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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Sunday 13 October 2019

पचीसी (मिथिला का पारम्परिक खेल) / कंचन कंठ

कोजागरा यानी शारदीय पूर्णिमा के अवसर पर विशेष लेख

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आज कोजगरा, यानी शारदीय पूर्णिमा है। ये मिथिला क्षेत्र में बड़ी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला पर्व है। खासतौर पर नवविवाहित लड़कों के ससुराल से तरह-तरह की मिठाईयां, मखाना, खेल के सामान, परिवार के पुरुषों के लिए वस्त्र आते थे पर अब तो महिलाओं को भी शामिल किया जाता है। उनके लिए भी वस्त्र आदि भेजे जाते हैं। 

दूल्हे को पारंपरिक वेशभूषा में तैयार करवाकर, अरिपन से सुसज्जित आंगन में "सिरागू" (पूजाघर) से लाकर दाई-माई गीतनाद के साथ लाकर उसका चुमान करती हैं, पिता, चाचा, बाबा आदि दुर्वाक्षत से दीर्घायु और यशस्वी होने का आशीष देते हैं। मखाने की खीर बनाकर रात को चांद के सामने रखते हैं। मान्यता है कि इस दिन पूर्णिमा के चांद से अमृतवर्षा होती है जो खीर में मिल जाती है और इसे सभी को बांटा जाता है।

इसके बाद कोहबर में लाकर सबके साथ 'पचीसी' खेलने की प्रथा है। 'पचीसी' यानी वही कुख्यात "द्यूतक्रीड़ा",जो महाभारत की एक प्रमुख घटना है। पर यहां दांव पर पति-पत्नी का आपस में वर्चस्व और प्रेम ही होता है। इस दिन पान, मखान, मधुर खाने की और पचीसी खेलने की प्रथा है।और इसके बाद पचीसी फिर अगले साल कोजगरा से कुछ दिन पहले से कोजगरा तक खेली जाएगी। आज के बाद फिर यह वर्जित है।

बचपन में हमने अपने घर में पचीसी खूब खेला है। दशहरे के आसपास से यह खेल शुरू हो जाता है। तो दिन के खाने के बाद रोज पचीसी का रेखाचित्र बनाते थे, जो काफी कुछ लूडो के बड़े भाई जैसा होता था, फिर चार रंगों की चार-चार गोटियां और नौ कौड़ियां और खेलने के लिए चार जन होने चाहिए। पर हमलोग दो-दो जन एक पाले में बैठते थे जनसंख्या अधिक थी भई, और सबको तो खेलना होता था।

कई सारे फकरे (कहावतें) होती थीं, जैसे  घरों की गिनती एक-दो-तीन नहीं, उसके लिए एक फकरा होता था "औंक, मौंक, जौंक, जीरा, जौं बजार खौं खीरा।" फिर नौ कौड़ियों से खेला जाता था तो जब सारी कौड़ियां चित्त होती तो "बारह"आया तो फिर एक फकरा "बारह सर्बहि हारह, गोंधियां हीलडोल"- कहकर उसके गोधिंयां यानि पार्टनर को जोर से झकझोरकर रख देते थे। 

सारी कौड़ियां पट्ट तो 'चौबीस' आना होता था। इनमें गोटियां नहीं 'पबहारि' यानी 'निकलना' नहीं होती थीं। एक कौड़ी चित्त और बाकी पट्ट तो 'पचीस' आता था,जिसमें चारों गोटियां 'पबहारि' होती थीं, एकसाथ। इसका उल्टा होने पर "दस"आता था और एक गोटी 'पबहारि' होती थीं। हरेक खिलाड़ी को चार मौके मिलतेे थे खेलने के, दस या पचीस आनेे पर एक मौका और मिलता था।  गोटियां निकलती नहीं 'पबहारि' होती थीं और लाल होने से पहले नंबर पर अटकने पर गोटियों को 'पबन्नी' लगती थीं तो दूसरे पक्ष वाले उसकी चाल के समय "नरकी पबन्नी" चिढ़ाते थे जो "दस या पचीस" आने से छुटती थीं।

अक्सर मैं पापा के संग ही खेलती थी। नूतन दी को पचीस और दस काफी आता था तो उसका गोधियां बनना जीत की गारंटी होती थी। छोटी-मोटी बेइमानी भी हो जाती थी कभी कभी तो खूब नोंकझोंक होती थी। बड़ा मज़ा आता था। एक दिन तो इतना हल्ला मचाया हमने कि पड़ोसी चिंतातुर होकर देखने चले आए कि क्या चल क्या रहा इनके घर में! 

पर, अब तो "नहि ओ नगरी, नहि ओ ठाम"।
............

आलेख - कंचन कंठ
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com

कंचन कंठ






5 comments:

  1. बहुत प्यारी यादें।🌹👍

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    1. सचमुच. टिप्पणी हेतु धन्यवाद.

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    2. यदि blogger.com पर गूगल पासवर्ड से login करके यहाँ कमेंट करेंगे तो उसमें दिया गया प्रोफाइल पिक और नाम यहाँ दिखेंगे.

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  2. मिथिला की विशेषता है समसामयिक प्राकृतिक वस्तुओं से त्योहार मनाना

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