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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Sunday, 30 September 2018

जनशब्द द्वारा टेक्नो हेराल्ड, पटना में प्रभात सरसिज के कविता-संग्रह 'गजव्याघ्र' का लोकार्पण और कवि गोष्ठी 29.9.2018 को सम्पन्न

समय से बाहर जाकर औरतें गीत गा रहीं हैं - आततायियों के प्राण को कंपाती हुई




कविता की उपज करुणा से हुई है. किन्तु यह करुणा अशक्तों के हृदय की करुणा नहीं है. यह एक गांडीवधारी की करुणा है. यह करुणा जब वृहत समाज के तरफ अपना रुख करती है तो विशाल मानव समुदाय के दु:ख से उद्वेलित होकर क्रोध में परिणत हो जाती है. यह क्रोध होता है अन्याय के खिलाफ, छ्दमधर्मिता के खिलाफ.और धोखाधड़ी के खिलाफ. ऐसे क्रोध की अभिव्यक्ति के लिए बड़े शास्त्रीय काव्य-संस्कारों से ज्यादा संकल्प की जरूरत होती है. वह संकल्प जो अडिग रहे अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की सुरक्षा और गरिमा के लिए.  

दिनांक 29.9.2018 को साहित्यिक संस्था 'जनशब्द' के द्वारा पटना जंक्शन के समीप बुद्ध पार्क के सामने महाराजा कॉम्प्लेक्स के टेक्नो हेराल्ड में वरिष्ठ कवि प्रभात सरसिज के दूसरे कविता-संग्रह 'गजव्याघ्र' का  लोकार्पण हुआ जिसमें विशाल बड़ी संख्या में साहित्यकारगण उपस्थित थे.  पहले सत्र में लोकार्पण हुआ और दूसरे सत्र में कवि-गोष्ठी. पहले सत्र की अध्यक्षता बिहार विधान परिषद के सदस्य और वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामवचन राय ने  और संचालन राजकिशोर राजन ने किया. दूसरे सत्र की अध्यक्षता श्रीराम तिवारी और संचालन वासवी झा ने किया.  स्वागत भाषण शहंशाह आलम ने और धन्यवाद ज्ञापन धनंजय कुमार सिन्हा ने किया. पूरे कार्यक्रम के संयोजन में शहंशाह आलम की भूमिका प्रमुख रही. 

श्रीराम तिवारी का विश्लेषण साहित्यिक विद्वता से परिपूर्ण था. उन्होंने कहा कि अभिधा की शक्ति का उपयोग जनशब्द बखूबी करता है. प्रभात सरसिज ने भी अपने काव्य संग्रह में अभिधा को चुना है यानी कोई अभिव्यंजना नहीं बल्कि सीधे-सपाट तरीके से अपनी बातों को कहना. लोकपरिताप हरण करने के लिए उत्पन्न हो रहे शब्द कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त हुए हैं. यथार्थ के शब्द की कवि सीधे प्रतिष्ठा करता है. गजव्याघ्र चाह रहा है योग, अध्यात्म, परम्परा. मानव जीवन में आई अपूर्णता की काट है यह काव्य संग्रह. साथ ही यह सत्ता और व्यवस्था के काल्पनिक भय से मुक्त भी करता है.

अता आब्दी ने 'गजव्याघ्र' की कविताओं को दर्द ओ महसूस करानेवाली कविताएँ बताया. यह किताब पढ़नेवालों के दर्द को अपने दर्द में शामिल करनेवाली कविताओं का संग्रह है.

राणा प्रताप ने कहा कि ये कविताएँ वर्तमान से जोड़तीं हैं. मानव केंद्रित कविताएँ ही हमारे देश का मूल स्वर रहा है किन्तु आज की कविताएँ उनसे इतर रास्ते पर चलने लगी है. यह बेचैनी पूरे संकलल्न में दिखती है. आज के संकटपूर्ण दौर में कवि ने अपनी सजगता बनाए रखी है. उन्होंने लोकार्पित पुस्तक की "गीत गाती औरतें" शीर्षक कविता का अंश सुनाया-
इन अवसाद भरे दिनों में भी / औरतें गीत गा रहींं हैं -
आततायियों के प्राण को कंपाती हुई

सत्र के संचालक राजकिशोर राजन संचालन करने के दौरान अपनी माकूल टिप्पणी देते रहे. उन्होंने कहा कि कविता का समय के साथ चलना अनिवार्यता है. समय इतनी तेजी से बदल रहा है कि जो कवि सार्वकालिक कविता लिखने की कोशिश करेगा वह निरर्थक होकर रह जाएगा. समय के साथ आदमी को खुद भी बदलना होगा और कविता को भी. इस दिशा में प्रभात सरसिज के पहले कविता-संग्रह 'लोकराग' से वर्तमान संग्रह ' गजव्याघ्र' में काफी परिवर्तन नजर आता है. कवि ने अपने आप को तोड़ा है- भाषा, शिल्प और संदेश के स्तर पर. 

लोकार्पित पुस्तक के रचनाकार प्रभात सरसिज ने अपनी रचना-प्रक्रिया पर कुछ बोलने में कठिनाई महसूस की. किन्तु कहा कि साहित्यिक युग का निर्धारण केवल काव्य से ही हुआ है अत: उन्होंने कविता को चुना. हम कविता नहीं कर रहे हैं बल्कि युग का निर्माण कर रहे हैं. अगर समय को कविता में आबद्ध नहीं किया तो कवि जीवन बेकार हो गया. यह अभिधा का दौर है व्यंजना का नहीं. अमरत्व की कल्पना करते हुए कविता नहीं करनी चाहिए.

अंत में लोकार्पण सत्र के अध्यक्ष डॉ. रामवचन राय ने कहा कि कवि शिवचंद्र शर्मा 'अद्भुत' की शब्दक्रीड़ा और "लाल धुआँ" का बेलौसपन दोनो पाता हूँ.  एक प्रसिद्ध कवि का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि मैं भाषा ठीक करने के पहले मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ. देवताओं ने मनुष्य को बनाया कि नहीं यह तो मालूम नहीं लेकिन इतना तय है कि मनुष्य ने देवताओं का निर्माण किया है. मनुष्य इन दिनों कमतर मनुष्य में तब्दील होता जा रहा है. जब तक मनुष्य की गरिमा स्थापित नहीं होगी तब तक कवि का धर्म पूरा नहीं होगा. हर मनुष्य अपने भीतर एक कवि होता है. पारिवारिक माहौल, सामाजिक संस्कार और शैक्षनिक योगयता के कारण उनमें से कुछ बाहरी दुनिया तक अपनी कविता को पहुँचा पाते हैं. प्रभात सरसिज ने अपनी पहली पुस्तक की तरह इसमें भी कोई भूमिका नहीं लिखी है. अर्थात उनकी कविताओं का गृहप्रवेश हर तरफ से खुला है. जो जिधर से चाहे प्रवेश करे और रसोईघर में अवस्थित गृहस्वामिनी अर्थात कविता के मौलिक सौंदर्य का अवलोकन करे. 

द्वितीय सत्र अर्थात कवि गोष्ठी का संचालन कवयित्री वासवी झा ने किया. अध्यक्षता श्रीराम तिवारी ने की.

सबसे पहले अभिषेक सिन्हा ने लोकार्पित कविता संग्रह 'गजब्याघ्र' से उसकी शीर्षक कविता को सुनाते हुए आज के गजव्याघ्र के मुख्य शगल से जनता को अवगत कराया-
अब यह वहाँ वहाँ जाहिर होता है जहाँ
आबादी का राग होता है
असंख्य भयभीत चेहरों को देखते रहना ही
शगल है इसका"

ज्योति स्पर्श यूँ तो प्रेमी की फ्रेंच भाषा नहीं समझ पातीं लेकिन उसके मौन से संचरित प्रेम को पढ़ने में उस्ताद हैं-
वो फ्रेंच बोलता है / मुझे फ्रेंच नहीं आती
मैं हिन्दी बोलती हूँ / उसे हिन्दी नहीं आती
फिर हमने प्रेम बीजा / और अब हम घंटों सुनते हैं / मौन की भाषा.

अमीर हमज़ा अपनी ज़िंदगी के झंड हो जाने का राज खोला-
पराया धन खुद  का फंड हो गया / पैसा आते ही घमंड हो गया
तक़ब्बुर जो किया मालो-असबाब पर / वक्त बदलते ही जीवन झंड हो गया

संजय कुमार कुंदन ने जब से झूठ न बोलने की सोची तब से उनका सच से फासला बढ़ता ही गया-
मैंने सोचा था के मैं झूठ न बोलूँगा कभी / फ़ासला सच से मगर कितना बना रक्खा है
मोरचे पे लड़ी 'कुन्दन' ने कहाँ कोई जंग / वैसे क्या ज़ीस्त में लड़ने के सिवा रक्खा है

संजीव कुमार श्रीवास्तव एक ऐसे जीवट इंसान हैं हालातों से उपजे पशोपेश को अपनी पेशानी से पोछने में देर नहीं करते-
मुक्तिबोध की उन पंक्तियों के बीच / खुद को टिकाये रखने की जद्दो-जहद में
आज भी हूँ / हालातों से उपजे पशोपेश को अपनी पेशानी से पोछ्ते हुए

अविनाश अम्न के ख्वाब में महबूबा रोज आतीं हैं लेकिन इन्हें बुलाती ही नहीं कभी-
ख्वाब में वो रोज आते हैं मगर / एक दिन वो बुलाएँ तो सही
फूँकने का हुनर भी खूब है / खुद से इक घर बनाएँ तो सही

एम. के .मधू वो शख्स हैं जो हाथी बनकर चलनेवालों की अंकुसी रखते हैं-
तुम हाथी से चलने लगे थे / मस्त चाल में चलते रहे थे
भूमंडल को रौंदते हुए / पर महावत की अंकुसी भी हमारी थी

कृष्ण समिद्ध ने खुद के आदमी से उपनिवेश में तब्दील हो जाने से इनकार कर दिया-
मैं आदमी हूँ उपनिवेश नहीं / मैं मरना चाहता हूँ अपनी मौत
जैसे परपौत्र के साथ दौड़ रहा हूँ / और मर जाऊँ

श्रीराम तिवारी ने कविता के चूल्हे से डरनेवालों के खिलाफ हुंकार भरी-
वे / मुक्तिबोध की बीड़ी / से डरे हुए हैं
वे मनुष्य होने / के शिल्प से डर गए हैं
वे कविता के चूल्हे से डर गए हैं

अस्मुरारी नन्दन मिश्र ने धोकड़ियों (जेब) के बहाने बहुत कुछ कह डला-
और कुछ ही दिनों में धोकड़ियों की हुई इतनी मांग
कि कमीज़ और पैंट की ही नहीं
घर, परिवार, समाज, देश सब की धोकड़ियां होने लगीं

अता आब्दी सर कटा लेने पर भी हारने को तैयार नहीं थे लेकिन उन्हें दूसरे तरीके से हराया गया-
मैं देख नहीं सकता कुछ बोल नहीं सकता / गिरवी है मेरी आँखें लब हार गया भाई
सर अपना कटा लेता झुकता ना अता लेकिन / जब तुमने कहा अपना तब हार गया भाई

डॉ. विजय प्रकाश का राजतिलक होना था लेकिन उन्हें उसी दिन वनवास मिल गया-
मन रे मत हो अधिक उदास 
सर्प समय टेढ़ा ही चलता / गिरगिट रह रह रंग बदलता
राजतिलक जिस दिन होना हो / मिलता है वनवास

विभूति कुमार ने प्रभात सरसिज की लोकार्पित पुस्तक 'गजव्याघ्र' से एक कविता 'लतियल' का पाठ किया-
कवि बाश्शा के निर्मम हो जाने की 
मुनादी करते हुए शब्दों का ढोल पीटते हैं
ढोल की थाप सुन बाश्शा कंपित होते रहते हैं

जिवेश नारायण वर्मा ने देशभक्ति से ओतप्रोत एक कविता का पाठ कर सबमें देशप्रेम का अलख जगाया-
हे राजनेताओं तुम्हें क्या हो गया / स्वार्थरूपी साँप सूँघ गया?
या फिर सत्तालोभ का नाग डँस गया?
सैनिकों को दीन-हीन बनाकर / ईँट पत्थरों से पिटवाते हो?

वासवी झा ने  कुत्ते के बहाने दीन हीन समझेजाने वाले वर्ग के कर्तव्य को समझा डाला-
जैसे ही होगी तुम्हारी गति में होगी संदेहास्पद परिवर्तन
मैं सरपट दौड़ पड़ूंगा झुंड में भौंकते हुए
मेरे मालिक! / स्वामिभक्ति और खदेड़ना हमें अच्छी तरह आता है

हेमन्त दास 'हिम' मदमस्त करती हुई हवाओं में कुछ देर बहते ही पूरी तरह से संभल गए-
काश कोई समझा पाता हमें / कि हवाएँ यूँ ही नहीं बहतीं
और हम आदमी हैं आदमी / हवाओं का खिलौना नहीं

शहंशाह आलम का परियों का इंतजार एक त्रासदी बन कर रह गया-
मैं मुंतज़िर था / कि परियाँ आएंगीं / लेकिन मेरा इंतजार, इंतजार ही रहा 
सदियों से / इन बेजान बेहिस बुतों के बीच रहने की 
यह मेरी नहीं देवताओं की त्रासदी थी.

अंत में टेक्नो हेराल्ड के प्रबंधक धनंजय कुमार सिन्हा ने आए हुए सभी कवि-कवयित्रियों के प्रति अपना आभार प्रकट किया और तत्पश्चात अध्यक्ष की अनुमति से सभा की समाप्ति हुई.
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आलेख- हेमन्त दास 'हिम' / विभूति कुमार
छायाचित्र- अमीर हमज़ा
ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo.com