स्त्री होना / होता है कविता होना
नारी कविता लिखे न लिखे कोई फर्क नहीं पड़ता वह अपनेआप में एक कविता होती है. उसकी डायरी के हर पन्ने में होते हैं असंख्य धब्बे - हल्दी के, तेल के, लौ के और आँसू के. बेहद ही बेतरतीब ढंग से उसमें जहाँ तहाँ लिखा होता है खुदरे पैसों का हिसाब और कुछ मोड़े-फटे पन्नों पर होते हैं सजीले गीतों की हड़बड़ाकर लिखी कुछ पंक्तियाँ पेंसिल की शिशुसुलभ क,ख,ग और अंकों की घिसी लिखावटों के द्वारा अतिक्रमित. नारी जीवन के सार को बड़ी ही संजीदगी से बयाँ करती हुई कवयित्री रानी श्रीवास्तव के भाव कुछ ऐसे ही थे. नारी चाहे जहाँ भी रहे-घर में या बाहर वह सृजनशील रहती है. हर प्रकार की नारियों को समेटे हुए और साथ में पुरुषों को भी शामिल किए लेख्य मंजूषा का अनूठा प्रयास चल रहा है रचनाकर्म का आत्मविश्वास सब में जगाने का चाहे वह घरेलु महिला हो, छात्रा हो या कामकाजी. सभमुच विभा रानी श्रीवास्तव की अध्यक्षता और सतीशराज पुष्करणा के संरंक्षण में चल रहा यह अभियान श्लाघ्य है.
एक इतिहास ही रच दिया गया जब हिंदी पखवारे के इस आयोजन में इतनी बड़ी संख्या में रचनाकारों ने पूरी गर्मजोशी से इसमें भाग लिया. इस गोष्ठी में उपस्थित दिग्गज कवियों की संख्या काफी ज्यादा थी और युवा कवि तो निश्चित रूप से उनसे भी बड़ी संख्या में थे. मंचासीन कवियों में ध्रुव गुप्त, रानी श्रीवास्तव, समीर परिमल, सतीशराज पुष्करणा आदि शामिल थे. अन्य उपस्थित वरिष्ठ कवियों में भगवती प्रसाद द्विवेदी, सतीश प्रसाद सिन्हा, संजय कुमार कुंदन, घनश्याम, रमेश कँवल समेत दर्जनों वरिष्ठ कवि और विशाल संख्या में युवा कवि उपस्थित थे. कुशल संचालन संजय कुमार संज कर रहे थे. आयोजकों में विभारानी श्रीवास्तव और नसीम अख्तर प्रमुख थे.
साहित्यिक संस्था ‘लेख्य-मंजूषा' के त्रिमासिक कार्यक्रम का आयोजन 16 सितंबर 2018 को आई. ई. आई. भवन, पटना में किया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि डॉ ध्रुव गुप्त, संजय कुंदन, डॉ मंगला रानी, समीर परिमल एवं संस्था की अध्यक्ष विभा रानी एवं संरक्षक सतीश राज पुष्करणा जी ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्वलित कर किया। इसके बाद संस्था की पत्रिका "साहित्यिक स्पंदन" नसीम अख्तर द्वारा संपादित का लोकार्पण भी किया गया।
‘हिंदी दिवस पखवाड़ा’ के तहत ‘समाज सौगात - सौ के जज्बात’ के अंतर्गत ‘सात सवाल - सात अतिथियों' से साहित्य विधा के बारे में संजय कुमार सिंह ने प्रथम सत्र में पूछा। यह अपनी तरह की एक नई पहल है जिसमें मंच पर एक साथ साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर सवाल और जवाब दिया गया।
कविताओं का दौर जब चला तो एक अजीब सी उमंग की लहर फैल गई युवा कवि-कवयित्रियों में. एक से बढ़ ए एक सार्थक, गम्भीर और मनोरंजक रचनाएँ पढी गईं जिनमें से अधिकांश का स्तर काफी उच्च था. हर एक रचना सार्थक और उद्देश्यपूर्ण थी. निश्चित रूप से यह एक विस्मयकारी क्षण था जिसमें दिग्गज और नए दोनो बिना किसी भेद-भाव के काव्य-कर्म में प्रजातंत्र का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सादर बुलाये जा रहे थे और पढ़ रहे थे और दिल से खूब दाद भी पा रहे थे. पूरे सभागार में वाहवाही से एक आनंदपूर्ण किंतु अनुशासित कोलाहल बना रहा जिससे कई ऐसे लोग भी कविता पढ़ पाए जिन्हें आज तक मंच पर आने का साहस नहीं हो पाया था. पढ़े गए कुछ अंश हम उद्धृत कर रहे हैं-
समीर परिमल-
मेरे अशआर देते हैं गवाही
कोई ग़म यार का पहलूनशीं है
डॉ.विजेता रानी-
मैंने कहा था / तोड़ दो उन बंधनों को / जो वक्त देखते हैं
भावनाओंं को दबा / उसे उल्टा व्यक्त करते हैं
सतीश प्रसाद सिन्हा-
नींव हिलने का इशारा देखिए / घर दरकने का नजारा देखिए
चुन लिए वो नाव जिसमें छेद था / ताकते अब वो किनारा देखिए
संजय कुमार संज-
मैं तन्हा हूं / असंख्य तारों के बीच
एक गुमशुदा टिमटिमाता सितारा
ईशानी सरकार-
ये शब्द के जो वाण हैं / अपमान के समान हैं
कभी पानी से थे ये शब्द / कभी पानी पानी कर दे ये शब्द
सीमा रानी-
जीवन के क्षेत्र में तुम्हें है कुछ करना
सीखो मेरे भाइयों लिखना और पढ़ना
नूतन सिन्हा-
साहित्य है वह कला
जो पथ पर सिखाता है / कि कौन बुरा है कौन भला
सुनील कुमार-
आँधियाँ नफरतों की अमन ले उड़े / फिर सियासत निभाने से क्या फायदा
जोड़ कर हमें धन जो सुकूँ न मिले / फिर करोड़ों कमाने से क्या फायदा
लता प्रासर-
सज-धज कर आई सब बहना / शान में उनके क्या कहना
मुझको बस सादा ही रहना / दौड़-भाग ही मेरा गहना
राजकान्ता-
जिन्दादिल रहिए जनाब / चेहरे पर उदासी कैसी
वक्त तो कह ही रहा है / उम्र की ऐसी की तैसी
विश्वमोहन-
डर भ्रम मात्र अवचेतन का / शासित संशय स्पंदन का
जीव जगत है क्षणभंगुर / फिर मरना क्या और जीवन क्या
शाईस्ता अंज़ुम-
अल्फाज़ साथ देंगे तो आवाज़ लगाउंगी
वरना खुद्दार मुसाफिर हूँ मैं / चलती चली जाउंगी
भगवती प्रसाद द्विवेदी-
बहुत रचे बाँके नयन विरह-मिलन-अहिवात / अब तो कविता में करें भूख-प्यास की बात
अपनी आवो-हवा में रच माटी के मीत / कविता को दो आवरण / कुछ अनछुए प्रतीक
मधुरेश नारायण-
जिंदगी फिर से मुस्कुराई है / जीने की फिर वजह जो पाई है
इस वीरान पड़े चमन में / एक कली जो खिल आई है
डॉ. पूनम देवा-
चारों ओर अबलाओं की / चीख और चीत्कार है
ऐ मानवता तेरी हैवानियत से / हम सब शर्मशार हैं
नेहा नारायण सिंह-
रक्षा सूत्र तैयार किया है मैंने
अपने भाई का श्रृंगार किया है
रितेश गौरव-
रात के तीसरे पहर भी मुझे / क्यूँ न नींद आई कुछ पता न चला
आँखों में तेरी तस्वीर बसती थी / पलक झपकाई फिर कुछ पता न चला
अजीत कुमार, बेगुसराय-
जाएँ तो जाएँ किधर मौला / अच्छा नहीं है तेरा शहर मौला
है कैसे दिया जाता फरेब / अता कर मुझे ऐसा हुनर मौला
भारती कुमारी-
नहीं रह पाती दोस्ती / मिट्टी खाने से लेकर
मिट्टी में मिल जाने तक / क्या रह पाती है दोस्ती
एकता कुमारी-
साँसों का रुकना तय है तो / साँसों को लेते क्यों हैं
अल्फाज़ अगर बुरे हैं तो / अल्फाज़ होते क्यों हैं
निक़हत आरा-
दो कदम साथ चल के दिखा फिर जरा / मेरी जानिब कदम को बढ़ा फिर जरा
हर किसी से जरूरी नहीं दोस्ती / दिल की सुन मुझे आजमा फिर जरा
मिनक्षी सिंह-
मत कोसो तुम अकेलेपन को / न मनोरोग की दशा कहो
बनो आशावादी / स्वीकार करो इस पल को
डॉ. संगीता कुमारी-
काँटे ही मिलते हैं पहले / बाद में खुशबू, फूल भी
हाथ मलते रह जाओगे / इस उम्र में जो भूल की
अनमोल सवरण, सीतामढ़ी-
वो खुदरंग टिका रहता है अपनी खुद्दारी पर
हल पल मुसलसल रहता है अपनी मगरूरी पर
मृणाल आशुतोष-
जब भी गुजरता हूँ / रेलवे स्टेशन से / या बस स्टैंड से
भिखारियों को देख / भवें तन जातीं हैं
अमृतेश मिश्रा-
बुरी नजर मेरा क्या खाक कुछ बिगाड़ेगी
माँ के हाथ से टीका लगा के निकलते हैं
राणा वीरेंद्र सिंह, जहानाबाद-
इन्सानियत की भीड़ है इन्सान नहीं है / कोई इक नाम बता दो जो बदनाम नहीं है
ऐ पंडित जी, ऐ मुल्ला जी जरा ये बताइये / कहाँ पे अल्लाह नहीं है, कहाँ राम नहीं है
सुबोध सिन्हा-
तमाम उम्र मैं हैरान, परेशान, हल्कान सा तो कभी लहूलुहान बना रहा
मानो मुसलमानों के हाथ में गीता, हिन्दुओं के हाथ में कुरान बना रहा
रानी कुमारी-
वह मुझे रोज देखता है / मैं भी देखती हूँ उसे रोज
गर मैं मुस्कुरती / वह भी मुस्कुरा देता
अज्ञात-
लगता है उसने अपना घर बदल लिया / पर ये खत अब भी उसे मिलते होंगे
इस विश्वास में जीता हूँ तो जीने दो
दीपक कुमार पाण्डेय-
उजाले गुम हैं अब तक चाँद की फरमाइशों में
रहा बाकी अंधेरों का अभी तक कारवाँ है
योगेन्द्र पंकज-
मेरे आँगन की थी शान कभी / कहीं गुम सी हो गई है वो अभी
वैसे तो बहुत हैं यहाँ अभी / पर उसकी ही कमी लगे हर कहीं
ज़ीनत शेख-
दिलों में रखो न किना / मिलो फुरसत में लोगों से
न हो मगरूर ऐ बंदे / बहुत कम ज़िंदगानी है
अनोखी सिन्हा-
कैसे हाथ करेंगे पीले / यदि अभाव हो घर में धन का
धन वर दोनों ठीक चाहिए / प्रश्न समूचे हैं जीवन का
निशान्त निरंकुश-
यह कलयुग का घोर अंधेरा
कैसे हमें डराता है
विपुल कुमार-
बढ़ा जुल्म द्वापर में / कृष्णवध करने तूने कृष्ण जना था
हुआ अह्म जब रावण को तो / धर्म स्थापना हेतु त्रेता में तूने राम जना था
प्रसव की पीड़ा और एक तू सह ले
अमित कुमार-
जाग उठी है नारी / नई सदी का हुआ सवेरा
बीत गई अंधियारी / जाग उठी है नारी
डॉ. मंगला रानी-
धरा धाम में हाथ थाम कर जो रहते थे खाली होंगे
हिलमिल कर जो तार दिलों के जोड़े थे वो ठिठके होंगे
संजय कुमार सिंह-
साँझ सुरमई सिंदूरी सी / झील में चंदा गोरी गोरी सी
अम्बर देख पपीहा बोले / आस मिलन की थोड़ी थोड़ी सी
विभूति कुमार-
फूँकोगे कितने और घर / आतंक के सौदागरों
क्या होता है घर का बसाना / एक घर बसा के देखो
संजीव कुमार-
भगवान मुझे तुमसे शिकायत है / पर ये न समझना
कि तुम्हारे सामने मत्था टेकने नहीं जाउंगा
प्रियांशु शेखर-
मेरे अधिकार तो छीन लिए तुमने
मेरे जैसा हुनर कहाँ से लाओगे
डॉ. एम. के. मधु-
तुम समन्दर की झाग सी फैल गई
मैं गोल गोल घूम रहा मन के मझधार पर
घनश्याम-
हिन्दी हिन्दुस्तान की, भाषा सरल सुबोध
फिर क्यों इसकी राह में है इतना अवरोध
प्रभात कुमार धवन-
तब भी कम नहीं रोई थी माँ
जब बेटे ने उसको / धक्के मार निकाला था
विश्वनाथ शर्मा-
सुनकर ससुर जी ने कहा नहीं बहू बेलन / चाँदी का नहीं सॉलिड सोने का लाना था
और अपनी सास की खोपड़ी के पहले / ससुर जी की खोपड़ी पर आजमाना था
शमा क़ौसर 'शमा'-
कल तलक थे इस जहाँ में गाज़ी-ए-गुफ्तार भी
हो रहे हैं आज हम रुसवा, ज़लील ओ ख़ार भी
रानी श्रीवास्तव-
कहीं बीच में दबा पड़ा था गुलाब था सूखा फूल / किसी पृष्ठ पर थी लौ की कुछ लकीरें
डायरी के पन्नों में विस्तरित था / मेरा पूरा वजूद / स्त्री होना / होता है कविता होना
ध्रुव गुप्त-
ऐसा होता कि मैं साठ का न होकर इक्कीस का होता
चाय के बहाने / छू लेता तुम्हारी उंगलियाँ
हेमन्त दास 'हिम'-
काश कोई समझा पाता हमें / कि हवाएँ यूँ ही नहीं बहतीं
और हम आदमी हैं आदमी / हवाओं का खिलौना नहीं
सिद्धेश्वर-
एक लिबास क्या उतरा / औरत के जिस्म से
धर्म, कानून, समाज सब नंगे हो गए
रेशमा प्रसाद -
मासूम लड़कियों पर हो रहे अत्याचार पर एक रचना
कुन्दन आनन्द -
सृष्टि के विष-वृष्टि में जिसने जितना विषपान किया
उसको सृष्टि में सृष्टि ने उतना अमृत दान किया
नीतू सुदीप्ति 'नित्या'-
फेसबुक पर प्यार की बतियाँ / ईमेल है मशीनी चिट्ठियाँ / व्हाट्सएप्प जगाए सारी रतियाँ
ट्विटर पर लगाकर नमक मिर्च / ब्लॉग है अपने कहने की दास्ताँ/ यूट्यूब पर नए नए मेहमान
विकाश राज-
हर उदासी ऊब को पल भर में कम कर जाएगा / मस्खरा है दिल मगर आँखें भी नम कर जाएगा
मेरे हँसने से अगर महफिल में रौनक आएगी / सोच मेरा रोना भी कैसा सितम कर जाएगा
सरिता रानी-
तरस रहे खेतिहर हलवाले / झाड़ दुपट्टा, झाड़ दे आँचल / भर दे अन्न-धन से उनको
हो जा तू सयानी / न कर अपनी मनमानी
डॉ. कल्याणी कुसुम सिंह-
जो जूठे फल खाती उसे ही जा खिलाया करो
यह प्यार है झूठा, तुम भी झूठे, मुझे तरसाया ना करो
प्रेमलता सिंह-
लेखक जन का अभिमान है हिन्दी
हिन्दी है अमृत वाणी / लगती है हम सब को प्यारी
कार्यक्रम के अंत में सीमा रानी ने आए हुए वरिष्ठ और युवा कवि-कवयित्रियों एवं श्रोताओं के प्रति अपना आभार व्यक्त किया. कार्यक्रम में आए सभी मुख्य अतिथियों को संस्था की तरफ से एक स्मृति चिन्ह एवं संस्था की पत्रिका देकर सम्मानित किया गया। सभी रचनाकारों को एक सहभागिता प्रमाण पत्र भी दिया गया।फिर अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की गई.
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आलेख- हेमन्त दास 'हिम' / संजय कुमार संज
संजय कु. संज का मोबाइल नं:- 9835845544
छायाचित्र- सिद्धेश्वर / लता प्रासर
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