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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Tuesday, 30 May 2017

नीरज सिंह का कविता-संग्रह 'मधुमती' (Niraj Singh's collection of Hindi poems "Madhumati')

यौवन, मादकता और प्रेम का उत्तुंग ज्वार
The Tide of Youthfulness, Inebriation and Love
(English version is presented below the Hindi text)


         नीरज सिंह की यह पहली काव्यकृति पूरी तरह से 'बच्चन' की 'मधुशाला' के रंग में डूबी हुई लगती है. यद्यपि मधु का वितरण करनेवाली मधुमती के प्रति इनकी मंत्रमुग्धता उजागर है तथापि यह पुस्तक मात्र वहीं तक सीमित नहीं बल्कि जीवन के विभिन्न आयामों को रूपायित करती दिखती है. नीरज जी का संस्कृतनिष्ठ भाषा के प्रति आग्रह प्रबल है. दो खण्डों में बँटी इस पुस्तक के पहले खण्ड में मधुशाला की तर्ज पर ढालने का प्रयत्न किया गया है जिसके शीर्षक हैं  - परिणय, स्वप्न, महफ़िल, भक्ति, जीवन-नियति, मैं चलती फिरती मधुशाला और समर्पण. दूसरे खंड में भी श्रृंगार रस ही प्रमुख है. पुस्तक की विशिष्टता है श्रृंगार का अतिरेक और उसमें यदा-कदा दर्शन की संश्लिष्टता. भाषागत अशुद्धता को दूर करने की आवश्यकता है. पुस्तक में मीना का प्रयोग मधुबाला के अर्थ में बारम्बार प्रयुक्त हुआ लगता है जबकि उसका सही अर्थ है मदिरा-पात्र, सुखद आश्चर्य यह है कई स्थान पर यह प्रयोग भी सही लगता है.  यौवन, मादकता और प्रेयसी के प्रेम में आकंठ डूबी यह कृति नवयुवकों को अधिक आकर्षित कर सकती है, ऐसा मेरा अनुमान है. अंजुमन प्रकाशन, इलाहबाद से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य रु. 200/= है. 

पुस्तक की कुछ पंक्तियाँ देखने लायक हैं-

मेरा है जिस ठौर ठिकाना / वहां जुड़ेंगे टूटे दिल 
 यकीं न कर मेरी बातों पर / खुद आकर देखो महफ़िल (पृ.29)

चाँद गगन का डटा रहे / न सूरज कभी उदय हो
महफ़िल मेरी सदा रहेगी / चाहे लाख प्रलय हो (पृ.32)

समय चढ़ा तो नशा घटेगा / मैं करता इनकार नहीं 
पर ये तो जीवन-नियति है / मेरी महफ़िल की हार नहीं (पृ.81)

मैंने हाथों का हार दिया और कहा अभी लो ये माला 
मैं मृतिका मृत-पात्र नहीं, मैं चलती फिरती मधुशाला (पृ.82)

कभी प्रणय, कभी परिवर्तन,मैं दो विषयों पे बोल रहा
सृजन और संहार तटों पर बारी-बारी डोल रहा (पृ.93)

यूँ ही जलन कुछ कम नहीं दिल के तपन की
फिर भला क्यों विष-बुझे ये वाण छोड़े (पृ.103)
............................
       This first poem-book of Niraj Singh seems to be completely immersed in the color of 'Bachchan's 'Madhushala'. Although his spellbinding is exposed for Madhumati, the distributor of love and rapture, this book is not limited to just the same. It, rather actually seeks to assimilation of oneself in different dimensions of life. Insistence of Neeraj on Sanskrit words is prominent. The first section of this book is divided into two sections, in the first section of the book, the different chapter of which are - the result, the dream, the concert, the devotion, the life-destiny, I the moving pub and surrender. In the second section again, romance is the main theme. The uniqueness of the book is the plenty of love feelings and their synthesis with philosophy hither and thither. There is a need to overcome language impurity. 'Meena' has been used repeatedly in the meaning of bartender girl in the book, while it's true meaning is jar of wine. A pleasant surprise is that this experimentation in usage seems right at a number of places. My guess is that this penned down high tide of youthfulness, inebriation and love can attract more young people. The price of this book, published by Anjuman Publications, Allahabad, is Rs. 200 / =

Some lines of book are worthy to see-

 I stay on the spot where all broken hearts meet
 Don't listen to me, come to concert, have a seat (p.29)

The moon should stand in sky / And for rising, Sun may not have hopes
This musical meet will last forever / Let happen lacs of  catastrophes (p. 32)

As the time passes the inebriation subsides / I do abide
But this is the life-destiny / not the defeat of my pride (p.81)

I gave up my necklace and said now take the garland
I'm not a dead person, I am a moving pub, grand(p.88)

Sometimes love and sometimes change, I am speaking on two topics
I am swinging between Creation and destruction playing aerobics (p.93)

There is already not less heartburn, Oh! pity!
Then why did you shot arrows of toxicity (p.103)



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