मैं रच ही लेता हूँ खुद को बारंबार
जीवन को एक द्रष्टा के भाव से देखना सब के वश की बात नहीं है. इसके लिए सबसे पहले आवश्यक होता है उस सीमांत पर खड़ा हो जहाँ वह न तो सुविधाभोगी मुख्य धारा का अंग है न ही उस स्तर की वंचना का शिकार कि कुछ सोचने की फुर्सत ही न हो. जीवन से जुड़ी हर चीज में सौंदर्य है, लय है, गीत है, बस वैसी पारखी आँखें चाहिए होती हैं. 'जनशब्द' यूँ तो अपने जुझारूपन के लिए जाना जाता है किंतु ऊर्जा जुटाते हुए जीवन का सौंदर्यपान करने से भी नहीं चूकता.
राजमाणि मिश्र द्वारा रचित और रश्मि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नए ललित निबंधों का संग्रह "चाँदखोल पर थाप" का लोकार्पण गंभीर साहित्य हेतु प्रतिबद्ध संस्था 'जनशब्द' द्वारा पटना जं. के समीप महाराजा कॉम्प्लेक्स के टेक्नो हेराल्ड में 28.10.2018 को किया गया. प्रथम सत्र में पुस्तक का लोकार्पण और उस पर चर्चा हुई जिसका संचालन राजकिशोर राजन ने किया. प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रभात सरसिज ने की जबकि मुख्य अतिथि थे दिलीप कुमार, रेल उप महाप्रबंधक और साहित्यकार. इस अवसर पर उनकी पत्नी और लोकगायिका नीतू कुमारी नवगीत भी उपस्थित थीं. इस पूरे कार्यक्रम के संयोजन में शहंशाह आलम की मुख्य भूमिका रही.
कथाकार शम्भू पी. सिंह ने कहा पूरे निबंध संग्रह को पढ़ने से पता चलता है कि निबंधकार जहाँ है वहीं है. वह बिना किसी 'वाद' या विचारधारा का अनुसरण करते हुए बिल्कुल निरपेक्ष भाव से तटस्थ होकर अपने परिवेश को बयाँ कर रहा है. साहित्य को खेमों में नहीं बाँटना चाहिए. आसपास की नकारात्मकता में सकारात्मकता को तलाशने का प्रयास है. 'संभवामि' इस संग्रह का सर्वोत्तम निबंध कहा जा सकता है जिसमें कृष्ण से जुड़े विभिन्न पक्षों को उजागर करते हुए निबंधकार अपनी दार्शनिक समझ का सुंदर परिचय दे रहा है. "महुआ और माधवी" में ग्रामीण परिवेश का अच्छा चित्रण हुआ है. 'बसंत' का भी उल्लेख किया. निबंधकार ने साहित्य और साहित्यकारों पर भी कटाक्ष करने में कोताही नहीं की है. "अनुभूति की आँखें" नाटक शैली में निबंध का एक अनूठा उदहरण है जो बिरले ही देखने को मिलता है..
लघुकथाकार रामजतन यादव ने निबंधों की रोचकता पर बल देते हुए कहा कि कोई निबंध उठाएंगे तो अंत तक पढेंगे. लोकार्पित पुस्तक के लेखक राजमणि मिश्र ने ललित निबंधों की सुंदर परम्परा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है. निबंधों में लालित्य की धारा को पुनर्जीवित करने के लिए लेखक ने लोकसंस्कृति और परम्परा के तत्वों का खूब प्रयोग किया है.
समारोह के मुख्य अतिथि और रेलवे के उप-महाप्रबंधक दिलीप कुमार ने आज के युग की जटिलता को देखते हुए झारखण्ड के रामदयाल मुंडा की उक्ति कही कि - "जो नाचे सो बाँचे" अर्थात जो नाचेगा-गाएगा और रचनात्मक कार्य करेगा वही बच पाएगा. उन्होंने इस उक्ति को अपने शब्दों में रुपांतरित करते हुए कहा कि "जो रचे सो बचे". राजमणि मिश्र भी रेलवे परिवार के सदस्य हैं और उन्होंने एक कम लोकप्रिय क्षेत्र - ललित निबंध में आजमाइश की है जो काबिले-तारीफ है. उन्होंने अपने चिंतन के दायरे को संश्लिष्ट करते हुए यह निबंध संग्रह रचा है जो अपने आप में एक विशिष्त कृति है.
वरिष्ठ गीतकार मृत्युंजय मिश्र 'करुणेश' ने कहा कि राजमणि मिश्र के निबंधों में विधानिवास मिश्र की छाप दिखती है. निबंधकार ने शीर्षकों को बहुत ही सावधानी से चुना है और एक बार शीर्षक की पहचान कर लेने के बाद निबंध की बुनावट उसी के इर्द-गिर्द की गई है.
डॉ. वीर विक्रम कुमार सिन्हा ने एक पूर्ववक्ता के उस कथन का खंडन किया कि "अनुभूति की आँखें" निबंध न होकर एक नाटक है और उसे पूरी तरह से एक निबंध कहा. उन्होंने "चाँदखोल पर थाप" शीर्षक के महत्व को समझाया और कहा कि हर पाठक को शीर्षक वाली रचना पहले अवश्य पढ़नी चाहिए. पहला निबंध 'वक्र चंद्रमा' की भी प्रशंसा की.
कार्यक्रम का कुशल संचालन करते हुए राजकिशोर राजन अनेकानेक महत्वपूर्ण प्रसंगों की चर्चा की उन्होंने कहा कि भाषा का निर्धारक कोई बड़ा साहित्यकार नहीं होता बल्कि सड़क पर चाय की दुकान करनेवाला या रिक्शा चलानेवाला होता है. जीवन से पनप रहे नवीन प्रकार के संघर्षों से ही नए शब्दों की उत्पत्ति होती रहती है.
साहित्यकार शीला प्रसाद ने "ड्रेस कोड" निबंध की चर्चा करते हुए कहा कि इसमें निबंधकार ने वस्त्र विन्यास और उसके प्रचलन के विभिन्न संदर्भों को बखूबी उठाते हुए बहुत बातें कही हैं. रचनाकार हर निबंध में एक प्रकार का शोध कर रहे प्रतीत होते हैं.
इस सत्र के अंत में समारोह के अध्यक्ष वरिष्ठ कवि प्रभात सरसिज ने कहा कि "चाँदखोल पर थाप" कोई सामान्य थाप नहीं होती. यह एक प्रकार की मुनादी करवाना होती है. उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर की कि ललित निबंध ने अभी तक हिंदी साहित्य में किसी विधा का स्वरूप ग्रहण नहीं किया है जैसे कि आलेचना ने. हिंदी साहित्य में आलोचना की कोई धारा नहीं है और यह एक द्वीप की तरह है. जो जहाँ है वहीं के रचनाकारों की रचनाओं पर मूल्यांकन कर रहा है.
इसके बाद प्रथम सत्र का समापन हुआ और अल्प विराम के बाद दूसरा सत्र कवि गोष्ठी का प्रारम्भ हुआ जिसमें अनेक कवि-कवयित्रियों ने अपनी अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं. इस सत्र का सुंदर संचालन किया .समकालीन गीतकार विजय प्रकाश.
कवि घनश्याम जहाँ भर में मुहब्बत का चिराग जलाकर देखते रहे कि कौन बुझाता है-
रहनुमाई कुर्सियों तक ही सिमट कर रह गई
आमजन के वास्ते ज़हमत उठाता कौन है
हम जहाँ भर में जला देंगे मुहब्बत के चिराग
और देखेंगे इन्हें आकर बुझाता कौन है.
राजमणि मिश्र को पास होते भी दूरी रह गई-
एक इच्छा अधूरी रह गई / पास होके भी दूरी रह गई
कहते कहते खामोश रह गया वो / जाने क्या मजबूरी रह गई.
जीवेश नारायण को दिल की बात बताने लायक हालात नहीं लग रहे-
दिल की बात समझ लेना / दिल की बात बता देना
दोस्त अब ऐसे हालात नहीं होते
सच ही तो है / अब चेहरे गुलाब नहीं होता.
पारस ने रूमानी अंदाज़ में देशभक्ति की बातें कह डाली-
जिसे लोग चाँदी का हैं नाम देते / धुले उस बदन पर ग़ज़ल कह रहा हूँ
मुझे देखकर तुझको हैरत सी क्यूँ है / मैं अपने वतन पर ग़ज़ल कह रहा हूँ.
शहंशाह आलम वैसे प्रतिबद्ध रचनाकारों में से हैं जो खुद को बारंबार रच लेते हैं चाहे उन्हें कितनी बार भी गिराया जाय-
परंतु उनके द्वारा / मार गिराये जाने के बावजूद
मैं रच ही लेता हूँ खुद को बारंबार / उनसे लोहा लेने के लिए.
विजय प्रकाश कवि गोष्ठी का संचालन करते हुए शेरोँ और पद्यांशों से सबको अनुरंजित करते रहे। अपनी पारी आने पर वे हँसी, अश्रु मथ कर बहुत कुछ निकाल लाये-
हँसी अश्रु मथ कर निकाले हुए हैं / मेरे गीत केवल तुम्हारे लिए हैं
कई काँच चमचम चमकने लगे हैं / कई कीमती रत्न काले हुए हैं.
मृत्युंजय मिश्र 'करुणेश' खुली जगह पाकर वहीं निबट लेने को उतारू हो उठे-
खुली जगह है खुले लोग हैं / अच्छा हो हम यहीं निबट लें
मीत जमाने बाद मिले जो / जिनको पा हम खुले खिले जो
लौट रहे अब बाँहों भर लें / उन्हें विदा दें गले लिपट लें.
हेमन्त दास 'हिम' ने महान कहलाने का नायाब नुस्खा खोज लिया-
खड़े थे दो रहनुमा अलग अलग से चोगे में
जिधर भी तुम हाथ बढ़ाओ, ठग का ही फरीक था
महान कहलाना है तो जो होता है होने दो
'हिम' लेकर बैठे रहो एक अनोखी परीकथा
राजकिशोर राजन ने लोहार से कुछ पूछ डाला तो वह अवाक रह गया-
तुम लोहार से
पूछोगे / तुम्हारे
पुरखों ने भी पीटा होगा लोहे के साथ देह
दिया होगा
लोहे को आकार / और आज तुम
किस्मत पीट रहे हो
वह अवाक् हो
सिर्फ देखेगा तुम्हें!
अशोक प्रजापति ने दौलत राग का सम्मोहक धुन छेड़ डाला-
शहर के तारकोली राजपथ पर / चला आ रहा
अलमस्त अदना बाँसुरीवाला / छेडता हुआ सम्मोहक धुन
अलापता हुआ दौलत राग.
डॉ. अर्चना त्रिपाठी अपनों के दिए जख्मों को उब्र भर माफ करती रहीं-
जख्म अपनों के छलते रहे उम्र भर
हम बचपना समझ माफ करते रहे उम्र भर
विभा रानी श्रीवास्तव ने विजयोत्सव का आनंद लिया-
विजयोत्सव- / सिंदूर की रंगोली / कुर्ते पर सजी (हाइकू-1)
पी परदेश - / तलाश रही विभा / सप्तर्षि तारे (हाइकू-2)
सुधा मिश्रा ने बाहर से अंतर्मन तक के अंधेरे को दीप जलाकर मिटाया-
आत्मशुद्धि का, आत्मज्ञान का
आत्मभुवन में / एक दीप जलाओ ऐसा
दूर हो जाए अंधियारा / बाहर से अंतरमन क.
संजय कुमार संज रोज खून खराबे से आजिज़ दिखे-
हाँ, यही लाचारी है / कैसी दुनियादारी है
रोज तमाशा, खून खराबा / खेल यही तो जारी है
अरबिंद पासवान के सीने में किसी की कूक दर्द दे गई-
तेरी आवाज में जो हूक है / कलेजे में जो कूक है
जियरा को सालता है / सीने में दर्दों को पालता है
धीरे से - तू आ, तू गा..
श्वेता शेखर ने विकल्पों की त्रासदी को रखा-
सत्ताधारी कस देते हैं / विकल्पों पर लगाम
और आम आदमी / करता है हमेशा
विकल्पों की तलाश.
पूनम सिन्हा श्रेयसी ने चुटकी भर नमक के महत्व से अवगत कराया-
माताएँ कोख में / बच्चियों को / कर देती है आगाह
कि करना सावधानी से / नमक का इस्तेमाल / नहीं तो किसी न किसी दिन
स्वाद की खातिर / भुगतेगी अंजाम
सिद्धेश्वर को जीने की दुआ माँगने के लिए खुदा ही नहीं मिला-
मंजिलें तो थीं मगर रास्ता ना था / ज़िंदगी को मुझसे कुछ वास्ता न था
जीने की दुआएँ किससे माँगता मैं / मेरे लिए तो कोई भी खुदा न था.
इसके बाद सत्र की अध्यक्षता कर रहे कवि प्रभात सरसिज ने पढ़ी गई कविताओं पर संक्षिप्त टिप्पणी करते हुए अपनी कविता में समय से बाहर जाकर गीत गाती हुई औरतों को सुनते रहे-
इन्हीं कष्टप्रद दिनों में / समय से बाहर जाकर
औरतें गीत गा रही हैं / आतताइयों के प्राणों को कँपाती हुई.
अंत में धन्यवाद ज्ञापण राजमणि मिश्र ने किया और अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की गई.
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आलेख- हेमन्त दास 'हिम' / अरविन्द पासवान
छायाचित्र- सिद्धेश्वर
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