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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Monday, 11 March 2019

लेख्य मंजूषा की त्रैमासिक साहित्यिक गोष्ठी एवं त्रैमासिक पत्रिका 'स्पंदन' लोकार्पण पटना में 10.3.2019 को संपन्न

कच्ची धूप महुआ का डेरा / अंजुरी भर-भर प्यार,  पियरी सरसो का है घेरा


मौका था लेख्य-मंजूषा का त्रैमासिक साहित्यिक कार्यक्रम बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभागार में होना... बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन अपने सौ साल पूरे कर चुकने का उत्सव मना रहा है और दो साल पहले नींव रखी गई और पंजीकृत होने के बाद का पहला त्रैमासिक कार्यक्रम लेख्य-मंजूषा का

“मौन ही मेरी भाषा है,  दूर क्षितिज तक जाती है।
संकुचाता हूँ, घबराता हूँ, जो दिल में आता है वह बताता हूँ"।
 उक्त बातें वरिष्ठ साहित्यकार राश दादा राश ने लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम में कहीं। अपने उद्बोधन में उन्होंने बताया कि कविता मंच से निकले और श्रोता के दिल तक पहुँचे वही कविता है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने उद्बोधन में मंच पर उपस्थित सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि लेख्य-मंजूषा दिन दोगुनी रात चौगुनी अपने विकास पथ पर बढ़ रही है। कार्यक्रम की प्रतियोगिता पर रौशनी डालते हुए कहा कि प्रतियोगिता का अर्थ आपसी विवाद न हो कर साहित्य सृजन का कार्य होता है। इस बार प्रतियोगिता की विशेष रूपरेखा से उत्कृष्ट रचनायें  सामने आयी हैं। 

कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ ने अपने उद्बोधन में कहा कि साहित्य की साधना सबसे बड़ी तपस्या है। निराशा से घबराना नहीं है। काव्य शिल्प पर रौशनी डालते हुए उन्होंने बताया कि छंद युक्त कविताएं अधिक खूबसूरत बनते हैं। जबकि छंदमुक्त कविता में प्रभाव रखना अत्याधिक मुश्किल होता है।

लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम (मार्च 2019) “शब्द - प्रबंधन : साहित्य - सृजन” के तहत बैंगलोर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार  राश दादा राश मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार व लघुकथा के वरिष्ठ रचनाकार डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अनेकानेक लघुकथाओं का पाठ किया  

दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। शुभारंभ के बाद लेख्य-मंजूषा की त्रैमासिक पत्रिका “साहित्यक स्पंदन” का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के वक़्त मंच पर डॉ. सतीशराज पुष्करणा, राश दादा राश, विभा रानी श्रीवास्तव, नसीम अख्तर, डॉ. अनिल सुलभ, कृष्णा सिंह, भगवती प्रसाद द्विवेदी,  इत्यादि मौजूद थे।

“शब्द-प्रबंधन:साहित्य-सृजन” 

साहित्य में उच्चारण का अपना विशेष महत्व है। उच्चारण में कोई त्रुटि न हो इसके लिए लेख्य-मंजूषा ने  6-6 सदस्यों का 5 दल बनाया गया। दल दुष्यंत, दल नागार्जुन, दल दिनकर, दल निराला व दल प्रेमचंद नाम से बनाए गए। अस्थानीय सदस्यों के रचनाओं का पाठ स्थानीय सदस्यों ने किया।

शायर सुनील कुमार की अगुवाई में दल दुष्यंत ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। क्रमशः दल निराला, दल प्रेमचंद , दल नागार्जुन व दल दिनकर ने द्वितीय , तृतीय, चतुर्थ और पाँचवा स्थान हासिल किया।

गोष्ठी का संचालन मो. नसीम अख्तर द्वारा किया गया और उनका साथ निभाया केशव कौशिक ने धन्यवाद ज्ञापन शायर सुनील कुमार ने किया। कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ, वरिष्ठ पत्रकार व शिक्षाविद डॉ. ध्रुव कुमार, आलोचक व कवयित्री प्रो. डॉ.अनिता राकेश, समाजसेवी ममता शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार नीलांशु रंजन,  जे.पी. मिश्रा, जवाहर लाल प्रसाद आदि की उपस्थिति महत्वपूर्ण  रही। 

वे सदस्य जो पटना के बाहर के हैं और इस कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हो पाये उनकी रचनाएँ दुसरे सदस्यों ने पढ़ी।.ऐसे सदस्य थे - कमला अग्रवाल (इंदिरापुरम), मीनू झा (पानीपत), कल्पना भट्ट (भोपाल), अंकिता कुलश्रेष्ठ (आगरा), शशि शर्मा खुशी (हनुमान गढ़-राजस्थान), पम्मी सिंह (दिल्ली), साधना ठाकुर (ओमान) और अनिता मिश्रा (हजारीबाग)

इस अवसर पर पढ़ी गई रचनाओं की एक झलक प्रस्तुत है-
 जमाना याद रखे जो, 
कहानी हो तो ऐसी हो,
लुटा दें देश पर अपनी, 
जवानी हो तो ऐसी हो। 
(–कृष्णा सिंह)

 जो बेशर्म है
दुनिया में वही तो
है कामयाब
चापलूसी का दौर
सच की कहाँ ठौर
(–डॉ. सतीशराज पुष्करणा)

 ग़ज़ल हो तुम मेरी जाना तुम्हें ही गुनगुनायेंगे
तुम्हारे प्यार में जानम हरिक ग़म भूल जाएंगे
(-सुनील कुमार)

 साँसों की डोर जब,
छोडने लगती है तन का साथ
याद आने लगता है बीता कल
मन लगाने लगता है हिसाब
क्या खोया क्या पाया?
(-शशि शर्मा खुशी)

चेतना हीन मानव विषाक्त
अमृत संदेश सुनाना है
मानवता का है धर्म प्रेम 
ये जन-जन को समझाना है.
(– अंकिता कुलश्रेष्ठ)

 धान के बिचड़े सरीखे
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से 
 लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को 
पुरखे मेरे
(–सुबोध कुमार सिन्हा)

 एक सफ़र हुआ महबूब संग अनजानों की तरह
पर हम याद रखेंगे सालों साल दीवानों की तरह
(– सुशान्त सिंह)

फागुन वाला प्यार
सखी रे, फागुन वाला प्यार
कच्ची धूप महुआ का डेरा
अंजुरी भर-भर प्यार
पियरी सरसो का है घेरा
फागुन वाला प्यार.
 (–संजय कुमार 'संज')

इधर शम्मे उलफत जलाई गई है।
उधर कोई आँधी उठाई गई है।
वो घर को नहीं बाँट डालेगी दिल को 
जो दीवार घर में उठाई गई है।
(–मो. नसीम अख्तर)

  सड़क से गुजरते हैं हम
 तो एक नजर देख लेते हैं उधर भी
 उस फुटपाथ पर मेरी नजर चली ही जाती है 
जहां हालात से हारे , बेहालात वाले लोग रहते हैं।
(– मीरा प्रकाश)

 कुछ शब्द है कुछ मौन है ,अगर समझो तो
तुम्हारे लिए है ये, अगर समझो तो
नहीं जरूरत कोई शब्दों के व्याकरण देखने की
वेदना समझ लेना ..बस ,मेरे क्षुब्ध ह्रदय की
सुनना शब्दों के पीछे का मौन, नीरसता प्रलय सी।
अगर समझो तो.....
(– वीणाश्री हेम्ब्रम)

पता नहीं आईने के सामने
कौन था ?
और आईने  में अक्स किसका था ?  
माँ तो इधर  भी थी
माँ तो उधर भी थी
तन्हा वो भी थी
तन्हा मैं  भी हूँ.
(- साधना ठाकुर)

कभी देखा है! 
माँ गंगे के चरणों में पड़ी हुई,
आस्था से उत्पर्ण व्यर्थ वस्तुओं को.
(– प्रभास सिंह)

ओ भारत माँ के अमर शहीदों,
हम कैसे नमन करें तुम्हारा,
कैसे क़र्ज़ चुकाएंगें हम 
हो कैसे सफ़ल बलिदान तुम्हारा
(– अमृता सिन्हा)

पाक तेरा नापाक इरादा और न बढ़ने देंगे हम
दहशतगर्दी में सेना को और न मरने देंगे हम
(– सरोज तिवारी)

दामन  बचा के चले  गए तुम 
आँसुओ का ज्वार क्यू  छोड़े जाते हो
पास न आओगे फिर कभी 
यादों का  संसार क्यो छोड़े जाते हो
(– डॉ. रबबान अली)

समय से बगावत कर,
  कब तक जीते रहोगे,
  सुलगती आग भी,
  ठंडी हो जाती है,
  जब तक उसे ,
  हवाओं  की 
  आंच न मिले।
(– सुधांशु कुमार)

भीड़ तंत्र पर बात चली हैं,एक  छत की खातिर
बेरोजगार भटके युवकों का रास्ता बदला है 
आह,वाह,अना,अलम और आस्ताँ की आस में
आजकल हुजूम का कारोबार खूब चला  हैं
(– पम्मी सिंह'तृप्ति')

देखो मैं नारी हूँ, नारी का सम्मान चाहती हूँ। 
कोरी बातो से ही नहीं, हृदय से मान चाहती हूँ।
(– अनिता मिश्रा)

यह कैसी हवा
ज़हरीली, नफ़रत से भरी
विषकन्या क्या पुनः
जीवित हो उठी है 
आतंकी गलियारों में!
(– कल्पना भट्ट)

 मातृभूमि की  चुनौतियाँ,
क्या कह रही, सुनना होगा 
जागने  का  वक़्त  है,
जागना और जगाना होगा।
(– सीमा रानी)

हर बार लहू से ही मुल्क ए इबारत ना लिखते
काश! फतह ही  लिखते शहादत ना लिखते
ह्रदयहीन,क्रुर, घृणित, जाहिल है ये अपना दुश्मन
भाई बनकर रहता तो सच मानो अदावत ना लिखते
(– मीनू झा)

नई सुबह होने तो दो,रिश्तों कीदूरी ना बढाओ 
कुछ तुम मान जाओ ,कुछ वे मान जायें ,
ताप न रखो मन में,
मनकी व्यथा को पिघलने तो दो
(– कमला अग्रवाल)

मैं आज की नारी
 अपनी मर्यादा में रहकर
 पुरानी कुरीतियों और जुल्मों की ,
 जंजीरों को तोड़ने वाली
 अपनी सहभागिता से 
 समाज और देश को 
 उन्नति प्रदान करने वाली
(–मिनाक्षी सिंह)

पुलवामा में हुआ ये कैसा हादसा!?
 धरती की हूक निकली,
आसमॉ भी था रूआसॉ।
(– अणिमा श्रीवास्तव)

मैं सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ
पर आँखों पर पट्टी बांध, गांधारी बन कर नहीं
मैं अपने पुत्रों को कुरुक्षेत्र रण मैदान नहीं भेजना चाहती हूँ 
मैं उन्हें देश की सीमाओं पर भेजना चाहती हूँ।
(– एकता कुमारी)

"जब रक्त गिरता है वीर का,सरहद पर गुल मुस्काता है,
गर्वित होता है ये देश सारा,तिरंगा भी झुक जाता है।
(–कुमारी स्मृति)

 दर्द ढोने से कुछ नहीं होगा
सिर्फ़ रोने से कुछ नहीं होगा
अब्र बरसे तो कोई बात बने
बीज बोने से कुछ नहीं होगा
(- राजेन्द्र पुरोहित)



कानून के शिकंजे में
आने के बाद भी
उस शैतान के चेहरे पे
कुटिल मुस्कान देखकर
मेरे तन- बदन में
आग लग जाती है
तब लिखती हुँ-
मैं कोई कवयित्री नहीँ।
( – प्रेमलता सिंह)

रिश्ते जताने लोग मेरे घर भी आऐंगे
फल पेड़ो पर होगें तो पत्थर भी आऐंगे
जब चल पड़ी हूँ मैं सफर पर तो हौसला रखो
सहारा कही कही पे काँटे उग आऐंगे। 
(– शाईस्ता अंजुम)

 ज्योति मिश्रा ने भी अपनी एक कविता पढ़ी।
गहरी नदी में नाव की तरह, 
तपती दुपहरी में छांव की तरह, 
रूह को सुकून देती हो, 
लगती हो बिलकुल मेरे गाँव की तरह।
(–संजय कुमार सिंह)
.............
आलेख - अभिलाष दत्त 
प्रस्तुति - विभा रानी श्रीवास्तव 
छायाचित्र सौजन्य - संजय कु. संज / मो. नसीम अख्तर 
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
नोट - कार्यक्रम में भाग लेनेवाले जिस रचनाकार की पंक्तियाँ या चित्र छूट गए हैं वो कृपया श्रीमती विभा रानी श्रीवास्तव से सम्पर्क करें. 

   






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