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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Wednesday 19 September 2018

रवीन्द्र कुमार दास का एकल काव्य पाठ एवं साहित्यिक विमर्श पटना में 16.9.2018 को सम्पन्न

माँ को कभी सीरियसली लिया ही नहीं



कविता मूलत: विचारधारा की प्रवक्ता नहीं बल्कि संवेदना की संवाहक होती है. हम पूरी तरह से हर विचारधारा से मुक्त नहीं हो सकते किंतु एक असली कवि वही होता है जो किसी विचारधारा या पूर्व मान्यताओं से अपने आप को बाँध लेने की बजाय घटनाओं और वस्तुओं का पूर्ण निरपेक्षता बरतते हुए विश्लेषण कर डालता है. यह निरपेक्षता जितनी अधिक होगी कवि की सच्चाई उतनी ही अधिक होगी. इस संदर्भ में रवींद्र कुमार दास की निरपेक्षता अभूतपूर्व किस्म की है.

दिनांक 16.9.2018 को 13,छज्जूबाग, पटना में बिहार के मूल निवासी रवींद्र कुमार दास का एकल काव्य पाठ हुआ और उसके बाद साहित्यकर्म के बारे में एक गम्भीर विमर्श हुआ. कार्यक्रम के संयोजक थे राजेश कमल  द्वारा पढ़ी गईं कविताएँ टेक्स्ट के अंत में दी गईं हैं. पहले प्रस्तुत है रवींद्र के दास के साथ हुए उच्चस्तरीय साहित्यिक विमर्श का ब्यौरा - 

मुसाफिर बैठा - आपने एक कविता में साढ़े चार साल की एक बेटी को माँ से कुछ सवाल करते दिखाया है जिस पर माँ काँप जाती है लेकिन बाप मुस्कुराता है. साढ़े चार साल ही बेटी की उम्र क्यों बताई?
रवींद्र के दास- चार साल के बाद बेटी को परिवार के सदस्यों के एक-दूसरे से व्यवहार का अर्थ समझ में आने लगता है इसलिए.

प्रत्यूष चन्द्र मिश्र - साहित्य को राजनीति का अनुसरण नहीं करना चाहिए बल्कि राजनीति को साहित्य के दिशानिर्देश का पालन करना चाहिए. इस पर आपका क्या कहना है?
रवींद्र के दास- निश्चित रूप से साहित्य में किसी दल के पक्ष अथवा विपक्ष में नहीं बात की जानी चाहिए. लेकिन हम विचारधारा की बात करते हैं. हम किसी दलगत राजनीति का नहीं विचारधारा के पक्ष अथवा विपक्ष में अपनी बातें रखते हैं.अगर हम किसी विचारधारा का समर्थन या विरोध करें ही नहीं तो फिर साहित्यकर्म का मतलब ही क्या है.

राजेश कमल - साहित्य में राजनीति की बात क्यों नहीं हो सकती है? बिलकुल हो सकती है.

युवराज सिंह (कक्षा-8)- आपने एक कविता मे आधुनिक औरत के तीन रूप दिखाए हैं लेकिन आपकी बात  हमरी शमझ के परे है. आप क्या कहना चाहते हैं?
रवींद्र कु दास- मैंने "कमाती हुई स्त्री" में यह बताया है कि आनेवाले दिनों में आइडल (प्रतिनिधि)  नारी कोई अतिसुंदरी नहीं कामकाजी महिला होगी.

कृष्ण समिद्ध- राजनीतिक दवाब कविता पर हमेशा से रहा है. अरस्तु और प्लेटो ने भी अपने दर्शनशास्त्र की पाबंदियों के द्वारा कविता के बाँधने की चेष्टा की. बड़े साहित्यकार को राजनीतिक उद्देश्य से आगे जाकर भी लिखना चाहिए क्या?
रवींद्र कु. दास-  कविता विचारधारा से नहीं, प्रत्युत संवेदना से संचालित होती है. और परिस्थितियों के बदलने से संवेदना बदलती है और इसलिए कविता बदलती है जिससे विचारधारा में संशोधन होता है. विचारधारा संवेदना का अनुसरण करे, न कि अपने पॉएटिकली करेक्ट करने के लिए कवि जबर्दस्ती विचारधारा का अनुसरण करे। शुरुआत से ही साहित्य ने. दर्शनशास्त्र या अन्य किसी विचारधारा के बंधन को कभी स्वीकार नहीं किया. 

कविता जिस चीज पर लिखी जा रही है उस चीज में कोई राजनीति नहीं होती लेकिन साहित्यकारों का अपना राजनीतिक उद्देश्य हो सकता है. वैसे भी साहित्य को समाज का दर्पण कहना पूरा सही नहीं है. वास्तविकता यह है कि साहित्यकारों की भूमिका दर्पण से कहीं आगे की है. उसे पथ-प्रदर्शन भी करना पड़ता है.ताकि साहित्य मात्र एक स्टिल फोटोग्राफी बनकर न रह जाय. कालिदास ने भी अपने जमाने में धम्रग्रंथों की कुछ बातों के विरुद्ध लिखा.

हर युग की आवश्यकता के अनुसार आदर्शों के प्रतिमान बदलते जाते हैं. आज से चालीस साल पहले जिसे हम अच्छा कहते थे आज हमारे समाज में जरूरी नहीं कि वह अच्छा माना जाय. और ऐसी दशा में साहित्य के पुराने प्रतिमानों से टकराने में विचारधारा नहीं बल्कि संवेदना मदद करेगी. 

कृष्ण समिद्ध - अभी हाल ही में 'पाखी' पत्रिका के सम्पादक और एक अतिप्रतिष्ठित रचनाकार में जो सौंदर्यबोध को लेकर जो तीखा विवाद हुआ उस पर क्या कहना है आपका?
रवींद्र के दास - (सीधा जवाब देने से टालते हुए) लोग बिना पूरा विचार किए और पूरे कथन को सही-सही समझे माथा फोड़ने की बात करने लगते हैं.  ऐसा मेरे साथ भी हो चुका है चूँकि मैं हमेशा धारा के विरुद्ध लिखनेवाला कवि हूँ. जिस तरफ लोग जाने से कतराते हैं मैं उस तरफ भी जाकर खुल कर लिखता हूँ. (घरेलु यौन हिंसा पर एक बेटी की आपबीती को बयाँ करती हुई अपनी कविता सुना  कर) यह कविता जब मैंने सुनाई तो कुछ लोग मुझ पर बहुत क्रुद्ध हो गए..

प्रशान्त - कविता क्यों लिखते हैं?  कविता के साथ उसकी व्याख्या देना कहाँ तक उचित है?
रवीन्द्र के दास - पहले सवाल का कोई सही जवाब नहीं  हो सकता. कविता में समझाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए. लेकिन कई बार कथ्यात्मकता को स्पष्ट करने के लिए कुछ टिप्पणी आवश्यक हो जाती है नहीं तो पढ़नेवाले को संदर्भ समझ में नहीं आएगा.

सुशील कुमार भारद्वाज - क्या वाकई में तुलसीदास नारी-विरोधी थे जैसा कि "ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी “ के आधार पर कुछ लोग कहते हैं. अगर वे सचमुच नारीविरोधी थे उन्होंने सीता और अन्य सारे नारी पात्रों के प्रति इतना आदर क्यों दिखाया है?
रवींद्र के दास - किसी महान कवि के एक-दो पंक्तियों को बिना संदर्भ को जाने उसके आधार पर मूल्यांकन कर देना गलत है. 

सुशील कुमार भारद्वाज- आपने कहा कि राजनीति और संवेदना दो बिलकुल अलग-अलग बातें हैं. लेकिन क्या ऐसा  नहीं है कि राजंतीति भी संवेदनशील हो सकती है और साहित्यिक संवेदना में भी राजनीति हो सकती है?
रवींद्र के दास - राजनीति और संवेदना वैसे तो बिलकुल अलग चीजें हैं बल्कि कई स्थानों पर वे एक-दूसरे के विपरीत भी हो जाते हैं लेकिन इन सब के बावजूद ऐसे दोनो में कुछ उभयनिष्ठ क्षेत्र भी दिख सक्ते हैं,  

एक प्रबुद्ध श्रोता- हिंदी साहित्य में आलोचना की सफलता या असफलता के बारे में आप क्या कहते हैं?
रवींद्र के दास - रचनाकर्म और आलोचना में पार्थक्य होना चाहिए. पहले नामवर सिंह, सुचीर पचौरी और रामविलास शर्मा ने गंभीर आलोचक के रूप में अपनी पहचान कायम की. आज कवि स्वयं आलोचना का कार्य कर रहे हैं.  नामवर सिंह ने आलोचना के वास्ते अपने कुछ मापदंड बना रखे थे उन्होंने सभी की व्याख्या उन्हीं  मापदण्डों के आधार पर की. 

हेमन्त दास 'हिम'- आज के समय के बारे में आप क्या कहते हैं?
रवींद्र के दास- आज के समय में 30-40 साल पुराने अपनाये गए तरीके काम नहीं आ सकते.  इसलिए विरोध के उन तरीकों का जैसे सड़क पर प्रदर्शन और धरना का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ता.  आज के समय को अभी लोगों द्वारा समझा जाना बचा है.  अभी साहित्य बाजार के स्वप्न में सोया है. समकालीन समस्याएँ अभी साहित्य में नहीं दिख रही हैं. पीड़ा बढ़ने से साहित्यिक विन्यास बदलेगा. अभी साहित्य में दूसरों के दुख को 'एंज्वाय' करने की प्रवृति है. 

कार्यक्रम में मधुबनी पेंटिंग की प्रसिद्ध कलाकार अलका दास, प्रवीण कुमार, बिपिन दत्त, सिद्धार्थ वल्लभ, अरुण प्रधान, अरुण शीतांश, संतोष सहर, संतोष झा आदि समेत कई लोग उपस्थित रहे।

प्रस्तुत है रवींद्र कुमार दास द्वारा पढ़ी गईं उनकी कुछ कविताएँ- 
.

कविता-1
 घर

सुनो, मैं पूछता हूँ एक प्रश्न
यदि निश्चित अर्थ होता है घर का
पनघट, हाट, रास्ता या अभिसार
क्यों नहीं होता है घर.
मैंने देखा, वे पखेरू नहीं थे न ही कोई जानवर
मैंने उसे हसते बोलते देखा
उस सड़क के किनारे पर
वे ऐसे ही आश्वस्त थे जैसे मैं घर आकर होता हूँ
क्या कोई घर होता है बिना मकान के
जब मैं घर कहता हूँ
तब तुम वही समझते हो, जो मैं कहता हूँ
वह देर रात तक सड़क किनारे की पुलिया पर बैठा रहा
उसे घर जाने से बचना था कुछ देर

लेकिन बचने की यह कोशिश
घर छोड़ने की कोशिश नहीं थी
और यह पुलिया 'हाँ और न' के बीच की कोई खाली जगह थी
उसे मैंने देखा
वह मुस्कुराया आश्वस्त सा
किसी सूरत वह बेघर नहीं था.

घर से बाहर जाना, बेघर होना नहीं था
घर एक अहसास
जो रहता है कदम दर कदम
कभी कभी पीठ पर लदा सा
कभी कभी सुकून के निश्चित विश्वास सा.

कुछ और लोग थे साइन-बोर्ड वाले
वे घर बेचते थे
बेचते थे मकान, पर घर कहते थे

उनके पास कई मकान होते थे
लेकिन वे भी घर जाते थे
वे अपने दुकानों से घर जाने की जल्दी में रहते थे
दुकानों या मकानों को वे अपना घर नहीं कहते थे
चतुर थे, बेईमान थे
लेकिन वे भी घर जाते थे

सबके घर के रास्ते में मंदिर होता है
मन्दिर घर नहीं होता
मंदिर को मकान या दुकान भी नहीं कहा जाता
बहुत सी बातों की तरह
यह भी,
जो कहा नहीं जाता था, वह था
मन्दिर पर कुछ भिखारी थे
उनका मकान नहीं था, पर वे शाम को घर जाते थे
उनसे उनके घर का पता नहीं पूछता था कोई
कोई उसे भीख नहीं देता

और कुछ लोग देते थे भीख
हो सकता है, भीख देने वाला अपने को श्रेष्ठ समझता हो
श्रेष्ठ समझने के पीछे
घर का अहसास होता है कई बार

मेरी माँ के पास
घर के अहसास के अलावा और कुछ नहीं था
हालाँकि हर दो चार महीने बाद
बदल जाता था
उसके रहने का स्थान
पर घर का विश्वास नहीं बदलता था कभी
निश्चिन्त रहती थी वह हर जगह
अपने घर के विश्वास के साथ.
 ....

कविता-2
 विज्ञापन

विज्ञापन से बड़ा
न कोई समाचार था
न ही विज्ञापन से बड़ा
कोई सच
सम्पादक वे बड़े थे
जिनके अख़बार के विज्ञापन बड़े थे
जिन अखबारों को कम विज्ञापन मिलते है
वे निंदा करते व्यवस्था की
और जब बढ़ने लगता निंदा का प्रभाव
उन्हें मिलने लगते
जनकल्याण के सरकारी विज्ञापन
और सरकार हो जाती जन-हितकारी
रातो रात.
....

 कविता-
हम किसी दो चार लोगों की खोज में हैं

हम किसी ऐसे दो चार लोगों की खोज में हैं
जिन पर अपने समय की सारी जिम्मेवारियां थोप दी जाए
तमाम अपराध, अनीति और अव्यवस्थाओं की
इस फ़िक्र में बढती रहती है बेचैनी
और इस बेचैनी के बोझ तले हम
अपने भाइयों, पड़ोसियों, हमजोलियों को गाली देते रहते हैं

और जैसे कोई
सरकारी, राजनीतिक, धार्मिक या व्यापारिक व्यक्ति चढ़ता है
हमारे हत्थे
करने लगते है उसीका मटिया मेट
कि जैसे ये नहीं होता
तो संसार में, देश और समाज में कोई बुराई न होती
बिलकुल न होता कुछ भी गलत

बस ये न होता तो
इसी तरह हम भूखे भेड़ियों की तरह बाट जोहते थे
ऐसे मौकों की
जब हम अपने अन्दर की अगिन-कुल्ली उस छोड़ें
दरअसल हम कुछ वैसे लोगों की तलाश में थे
जिनपर तमाम जिम्मेदारियाँ डाल कर
हम खुद को सभी जिम्मेदारियों से मुक्त करना चाहते थे.

.....
  
कविता-4
विरोध और मनोरंजन

विरोध करें या न करें
और विरोध की बातें जरूर करें
सो विरोध की बातें होती रहीं,
और सत्ता खेलती रही
अपने गंधर्व नगर की आंख मिचौली
कभी खेल खेल में,
कभी नाक में दम होने पर

और जब खेल शुरु होता उनका
हम विरोधी कुनबे के लोग
पसर जाते सुस्ताने को
सुस्ताना जरूरी होता है
फिर से काम पर जुटने के लिए
पर प्रिय होता है सुस्ताना
सत्ता ने हमारी इस प्रीति का सच
जान लिया और उसी ने
बहुत कम दरों पर ठीया लगवाया
सुस्ताने के लिए

हम विरोधी लोग
वहां जाने लगे, सिर्फ़ सुस्ताने
वहां सुस्ताना, गप्पें लगाना, विरोध की बातें करना

हमें भाने लगा
वहां बार बार जाना हमें भाने लगा
पर अपनी जीवन्तता की लाज रखने को
हमने जारी रखी विरोध की बातें
हमारी बातें सुनने को इकट्ठे होने लगे लोग
इन्हें भी लगती दिलचस्प विरोध की बातें
धीरे धीरे बदलने लगीं
विरोध की बातें

विरोध की बातें
कब बन गई मनोरंजन की बाते, पता न चला
अब जो कोई विरोध की बातें करता
लोग उसे मनोरंजन की नज़र से देखते
और इसका पूरा पूरा लुत्फ़ उठाते
हम विरोधी कुनबे के लोग
आज भी करते हैं मनोरंजन की शक्ल में
विरोध की बातें.
...

कविता-5
मैं जब भी दोपहर को उस रास्ते गुजरता हूं

मैं जब भी दोपहर को उस रास्ते गुजरता हूं
हर बार, बाज़ार के मुहाने की
उस छायादर पेड के नीचे की टिपरिया पान की दुकान पर
रुक जाया करता हूं
सिगरेट के लिए, जहां कुछ पगुराए विश्राम की मुद्रा में
अपने रिक्शों पर
सवारी वाली सीटों पर
बैठे होते हैं कुछ रिक्शावाले
उनमें से एक बांचता होता है आज का कोई हिन्दी समाचार पत्र
मैं उसे देखता हूं

और इस सवाल को सुलझाता हुआ
चल पडता हूं
इसे कैसे समझूं -
हमारे देश का रिक्शापुलर भी अब अखबार पढता है
या अखबार पढने वाला आदमी भी रिक्शा चलाता है?
......

 कविता-6
माँ को कभी सीरियसली लिया ही नहीं

माँ को कभी सीरियसली लिया ही नहीं
माँ ... माँ है.... और क्या !
कभी ध्यान गया ही नहीं
कि माँ भी एक अदद शख्सियत है
कितनी बार झल्लाया
कितनी बार सताया
कितनी बार रुलाया .....

नहीं है इसका कोई हिसाब
बाबू से हमने यही सिखा
कि माँ को डांटने से पहले सोचना नहीं पड़ता
यह भी ख्याल नहीं आया
कि माँ को भी दर्द होता होगा
दुखता होगा उसका भी मन
दरअसल ... माँ का अपना कोई मन है ...
ख्याल ही नहीं आया

ऐसा भी नहीं था कि माँ से पिटा नहीं मैं ...
पर ... वह पिटाई हरबार यूँ ही - सा लगता
माँ का क्रोध ...
कभी क्रोध जैसा लगा ही नहीं
और आज जब उग आया हूँ परदेसी जमीन पर
जहाँ सब कुछ जुटाना पड़ता है जुगत भिडाकर
चाहे हवा ... चाहे पानी ... चाहे प्यार ... चाहे नींद...

आज भी गुस्सा ही आता है माँ पर
कि साथ क्यों नहीं है मेरे
कम से कम उसके सीले आँचल में सुकून तो मिलता
माँ .... तुम्हारा स्पर्श ,
कहाँ से पाऊं ....
कहाँ से लाऊं इस बाजार बन गये शहर में
तुम्हारा आँचल ....
और आँचल की सुरक्षा ...
जो बचा लेती थी बाबू के भयानक कोप से.
.....


कविता-7
कितना बेबस होना है पिता होना

समय का साथ छोड़ चुके
अपने पिता को
याद करता हूँ
अपने समय से लिथड़ा मैं
कि कैसे हम उन्हें सर्वशक्तिमान की नजरों से देखते रहे थे

उम्र भर,
जबकि आज मैं कालबिद्ध हो,
करता हूँ महसूस
जो उम्र के बढ़ने से बढ़ता ही जाता है
घनत्व बेबसी का भी...
जो करना होत है मुकाबला अचानक आई विपत्तियों का
बिना जताए अपनी साँसों को भी

कितना त्रासद
और विडम्बना से लबालब होता है
समय
जो आपके आश्रित समझते हैं सुपरमैन
आपको
और आप होते हैं बेबस और बेसहारा....
क्षमा कर दें पिता !

हमारी नासमझ और सपनीली मासूम आँखों ने
नहीं देखी वह साँसत
जिसे दबाए रखा हिम्मत की ओट में....
आज तो समझ ही सकता हूँ
जो बढती उम्र का पहाड़
पैदा करती है, कई कई नदियाँ बेबसी की
और मिला देती है आखिर तक
मौत के महासमुद्र में...
जीते जी पिता के
नहीं समझ पाया जो
आज तर्पण करते हुए कर रहा हूँ महसूस
कि कितना बेबस होना है पिता होना!
....


कविता-8
पेड़ कटने के बाद

पेड़ कटने के बाद
कुछ था जो रह गया था
ठेकेदार को
यहाँ सुन्दर महल बनाने का काम मिला था
उसे पेड़ से नहीं थी कोई जाती दुश्मनी
महल बनेगा
तो यह हरा भरा पेड़ कैसे रहेगा

ठेकेदार ने कामगारों से कहा
पेड़ तो काट ही देना
और नीचे भी कर देना सफाई
आनन फानन में कट गया पेड़
कुछ गहराई तक जड़ भी खोदी गई
बना आलीशान बंगला
बंगले में रहते थे कुछ मनुष्य
सभ्य सुसंस्कृत सलीकेदार
आस पास के लोगों के लिए आदर्श
कि काश ऐसा जीवन सबको नसीब हो
उन मनुष्यों में एक बच्चा भी था
जिसे अकसर सुनाई देती थी रुलाई
आकर बताता अपनी माँ से
माँ धरती रोती है
ऐसे रोती है जैसे उसका गला काट रहा हो कोई
सुनकर हँसती रहती माँ
संजीदगी से समझाती - ऐसा मत बोलो
जो सुनेगा मजाक बनाएगा
पापा भी गुस्सा करेंगे
लेकिन रुकी नहीं क्रंदन की वो आवाज़

पेड़ के कट जाने पर भी कुछ था
जो रह गया था
कहीं धरती के नहीं
वही रो रोकर पुकार रहा था
जिसे सिर्फ नौनिहाल सुन पा रहा था

कुछ दिनों की बात है
बच्चा बड़ा होगा जरूर होगा
सभ्यता को जाना है अभी बहुत आगे.
....
कविता-9
हमारे समय की नायिकाएं

तेज धूप है

 पसीने से लथपथ
संभली
सीधी नज़र
तेज
और सधी चाल

 हमारे समय की
नायिकाएं

काम पर जा रही है ..
कवि- रवींद्र कुमार दास
प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo.com






































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