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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Friday, 15 March 2019

'आखर' के 14.3.2019 के मासिक कार्यक्रम में मैथिली साहित्यकार प्रेम लता मिश्र से केशव किशोर की बातचीत

संस्था प्रधान होती है व्यक्ति नहीं 



गत वर्ष से आखर' नामक साहित्यिक संस्था ने बिहार की लोकभाषाओं की बड़ी सेवा की है. इसने मैथिली और भोजपुरी जैसी दो भाषाओं में अनेक कार्यक्रम किये हैं जिनमें लोकभाषा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार को बुलाकर उनका साक्षात्कार लिया है और वह भी खुले मंच पर आमंत्रित दर्शकों के बीच । इस अभियान के दौरान विद्वानों द्वारा जो जवाब दिए गए उनसे लोकभाषाओं से सम्बंधित अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उजागर हुए और पता चला कि क्यों लोकभाषाओं को पर्याप्त संरक्षण और सम्मान मिलना आवश्यक है ।

संस्था के प्रति समर्पित रहनी चाहिए, व्यक्ति की नही। यह बातें प्रभा खेतान फाउंडेशन, मसि इंक और श्री सीमेंट की ओर से होने वाली मासिक कार्यक्रम आखर में डॉ प्रेमलता मिश्र प्रेम ने कही  । कार्यक्रम 14.3.2019 को पटना के विद्यापति भवन में हुआ

वरिष्ठ पत्रकार केशव किशोर से बातचीत के दौरान डॉ मिश्रा ने कहा कि 12 वर्ष में  विवाह हो जाने के पश्चात उच्च माध्यमिक की परीक्षा उत्तीर्ण की फिर पटना आ जाने के बाद वर्ष 1975 से रंगमंच से जुड़ाव। रेडियो पे नाटक सबसे पसंदीदा नाटक रचनात्मक कार्य मुझे लगा। अभिनय, लेखन और संपादन के द्वारा डॉ. प्रेमलता मिश्रा अपनी अभिव्यक्ति जाहिर करती है। 

नौकरी इन्होंने आवश्यकता और महिला सशक्तिकरण करण दोनों को देखते हुए किया। कुछ वर्ष बाबा नागार्जुन के सानिध्य प्राप्त करने के बाद ये महिला सशक्तिकरण को लेकर सचेत हुई। घर घर जाकर नाटक के जरूरत को पूरा करने के लिए चन्दा एकत्रित करना पड़ता था। 

अपने नाट्य कर्म के यात्रा और बाधा पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि विद्यालय में पढ़ने के दौरान विद्यालय के कार्यक्रम में नाटक होना तय था पर ग्रामीणों के विरोध के कारण वो नाटक नहीं हो पाया उसी समय से नाटक में कार्य करने की इच्छा उत्पन्न हुई और निरन्तर इस कर्म में 50 साल से कार्यरत हूँ।

अभिनेता या अभिनेत्री टाइप्ड नहीं होते हैं वो अपने किरदारों पर बना दिये जाते हैं। इनका अंतिम नाटक "अंतिम प्रश्न" और "बड़का साहेब" है जो कि सामान्य नाटकों से भिन्न था। उन्होंने कहा कि उसमें मुझे रिहर्सल नहीं करनी पड़ी वो अंतर्कथा थी। 

निर्देशन में नहीं आ पाने का मुझे अब बहुत अफसोस है किन्तु मैथिली नाटक के लिए मैंने अपने से कम उम्र की महिला निर्देशक "तनुजा शंकर" के अंदर कार्य किया । 

अपने लेखन कर्म पर बात करते हुए डॉ. प्रेमलता मिश्र ने कहा कि "एगो छलीह सिनेह पुस्तक" फरमाईशी या शौकिया नहीं था । मेरे मन में जितनी उधेड़बुन थी उसे शब्दों का रूप दिया। समाज को जिस समय जिसकी जरूरत होती है उसके लिए मैं प्रतिबद्ध रहती हूं। उस समय रंगमंच में महिलाओं के प्रवेश की आवश्यकता थी मैंने इसे चुनौती की तरह स्वीकार किया । अबके समय में साहित्य लेखन महिलाओं के लिए चुनौती के रूप में है।

उन्होंने कहा कि मैं किसी व्यक्ति के लिए नहीं भाषा और संस्कृति के लिए कार्य करती हूं। इसकी मुझे बहुत आत्मसंतुष्टि है। संस्था मुख्य होती है व्यक्ति नहीं व्यक्ति तो आते जाते रहते है लेकिन संस्थाएं अडिग रहती है।अपने वैचारिक पक्ष पर  बोलते हुए उन्होंने कहा कि व्यक्ति भाव शून्य नहीं हो सकता भावुकता तभी दिग्भ्रमित करती है जब कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सके।

इस कार्यक्रम में प्रियंका मिश्रा, धीरेंद्र कुमार झा, रामानन्द झा रमण, बटुक भाई, कथाकार अशोक, रजनीश प्रियदर्शी, विष्णु नारायण, रंजन झा, आनंद कुमार आदि भी उपस्थित हुए।

ध्यातव्य है कि यह आखर का 17वां मासिक कार्यक्रम था। इसके पहले यह आठ बार मैथिली में और आठ बार भोजपुरी में यह कार्यक्रम कर चुका है।
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आलेख - सत्यम कुमार 
छायाचित्र - आखर 
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com





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