दिनकर ने अपनी कविताओं के माध्यम से राष्ट्र के अतीत का स्मरण किया है। अपनी प्रसिद्ध कविता 'हिमालय' में उन्होंने अपने राष्ट्र के अतीत का पुनरांकन करते हुए स्वतंत्रता के दीप जलाने वाले नौजवानों की खोज की है :
" पूछ तू सिकताकण से हिमपति!
तेरा वह राजस्थान कहां !
वन-वन स्वतंत्रता -दीप लिये
फिरने वाला बलवान कहां ! "--(रेणुका )
दिनकर का हृदय स्वभावतः ही राष्ट्रीय है, राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जिन वीरों ने बलि दी, कवि उसका जयकार करते हुए कहता है :
"कलम आज उनकी जय बोल!
जला अस्थियां बारी -बारी,
छिटकायी जिनने चिनगारी
जो चढ़ गये पुण्य-वेदी पर
लिये बिना गरदन का मोल !"
दिनकर जी ने 'रश्मिरथि 'और 'कुरुक्षेत्र' के माध्यम से राष्ट्र के अतीत की गौरव-गाथा का बखान किया है। 'रश्मिरथि ' में मात्र अतीत की गौरवगाथा ही नहीं, वरन् उसमें पराधीन भारत का क्रोध और प्रतिशोध भी झलकता है। परतंत्रता के प्रति कवि के मन में इतना विद्रोह भरा है कि उनके अन्तःकरण की गुंजारित ध्वनियों के समक्ष सागर की लहरों के गर्जन की कोई विसात नहीं रह गयी है:
"सुनूं मैं सिन्धु, क्या गर्जन तुम्हारा
स्वयं युगधर्म का हुंकार हूं मैं!"
बंदी भारत की आजादी के लिए गांधीवादी मार्ग के प्रति उनके मन में अनास्था आ गयी थी। आजादी के लिए उनके सामने क्रांति का मार्ग ही वरेण्य था। उन्हें युधिष्ठिर की नहीं , गदाधारी भीम और गांडीवधारी अर्जुन की आवश्यकता थी। खड्गधारिणी क्रांति की पायल की झनकार उन्हें साफ सुनाई पड़ रही थी :
"असि की नोकों से मुकुट जीत
अपने सिर उसे सजाती हूं
ईश्वर का आसन छीन
कूद मैं आप खड़ी हो जाती हूं
थर -थर करते कानून न्याय
इंगित पर जिन्हें नचाती हूं
भयभीत पातकी धर्मों से
अपने पग मैं धुलवाती हूं
सिर झुका घमंडी सरकारें
करती मेरा अर्चन-पूजन
झन -झन-झन-झन झन
झनन-झनन ।--(विपथगा ,हुंकार ) "
स्वतंत्रता आन्दोलन के बीच में जब गांधी असमंजस की स्थिति में आते हैं, दिनकर उन्हें द्विधा से मुक्त होने हेतु अपनी कविता ' द्विधाग्रस्त शार्दूल ' में आह्वान करते हैं, ललकारते हैं :
"बुझ गया ज्वलित पौरुष-प्रदीप या टूट गये नखरद कराल?
या तू लखकर भयभीत हुआ लपटें चारों दिशि लाल -लाल?
दुर्लभ सुयोग, यह वह्नि-वाह धोने आया तेरा कलंक
विधि का यह नियत विधान तुझे लड़कर लेना है मुक्ति मोल ।
किस असमंजस में अचल मौन, ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल बोल! "
दिनकर अपनी कविताओं में देश की जनता को न सिर्फ पराधीनता की बेड़ी को तोड़कर अलग करने के लिए आंदोलित करते हैं, बल्कि जब आन्दोलनकर्मी थकने लगते हैं, तो कवि उसे आश्वासन और प्रोत्साहन देता है कि विजय समीप है। लक्ष्य के पास पहुंचकर थक कर बैठ जाना वीरों का काम नहीं है। वे अपनी प्रसिद्ध काव्य-पुस्तक 'सामदेनी 'में साहस देते हैं और उत्साहित करते हैं :
" यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है
थककर बैठ गये क्यों भाई, मंजिल दूर नहीं है ।"
राष्ट्रकवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल अतीत की गौरव-गाथा का बखान किया है, न केवल पराधीनता की बेड़ी को झनकार कर तोड़ फेंकने हेतु नौजवानों को ललकारा है, बल्कि देश की तत्कालीन स्थिति पर सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी विचार किया है। पूंजीवादी व्यवस्था के कारण उत्पन्न सामाजिक असंतुलन की विवेचना करते हुए उन्होंने लिखा है :
"श्वानों को मिलते दूध -वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं ।
मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं ।"
फिर, दिनकर का कवि हुंकारता है :
"हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं ।
दूध-दूध , ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं ।"
अन्ततः देश को आजादी मिली,जनता उल्लसित हो उठी । उसका मन -मयूर नाच उठा । कवि दिनकर ने भी स्वतंत्रता का स्वागत ' अरुणोदय ' शीर्षक कविता लिखकर किया ।
राज्यसभा के सदस्य भी बने। किन्तु, आजादी के सात वर्ष बीतने पर भी जिस स्वराज की कल्पना की गयी थी, देशवासियों को नहीं मिला। तब दिनकर जी ने 1954 में अपनी कविता 'समर शेष ' में लिखा :
"पूछ रहा है जहां चकित हो जन-जन देख अकाज ।
सात वर्ष हो गये राह में अंटका कहां स्वराज ।"
तत्कालीन शासन -सत्ता के के शीर्ष पर बैठे नेतागण जिन पर देश में ' स्वराज ' लाने का भार सौंपा गया था, सत्ता-सुंदरी के जाल में फंसकर भूल गये। कवि उनको लताड़ने से बाज नहीं आता।' नील कुसुम ' की कविता ' भारत का यह रेशमी नगर ' में वह कहता है :
"रेशमी कलम से भाग्यलेख लिखनेवालो,
तुम भी अभाव से ग्रस्त कभी रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में
तुम भी क्या घरभर पेट बांधकर सोये हो?"
और, उन्हें चेतावनी के स्वर में कहता है :
"तो होश करो दिल्ली के देवो, होश करो
सबदिन न तो यह मोहिनी चलनेवाली है
होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसें ,
मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है ।"
फिर, जब 1962 में चीन भारत पर कायरतापूर्ण आक्रमण करता है, तो महाकवि दिनकर की राष्ट्रीय चेतना 'परशुराम की प्रतीक्षा ' में प्रस्फुटित होती है। सरकारी नौकरी की विवशता और गुलामी झेलते हुए दिनकर जी ने राष्ट्रीयता का निर्भीक एवं रागात्मक उद्घोष किया है। 'रेणुका ' , ' हुंकार ' , और 'सामधेनी ' की कविताओं ने पूरे हिन्दीभाषी प्रदेशों में राष्ट्रीयता की लहरें उठाने में प्रमुख भूमिका निभायी है। दिनकर को अपनी मिट्टी पर, अपने देश पर और अपनी संस्कृति पर अभिमान है। वह स्वर्ग को चुनौती देते हुए कहता है :
"व्योम कुंजों की परी अयि कल्पने!
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं ।
रुक न सकती मृत्तिका आकाश में
शक्ति है तो आ बसा अलका यहीं ।"
दिनकर अपने समय के राष्ट्रीय चेतना के प्रतिनिधि कवि थे । प्रसिद्ध क्रांतिकारी और वरिष्ठ साहित्यकार मन्मथनाथ गुप्त ने राष्ट्रकवि के बारे में ' आज के लोकप्रिय कवि रामधारी सिंह दिनकर ' नामक पुस्तक में लिखा है, "उदय के साथ ही दिनकर का स्थान हिन्दी के क्रांतिकारी कवियों में बन गया और काव्य-लोभी जनता उनका प्रत्येक स्वर कंठ में बसाने लगी। उन्होंने आगे लिखा है, "हिमालय', 'नयी दिल्ली', 'तांडव', 'दिगम्बरी ' , 'हाहाकार', 'विपथगा' और 'अनल किरीट' ये कविताएं अपने समय में जनता को बेहद झकझोरती थीं। यही नहीं, बल्कि उन्हें सुनकर बडे-बडे राष्ट्रीय नेता सभाओं में फूट-फूटकर रोने लगते थे और बूढ़े भी सभाओं में खड़े हो जाते थे।
.....
आलेख- हरिनारायण सिंह हरि
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