कविता मूलत: विचारधारा की प्रवक्ता नहीं बल्कि संवेदना की संवाहक होती है. हम पूरी तरह से हर विचारधारा से मुक्त नहीं हो सकते किंतु एक असली कवि वही होता है जो किसी विचारधारा या पूर्व मान्यताओं से अपने आप को बाँध लेने की बजाय घटनाओं और वस्तुओं का पूर्ण निरपेक्षता बरतते हुए विश्लेषण कर डालता है. यह निरपेक्षता जितनी अधिक होगी कवि की सच्चाई उतनी ही अधिक होगी. इस संदर्भ में रवींद्र कुमार दास की निरपेक्षता अभूतपूर्व किस्म की है.
दिनांक 16.9.2018 को 13,छज्जूबाग, पटना में बिहार के मूल निवासी रवींद्र कुमार दास का एकल काव्य पाठ हुआ और उसके बाद साहित्यकर्म के बारे में एक गम्भीर विमर्श हुआ. कार्यक्रम के संयोजक थे राजेश कमल द्वारा पढ़ी गईं कविताएँ टेक्स्ट के अंत में दी गईं हैं. पहले प्रस्तुत है रवींद्र के दास के साथ हुए उच्चस्तरीय साहित्यिक विमर्श का ब्यौरा -
रवींद्र कु दास- मैंने "कमाती हुई स्त्री" में यह बताया है कि आनेवाले दिनों में आइडल (प्रतिनिधि) नारी कोई अतिसुंदरी नहीं कामकाजी महिला होगी.
कविता जिस चीज पर लिखी जा रही है उस चीज में कोई राजनीति नहीं होती लेकिन साहित्यकारों का अपना राजनीतिक उद्देश्य हो सकता है. वैसे भी साहित्य को समाज का दर्पण कहना पूरा सही नहीं है. वास्तविकता यह है कि साहित्यकारों की भूमिका दर्पण से कहीं आगे की है. उसे पथ-प्रदर्शन भी करना पड़ता है.ताकि साहित्य मात्र एक स्टिल फोटोग्राफी बनकर न रह जाय. कालिदास ने भी अपने जमाने में धम्रग्रंथों की कुछ बातों के विरुद्ध लिखा.
हर युग की आवश्यकता के अनुसार आदर्शों के प्रतिमान बदलते जाते हैं. आज से चालीस साल पहले जिसे हम अच्छा कहते थे आज हमारे समाज में जरूरी नहीं कि वह अच्छा माना जाय. और ऐसी दशा में साहित्य के पुराने प्रतिमानों से टकराने में विचारधारा नहीं बल्कि संवेदना मदद करेगी.
कविता-1
घर
सुनो, मैं पूछता हूँ एक प्रश्न
यदि निश्चित अर्थ होता है घर का
पनघट, हाट, रास्ता या अभिसार
क्यों नहीं होता है घर.
मैंने देखा, वे पखेरू नहीं थे न ही
कोई जानवर
मैंने उसे हसते बोलते देखा
उस सड़क के किनारे पर
वे ऐसे ही आश्वस्त थे जैसे मैं घर आकर होता हूँ
क्या कोई घर होता है बिना मकान के
जब मैं घर कहता हूँ
तब तुम वही समझते हो, जो मैं कहता हूँ
वह देर रात तक सड़क किनारे की पुलिया पर बैठा रहा
उसे घर जाने से बचना था कुछ देर
लेकिन बचने की यह कोशिश
घर छोड़ने की कोशिश नहीं थी
और यह पुलिया 'हाँ और न' के बीच की कोई खाली जगह थी
उसे मैंने देखा
वह मुस्कुराया आश्वस्त सा
किसी सूरत वह बेघर नहीं था.
घर से बाहर जाना, बेघर होना नहीं था
घर एक अहसास
जो रहता है कदम दर कदम
कभी कभी पीठ पर लदा सा
कभी कभी सुकून के निश्चित विश्वास सा.
कुछ और लोग थे साइन-बोर्ड वाले
वे घर बेचते थे
बेचते थे मकान, पर घर कहते थे
उनके पास कई मकान होते थे
लेकिन वे भी घर जाते थे
वे अपने दुकानों से घर जाने की जल्दी में रहते थे
दुकानों या मकानों को वे अपना घर नहीं कहते थे
चतुर थे, बेईमान थे
लेकिन वे भी घर जाते थे
सबके घर के रास्ते में मंदिर होता है
मन्दिर घर नहीं होता
मंदिर को मकान या दुकान भी नहीं कहा जाता
बहुत सी बातों की तरह
यह भी,
जो कहा नहीं जाता था, वह था
मन्दिर पर कुछ भिखारी थे
उनका मकान नहीं था, पर वे शाम को घर जाते
थे
उनसे उनके घर का पता नहीं पूछता था कोई
कोई उसे भीख नहीं देता
और कुछ लोग देते थे भीख
हो सकता है, भीख देने वाला अपने को
श्रेष्ठ समझता हो
श्रेष्ठ समझने के पीछे
घर का अहसास होता है कई बार
मेरी माँ के पास
घर के अहसास के अलावा और कुछ नहीं था
हालाँकि हर दो चार महीने बाद
बदल जाता था
उसके रहने का स्थान
पर घर का विश्वास नहीं बदलता था कभी
निश्चिन्त रहती थी वह हर जगह
अपने घर के विश्वास के साथ.
....
कविता-2
विज्ञापन
विज्ञापन से बड़ा
न कोई समाचार था
न ही विज्ञापन से बड़ा
कोई सच
सम्पादक वे बड़े थे
जिनके अख़बार के विज्ञापन बड़े थे
जिन अखबारों को कम विज्ञापन मिलते है
वे निंदा करते व्यवस्था की
और जब बढ़ने लगता निंदा का प्रभाव
उन्हें मिलने लगते
जनकल्याण के सरकारी विज्ञापन
और सरकार हो जाती जन-हितकारी
रातो रात.
....
कविता-3
हम किसी दो चार लोगों की खोज में हैं
हम किसी ऐसे दो चार लोगों की खोज में हैं
जिन पर अपने समय की सारी जिम्मेवारियां थोप दी जाए
तमाम अपराध, अनीति और अव्यवस्थाओं
की
इस फ़िक्र में बढती रहती है बेचैनी
और इस बेचैनी के बोझ तले हम
अपने भाइयों, पड़ोसियों, हमजोलियों को गाली देते रहते हैं
और जैसे कोई
सरकारी, राजनीतिक, धार्मिक या व्यापारिक व्यक्ति चढ़ता है
हमारे हत्थे
करने लगते है उसीका मटिया मेट
कि जैसे ये नहीं होता
तो संसार में, देश और समाज में कोई
बुराई न होती
बिलकुल न होता कुछ भी गलत
बस ये न होता तो
इसी तरह हम भूखे भेड़ियों की तरह बाट जोहते थे
ऐसे मौकों की
जब हम अपने अन्दर की अगिन-कुल्ली उस छोड़ें
दरअसल हम कुछ वैसे लोगों की तलाश में थे
जिनपर तमाम जिम्मेदारियाँ डाल कर
हम खुद को सभी जिम्मेदारियों से मुक्त करना चाहते थे.
.....
कविता-4
विरोध और मनोरंजन
विरोध करें या न करें
और विरोध की बातें जरूर करें
सो विरोध की बातें होती रहीं,
और सत्ता खेलती रही
अपने गंधर्व नगर की आंख मिचौली
कभी खेल खेल में,
कभी नाक में दम होने पर
और जब खेल शुरु होता उनका
हम विरोधी कुनबे के लोग
पसर जाते सुस्ताने को
सुस्ताना जरूरी होता है
फिर से काम पर जुटने के लिए
पर प्रिय होता है सुस्ताना
सत्ता ने हमारी इस प्रीति का सच
जान लिया और उसी ने
बहुत कम दरों पर ठीया लगवाया
सुस्ताने के लिए
हम विरोधी लोग
वहां जाने लगे, सिर्फ़ सुस्ताने
वहां सुस्ताना, गप्पें लगाना, विरोध की बातें करना
हमें भाने लगा
वहां बार बार जाना हमें भाने लगा
पर अपनी जीवन्तता की लाज रखने को
हमने जारी रखी विरोध की बातें
हमारी बातें सुनने को इकट्ठे होने लगे लोग
इन्हें भी लगती दिलचस्प विरोध की बातें
धीरे धीरे बदलने लगीं
विरोध की बातें
विरोध की बातें
कब बन गई मनोरंजन की बाते, पता न चला
अब जो कोई विरोध की बातें करता
लोग उसे मनोरंजन की नज़र से देखते
और इसका पूरा पूरा लुत्फ़ उठाते
हम विरोधी कुनबे के लोग
आज भी करते हैं मनोरंजन की शक्ल में
विरोध की बातें.
...
कविता-5
मैं जब भी दोपहर को उस रास्ते गुजरता हूं
मैं जब भी दोपहर को उस रास्ते गुजरता हूं
हर बार, बाज़ार के मुहाने की
उस छायादर पेड के नीचे की टिपरिया पान की दुकान पर
रुक जाया करता हूं
सिगरेट के लिए, जहां कुछ पगुराए
विश्राम की मुद्रा में
अपने रिक्शों पर
सवारी वाली सीटों पर
बैठे होते हैं कुछ रिक्शावाले
उनमें से एक बांचता होता है आज का कोई हिन्दी समाचार पत्र
मैं उसे देखता हूं
और इस सवाल को सुलझाता हुआ
चल पडता हूं
इसे कैसे समझूं -
हमारे देश का रिक्शापुलर भी अब अखबार पढता है
या अखबार पढने वाला आदमी भी रिक्शा चलाता है?
......
कविता-6
माँ को कभी सीरियसली लिया ही नहीं
माँ को कभी सीरियसली लिया ही नहीं
माँ ... माँ है.... और क्या !
कभी ध्यान गया ही नहीं
कि माँ भी एक अदद शख्सियत है
कितनी बार झल्लाया
कितनी बार सताया
कितनी बार रुलाया .....
नहीं है इसका कोई हिसाब
बाबू से हमने यही सिखा
कि माँ को डांटने से पहले सोचना नहीं पड़ता
यह भी ख्याल नहीं आया
कि माँ को भी दर्द होता होगा
दुखता होगा उसका भी मन
दरअसल ... माँ का अपना कोई मन है ...
ख्याल ही नहीं आया
ऐसा भी नहीं था कि माँ से पिटा नहीं मैं ...
पर ... वह पिटाई हरबार यूँ ही - सा लगता
माँ का क्रोध ...
कभी क्रोध जैसा लगा ही नहीं
और आज जब उग आया हूँ परदेसी जमीन पर
जहाँ सब कुछ जुटाना पड़ता है जुगत भिडाकर
चाहे हवा ... चाहे पानी ... चाहे प्यार ... चाहे नींद...
आज भी गुस्सा ही आता है माँ पर
कि साथ क्यों नहीं है मेरे
कम से कम उसके सीले आँचल में सुकून तो मिलता
माँ .... तुम्हारा स्पर्श ,
कहाँ से पाऊं ....
कहाँ से लाऊं इस बाजार बन गये शहर में
तुम्हारा आँचल ....
और आँचल की सुरक्षा ...
जो बचा लेती थी बाबू के भयानक कोप से.
.....
कविता-7
कितना बेबस होना है पिता होना
समय का साथ छोड़ चुके
अपने पिता को
याद करता हूँ
अपने समय से लिथड़ा मैं
कि कैसे हम उन्हें सर्वशक्तिमान की नजरों से देखते रहे थे
उम्र भर,
जबकि आज मैं कालबिद्ध हो,
करता हूँ महसूस
जो उम्र के बढ़ने से बढ़ता ही जाता है
घनत्व बेबसी का भी...
जो करना होत है मुकाबला अचानक आई विपत्तियों का
बिना जताए अपनी साँसों को भी
कितना त्रासद
और विडम्बना से लबालब होता है
समय
जो आपके आश्रित समझते हैं सुपरमैन
आपको
और आप होते हैं बेबस और बेसहारा....
क्षमा कर दें पिता !
हमारी नासमझ और सपनीली मासूम आँखों ने
नहीं देखी वह साँसत
जिसे दबाए रखा हिम्मत की ओट में....
आज तो समझ ही सकता हूँ
जो बढती उम्र का पहाड़
पैदा करती है, कई कई नदियाँ बेबसी की
और मिला देती है आखिर तक
मौत के महासमुद्र में...
जीते जी पिता के
नहीं समझ पाया जो
आज तर्पण करते हुए कर रहा हूँ महसूस
कि कितना बेबस होना है पिता होना!
....
कविता-8
पेड़ कटने के बाद
पेड़ कटने के बाद
कुछ था जो रह गया था
ठेकेदार को
यहाँ सुन्दर महल बनाने का काम मिला था
उसे पेड़ से नहीं थी कोई जाती दुश्मनी
महल बनेगा
तो यह हरा भरा पेड़ कैसे रहेगा
ठेकेदार ने कामगारों से कहा
पेड़ तो काट ही देना
और नीचे भी कर देना सफाई
आनन फानन में कट गया पेड़
कुछ गहराई तक जड़ भी खोदी गई
बना आलीशान बंगला
बंगले में रहते थे कुछ मनुष्य
सभ्य सुसंस्कृत सलीकेदार
आस पास के लोगों के लिए आदर्श
कि काश ऐसा जीवन सबको नसीब हो
उन मनुष्यों में एक बच्चा भी था
जिसे अकसर सुनाई देती थी रुलाई
आकर बताता अपनी माँ से
माँ धरती रोती है
ऐसे रोती है जैसे उसका गला काट रहा हो कोई
सुनकर हँसती रहती माँ
संजीदगी से समझाती - ऐसा मत बोलो
जो सुनेगा मजाक बनाएगा
पापा भी गुस्सा करेंगे
लेकिन रुकी नहीं क्रंदन की वो आवाज़
पेड़ के कट जाने पर भी कुछ था
जो रह गया था
कहीं धरती के नहीं
वही रो रोकर पुकार रहा था
जिसे सिर्फ नौनिहाल सुन पा रहा था
कुछ दिनों की बात है
बच्चा बड़ा होगा जरूर होगा
सभ्यता को जाना है अभी बहुत आगे.
....
कविता-9
हमारे समय की नायिकाएं
तेज धूप है
पसीने से लथपथ
संभली
सीधी नज़र
तेज
और सधी चाल
हमारे समय की
नायिकाएं
काम पर जा रही है ..
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