकर कोई लेखक लिख पाता है अथवा उस पर किसी तरह का दवाब रहता है?
नीलांशु रंजन-- यह आपकी फ़ितरत पर निर्भर करता है। आज के माहौल में भी कुछ लोग हैं जो निर्भीक होकर निरंतर लिख रहे हैं। हाँ, दबाव में वे हैं जिन्हें कुछ पाने का लोभ है। सही व मुनासिब लिखने वाले आज भी हैं
सवाल9. वर्तमान साहित्यिक धारा के बारे में बताइये. जहाँ पद्य में भिन्न- भिन्न प्रकार के प्रयोग हो रहे हैं. काव्य सपाट बयानी या गद्य के बहुत करीब पहुँचता दिख रहा है वहाँ कथा-उपन्यास और पूरा गद्य अपने पारम्परिक ढाँचे को कायम रखे नजर आता है. आप क्या पद्य या गद्य साहित्य के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट हैं?
नीलांशु रंजन-- पद्द कि जो स्वरूप है वह निश्चित तौर पर निराशाजनक है। लोग कुछ भी लिख दे रहे हैं और उसे कविता का नाम दे रहे हैं। कहानियां आज भी अच्छी आ रही हैं। उपन्यास आज भी अच्छे आ रहे हैं। कविता पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।
सवाल10. आपकी पहले प्रकाशित पुस्तकें, मिले पुरस्कार और आगे की पुस्तकों के बारे में बताइये.
नीलांशु रंजन-- ग़ैर साहित्यिक पुस्तक में 2013 में नेशनल बुक ट्रस्ट से किसान आंदोलन के प्रणेता स्वामी सहजानंद सरस्वती की जीवनी की किताब आई। फिर इस साल मेरा उपन्यास " ख़ामोश लम्हों का सफ़र" आया। इसके पहले नज़्मो का अलबम आया। अगले महीने मेरी नज़्मो का संग्रह " रात, ख़ामोशी और तुम" के नाम से आ रहा है। फिर जल्द ही इसका उर्दू तर्जुमा आपके सामने होगा। अभी तो लिखना शुरू किया हूँ। पुरस्कार के बावत क्या सोचना।
सवाल11. क्या साहित्य को अर्थतंत्र से जोड़ना उचित है? क्या वाहवाही या लोकप्रियता ही साहित्यिक ऊँचाइ का असली द्योतक है. एक लेखक को किस पर अधिक ध्यान देना चाहिए- पैसा, लोकप्रियता अथवा साहित्यकारों मध्य प्रतिष्ठा?
नीलांशु रंजन-- अर्थ तंत्र से ही फ़क़त जोड़ना ग़लत है। लेकिन पैसे की भी अहमियत है और अब साहित्य को फक्कड़पन से बाहर निकालने की ज़रूरतहै। साहित्यकार पैसों के लिए मुहताज हो, ऐसा नहीं होना चाहिए। क्या अंग्रेजी के साहित्यकारों को ही करोड़ों कमाने का हक़ है? आज बड़े बड़े शायर लाखों रूपये ले रहे हैं कार्यक्रम में आने का। मै समझता हूँ यह ग़लत नहीं है। साहित्यकार फक्कड़ हों, तभी बड़े होंगे, ये ज़रूरी नहीं।
सवाल12. हिंदी साहित्य का भविष्य कैसा दिखता है आपको?
नीलांशु रंजन-- हिन्दी साहित्य का भविष्य अब और बेहतर होने वाला है। समय अब आ रहा है।
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साक्षात्कार देनेवाले - नीलांशु रंजन
साक्षात्कार देनेवाले का ईमेल आइडी- nilanshuranjan@gmail.com
साक्षात्कार लेनेवाले - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आइडी - editorbiharidhamaka@yahoo.com
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