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बोली नहीं भाषा के रूप से स्थापित होनेवाली मैथिली का ऐतिहासिक संघर्ष
मैथिली साहित्य संस्थान एवं बिहार पुराविद परिषद द्वारा पटना संग्रहालय में 7 जनवरी 2018 को एक व्याख्यान का कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें जवाहर लाल युनिवर्सीटी की छात्रा स्नेहा झा ने मैथिली भाषा के इस्तेमाल के सम्बंध पर अपने शोध पर आधारित व्याख्यान दिया. उनके बाद एक जापानी महिला तोमोका मोशिगा ने गया के पिंडदान की विधि में मैथिलों के योगदान पर अपने शोध प्रबंध आधारित व्याख्यान दिया. इन व्याख्यानों को सैकड़ों जागरूक लोगों के समूह से भरे सभागार में लोगों ने बड़े ही ध्यान से सुना और सराहा. आयोजकों में मैथिली साहित्य संस्थान के भैरब लाल दास, सचिव, इंद्रनाथ झा, अध्यक्ष और शिव कुमार मिश्रा, कोषाध्यक्ष शामिल थे.
स्नेहा झा ने मैथिली में बोलते हुए मैथिली भाषा के इस्तेमाल पर रोचक ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर किया. उन्होंने कहा कि साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने दरअसल अपने साम्राज्यवादी शक्ति की भारत में पकड़ बढ़ाने के लिए यहाँ की स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा दिया. 1857 की क्रांति के पहले अंग्रेजों की मंशा भारत को बदल कर पाश्चात्य संस्कृति में ढालने की थी किन्तु उस बड़ी क्रांति के बाद उन्होंने अपने रुख को बदला और भारतीय संस्कृति को इन्हीं के रूप में अपनाने का निर्णय लिया. केलॉग ने लक्ष्मीनारायण के कार्यों से सहायता लेते हुए Gramaar of Indian Language के बारे में लिखा. 1801 में पहली बार Henry Thomas ने मैथिली के बारे में चर्चा की. केलॉग ने लिखा कि उन्हें मैथिली में एक भी विद्वान नहीं दिखे. कहने का अर्थ यह कि वे मैथिली को भाषा के रूप में नहीं बोली के रूप में स्वीकार करते थे. 1816 ई. में दूसरी बार अंग्रेजों ने आधिकारिक रूप से मैथिली की चर्चा की.
स्नेहा झा ने बताया कि उस दौरान अंग्रेज मिशिनरी वाले भी भारतीय भाषाओं पर काम कर रहे थे. यद्यपि प्रशासक वर्ग और मिशिनरी वर्ग दोनो भारतीय भषाओं को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे थे लेकिन दोनों के उद्देश्य में मूलभूत फर्क था.
तीसरा संदर्भ मैथिली का दिया गया कैलॉग की किताब में जिसमें मैथिली, भोजपुरी आदि को मैथिली की बोली करार दिया गया. एक पुस्तक प्रकाशित हुई- A composite study of Bihari languages. बिहार की भाषा को बिहारी कहा गया. 1909 ई. में मैथिली को मात्र एक बोली कहा गया.
दूसरी व्याख्यान देनेवाली थीं तोमोका मोशिगा. उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से मैथिली मंत्रों का विशुद्ध और धाराप्रवाह वाचन कर सब को चमत्कृत कर दिया. फिर उन्होंने गया के श्राद्ध कर्म के विधान पर मैथिलों के योगदान को अपने पावरपवाइंट प्रस्तुति के माध्यम से उसकी व्याख्या करते हुए समझाया. वाचस्पति मिश्र की चर्चा विशेष रूप से हुई जिन्होंने गया में दिये जानेवाले पिंड के विधान को बड़े ही उदात्त ढंग से परिभाषित किया. उल्लेखनीय है कि गया में पिंडदान न सिर्फ अपने परिवारवालों का दिया जाता है बल्कि पड़ोसियों, मित्रों यहाँ तक कि अपने पालतू जानवरों का भी किया जाता है. पिंडदान के द्वारा भटक रही आत्माओं की शांति और कल्याण की यह भावना चरम पर तब पहुँचती है जब विश्व के समस्त भटक रही आत्माओं के मोक्ष की कामना की जाती है. विद्यापति ठाकुर के गया पद्धति की भी चर्चा हुई.
अंत में विद्वानों ने पढ़े गये व्याख्यानों पर अपने वक्तव्य दिये और धन्यवाद ज्ञापण के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ.
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आलेख- हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र- हेमन्त 'हिम' एवं शिव कुमार मिश्रा
ईमेल- hemantdas_2001@yahoo.com
नोट- यह रिपोर्ट सुनकर तैयार की गई है जिसके तथ्यों को लिखने में कुछ गलतियाँ हो सकती हैं. अत: वर्णित तथ्यों का संदर्भ देते समय उनकी सत्यता की जाँच कर लें. गलतियों के लिए बिहारी धमाका जिम्मेवार नहीं होगा.
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