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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Monday 11 November 2019

भाई-बहन के स्नेह का पर्व - सामा-चकेवा

सामा-चकेबा - मिथिला का लोकप्रिय त्यौहार
 टेढ़ी नाक, भैंगी आंखें, बदसूरत मोटे होंठ वाले चुगला को दिखाकर हास-परिहास कि तेरा दुल्हा ऐसा ही होगा!

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"सामा खेलय गेलियै रे सचिन भैया, चकेबा लय गेल चोर",
कौने भैया लौता आलरि-झालरि कौने भैया लौता पटोर, 
गे माई कौने भैया लौता झिलमिल केंचुआ, कौने भैया कामी सिंदूर",
"सामा जाईछै सासुर; किछु गहना चाही गै पिहुली" 

सब भाई बहनों को "सामा चकेबा" की बधाई! छठ की समाप्ति के साथ ये सारे गीत कानों में गुंजायमान होने लगते थे‌। कितना पवित्र रिश्ता है ये भाई-बहन का जिसे हमारे लोक पर्वों ने इतनी सहजता से समेटा हुआ है, पूरे दुलार और उत्साह के संग!

उपयोगिता तो देखिए कि आपस में प्रेम बढ़े और जो ताना-बाना है, समाज का उसमें बचपन से ही ढल जाए।आज न तो समय है, न समझ इन चीजों की। जो बातों-ही-बातों में हमें कई चीजों से परिचित करा दे,  उन रिवाजों के लिए समय कहां! अब हम बच्चों को तरह-तरह के कैम्प में भेजते हैं, विभिन्न प्रकर के कौशल (स्किल) सीखने के लिए, हजारों खर्च करके।

छठ के पारण के दिन घाट से मिट्टी लाकर उसमें चिकनी मिट्टी और जूट के महीन टुकड़े कर के हम खुद से सामा- चकेबा, कचबचिया, घेंचटेढ़ी, सतभईयां, वृंदावन, चुगला और भी कई सारी मुर्तियां, मोर, तोता, हाथी आदि कई चीजें बनाते थे। ध्यान रखा जाता था कि मुंह के हिस्से में जूट नहीं साना (मिलाया) जाएगा, वो सिर्फ चिकनी मिट्टी का बनेगा, वरना सफाई नहीं आएगी। और ये सब हम अपनी मांओं, दीदियों, चाचियों के संग हंसते-खेलते बनाते थे।

ये थे हमारे "पारम्परिक विंटर कैम्प", "जिसमें हर्र लगे ना फिटकरी, रंग चोखा आए जी"- चरितार्थ होता था! कुल जमा दस दिन के अंदर- अंदर सब बना कर ,पेंटकर सुंदर मुखड़ा और वेशभूषा में सजाते थे। दिन में सामा बनाना और रात में उसके गीत गाना:-जिसमें भाई-बहन के दुलार, आयुष्य का वरदान और भाई और बहन के प्रति आशा और गर्व परिलक्षित होते थे।मुर्तियों को  डाला-चंगेरा में रात में बाहर ले जाकर ओस चटाया जाता, फिर रास्ते में बटगबनी गाते और वापस आने पर गृहस्वामिनी द्वारा परिजन होता था।

अंतिम दिन कार्तिक पूर्णिमा को सबको पहले पिठार(चावल को भिगोकर, पीसकर लेप)से ढौरा जाता, फिर सुखने के बाद उन्हें मनचाहे रंगों से रंगकर सजाया जाता।सामा के भांति-भांति के जुड़े और कपड़ों की छींट डाली जाती, तो चकेबा के मुकुट की शान निराली होती थी।सतभईयां जो सप्तर्षि के प्रतीक थे, उन्हें बस आउटलाइन्स दिये जाते कि उनकी सात्विकता बनी रहे।घेंचटेढ़ी के संग संवेदना जुड़ जाती कि उसकी तरह किसी को भाई की इतनी प्रतीक्षा ना करनी पड़े, मुसीबतों में, कि गर्दन टेढ़ी हो जाए। सबसे ज्यादा भड़ास चुगला पर निकलता;क्योंकि सामा चकेबा के विछोह; वृंदावन में आग लगाने और मायके से दूरी का कारण उसी की चुगली तो थी। तो उसे खूब काले रंग में रंग कर टेढ़ी नाक, भैंगी आंखें, बदसूरत मोटे मोटे होंठ और बालों को जूट से बनाया जाता, जिसे अंत में आग लगाकर सजा दी जाती और यह सब करते हुए आपस में हास-परिहास की देखना तेरा दूल्हा ऐसा ही होगा!

हमारे पर्व त्यौहारों में जो सुंदर सा संदेश होता है; "असत्य पर सत्य की विजय का"- वह इसमें भी निहित है। जहां सामा-चकेबा प्रेम के, सप्तर्षि शुचिता के, भाई प्रेम और विश्वास के प्रतीक हैं, वहीं चुगला सावधान करता है, दोस्त के रूप में आए दुश्मन से।यह पर्व यह भी बताता है कि समाज में सभी तरह के लोगों का समावेश होता है और किसी के बहकावे में आकर अपना सुख-चैन बिगाड़ना नहीं चाहिए। 

पर हमारे इन पर्वों की एक वर्जना समझ नहीं आती कि अंतिम दिन घेंचटेढ़ी को रास्ते पर छोड़ो,वह भाई का रास्ता देख रही है,सामा चकेबा को भाई लोग खेत या नदी में विसर्जित करेंगे,अन्य मुर्तियों को तोड़ दिया जाएगा-कुछ भी वापस नहीं लाओ। फिर न तो उसके गीत गाओ न ही बनाओ, अब फिर से अगले साल का इंतजार करो! यह भी कोई बात है, इतने प्रेम, लगाव और मेहनत से बनाया और सजाया- अब यूं ही भूल जाओ सब कुछ! पर इस तरह हमें संसार की नश्वरता का भी पाठ पढ़ा दिया गया; हंसते-खेलते जो निश्चय ही मिथिला की मनस्विता को दर्शाता है।

कई घरों में ये पर्व होता है, कई घरों में नहीं,तो ससुराल में ना होने के कारण मैं इससे दूर चली गई।
.......
आलेख - कंचन कंठ
चित्र - चंदना दत्त
लेखिका का ईमेल - kanchank1092@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com




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