“रौशनियों से घर-बाहर रौशन चिराग
है”
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद, पटना के तत्वावधान में दिनांक 21.5.2017 को राजेंद्रनगर टर्मिनल, बिहार रेलवे स्टेशन के रामवृक्ष बेनीपुरी हिन्दी पुस्तकालय में एक कवि-गोष्ठी आयोजित हुई जिसमें अनेक गणमान्य कवियों ने भाग लिया. भाग लेनेवाले कवियों में भगवती प्रसाद द्विवेदी, सिद्धेश्वर प्रसाद, शरद रंजन शरद, श्रीकान्त ब्यास, हेमन्त 'हिम' तथा कवयित्री लता प्राशर प्रमुख थीं.
"मुक्त फलक' मासिक पत्रिका के सम्पादक श्रीकान्त ब्यास ने अपनी कुछ गज़लें पढीं जिनके कुछ शेर थे-
"प्रीत पा पाथर भी मोम-सा गलने लगे
इंद्रधनुष देख मुर्दे भी मचलने लगे
दुनिया में अजीब दिवानगी तो देखिये
दिलवर की खातिर अब खंजर चलने लगे"
सिद्धेश्वर प्रसाद राष्ट्रीय स्तर की शीर्ष पत्रिकाओं में अपने कलाचित्रों के माध्यम से दशकों से छाये हुए हैं. 'अवसर प्रकाशन' के माध्यम से सक्रिय रहते हुए ये अच्छे कवि भी हैं. इनकी कविताओं की कुछ चुनिदा पंक्तियाँ निम्न हैं-
"रत्ती भर भी
नहीं हो पाता कम
पाप का दंश
आखिरी साँस तक" तक"(1)
पकड़ो, पकड़ो
भागी कविता!
कलम की नोक से
कोई
हथिया न ले उसको" (2)
सभा में उपस्थित एक मात्र कवयित्री लता प्राशर ने भी देश और समाज पर अपनी कविताओं का पाठ किया. एक कविता 'राजनीति का व्याकरण' के अंश निम्नवत थे-
"संज्ञा संग करें नेताजी
देते सब को ज्ञान
कहीं जाति की बात करें तो
कहीं व्यक्ति प्रधान"
कवयित्री ने एक व्यंगात्मक कविता पढ़ी जिस में मुहावरों का प्रयोग करते हुए करारे व्यंग्य किये गए थे. कुछ को देखिये-
"नाच न जाने आँगन टेढ़ा
देश-विदेश में मेरा बसेरा
अपना हाथ जगन्नाथ
बाकी दुनिया रहे अनाथ"
कवि हेमन्त 'हिम' ने संवेदना के रंग को और गहराते हुए एक गज़ल पढ़ी जिसकी एक झलक प्रस्तुत है-
"पत्थर बन के देख लो मैं हूँ कितने चैन से
तुम भी अपनी भावनाएँ यूँ ही थमीं रहने दो
उड़ने से अब डर मुझे है, रख लो मेरा आसमाँ
खड़े रहने के लिए बस थोड़ी जमीं रहने दो"
फिर श्रोताओं की फरमाईश पर 'हिम' ने एक मुक्तछन्द कविता भी पढ़ी जिसका शीर्षक था 'अन्तरिम'. इसकी अन्तिम पंक्तियों में आम जन के आधुनिक जीवन-दर्शन को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा-
"सच!
क्या तुम्हें नहीं लगता
कि
पूरी की पूरी जिन्दगी ही
एक अन्तरिम व्यवस्था है?"
प्रसिद्ध गज़लगो और कवि शरद रंजन शरद ने अपनी कुछ प्रभावकारी गज़लें सुनाईं जिनकी बानगी देखिये-
"वक्त उनको और भी ऊँचा उठा
मुझको है अपनी जगह से देखना
एक बच्चे की तरह से देखना
ज़िन्दगी को इस वजह से देखना"
आगे चल कर शरद रंजन ने मुक्तछन्द कविताएँ सुनाईं जिन में से एक थी 'खबर खेल'. उसकी अन्तिम पंक्तियाँ थीं-
"जैसे पूछ रहा मुझसे
इतने बरस अभ्यास के बाद
क्या खेल सकते
इस तरह खबर से?"
भगवती प्रसाद द्विवेदी ने अध्यक्षीय जिम्मेवारी का निर्वाह करते हुए सभी कवियों द्वारा किये गए कविता-पाठ पर अपनी संक्षिप्त टिपण्णी की और अंत में अपनी कविताएँ पढीं. उच्च और निम्न आर्थिक वर्गों के बीच की खाई को उजागर करनेवाली एक कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं-
"नभ को छूती ऊंचाई के
स्वामी आप रहे हैं
देश और दुनिया से बड़े
सुनामी आप रहे हैं
अंधियारी में रोशनियों के
मोती बोते जन हैं
हम तो छोटे जन हैं."
श्री द्विवेदी की एक और प्रभावकारी कविता का टुकड़ा कुछ यूँ था-
"दियासलाई
की एक तीली
आग-आग है
रौशनियों से
घर-बाहर
रौशन चिराग है"
इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कथाकार और कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी ने की. सिद्धेश्वर प्रसाद द्वारा संचालित इस सभा के समापन पर धन्यवाद ज्ञापन हेमन्त 'हिम' ने किया.
अपने सुझाव ई-मेल से भेजें: hemantdas_2001@yahoo.com
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