"अपनी तहज़ीब बचाने के लिए / आंख का पानी बचाए रखिये"
सी आर डी के पटना पुस्तक मेला के आम सभागार में, "बज़्मे-हफी़ज बनारसी" (पटना) के तत्वावधान में, आयोजित मुशायरा के मुख्य अतिथि जनाब इम्तियाज अहमद करीमी ने कहा कि - हिंदी हो या उर्दू, दोनों भाषाओं की रचनाएं एक बराबर है। दोनों में एक अभिव्यक्ति है। मोबाइल युग में साहित्य के प्रति यह लगाव हमें सुकून देती है। मेले में लोग सुनने के लिए बेताब हैं, भीड़ है, जो इस बात का सबूत है कि कविता - गजल जिंदा है और साहित्य के प्रति अभी भी लोगो का लगाव है। संस्था के अध्यक्ष रमेश कंवल भी मंच पर मौजूद थे।
जबकि हकीकत में, देखने को यह मिला कि, मंच पर एक ऐसे बुजुर्ग कवि (नाम जानबूझकर नहीं दे रहा हूं, वर्ना वे न जाने क्या कर बैठे कुर्सी को हथियाए बैठे थे। वे एक घंटे तक विषयांतर बोलते हुए, कवि गोष्ठी को तमाशा बनाने पर तुले हुए थे। बहुत खींचा- तानी के बाद उन्हें मंच से उतारा गया। अब आप खुद सोचिये कि साहित्यिक मंच पर ऐसा तमाशा देखकर, मेला के आम दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
दूसरी तरफ विशिष्ट अतिथि शंकर प्रसाद ने कहा कि - "साहित्यकारों में आत्ममुग्धता की स्थिति नहीं आनी चाहिए। न ही अपने को महान साहित्यकार समझना चाहिए। जो मेरे सामने खुद को महान और विशिष्ट होना बघारता है, उसे मैं अपनी जूती के बराबर भी नहीं समझता।"
दूसरी तरफ उन्होंने खुद अपनी पीठ थपथपाते हुए, लगभग आधे घंटे तक अपनी प्रशंसा आप करते हुए जरा भी थकान महसूस नहीं की। वे इसी बात को दोहराते रहें कि किस प्रकार उन्होंने नए कवियों को आकाश तक पहुंचाया। अब एक पुस्तक के लोकार्पण पर, लोकार्पित पुस्तक की चर्चा कम और अपनी चर्चा अधिक हो, तो इसे आप क्या कहेंगे? आज साहित्य का महौल इस तरह ही बिगड़ता जा रहा है।
ऐसे बिगड़े हुए महौल के कारण ही,कवि गोष्ठी सह मुशायरा शाम छः के बजाए सात बजे आरंभ हुआ और मेला के समापन का समय था आठ बजे। कवियों की स्थिति यह थी कि मेले में कविता सुनाने के आकर्षण में मुजफ्फरपुर, हाजीपुर जैसे दूर दराज के नए और पुराने कवियों शायरों की ऐसी भीड़ लग गई कि श्रोताओं के लिए रखी गई कुर्सियों पर कवि ही कवि नजर आ रहे थे। सुनील कुमार जैसे चर्चित शायर को भी कुर्सियों के भर जाने के कारण खड़ा ही पाया।
मेला देखने आए हुए दस- बीस श्रोतागण जरुर नजर आए, लेकिन, आधे घंटे (कवयित्रियों की गजल सुनने के पश्चात) चलते भी नजर आएं। बच गए, पचास से अधिक कवि-शायर, जिनके भीतर यह बेचैनी थी कि उनकी बारी कब आएगी, मंच पर खड़े होकर कविता या गजल पेश करने की? या आठ बजते- बजते मेला के साथ साथ, कवि गोष्ठी सह मुशायरा में अचानक ब्रेक लग जाने के कारण, इतनी दूर से मेले में आना बर्बाद तो न हो जाएगा?
बेचारा संयोजक या संचालक क्या करें ? किसे नहीं बुलाकर दुश्मनी मोल ले। सो उन्होंने खुला मंच बना दिया। लेकिन, वे इतने भी बेवकूफ़ नहीं ठहरे जनाब। जिन्हें मंच पर जगह देनी थी, उन्हें लिस्ट में सबसे ऊपर नाम रख दिया गया। अब गुटबाजी कहां नहीं चलती है भाई?इन मंचों पर संचालक महोदय , देवता अथवा खुदा की भूमिका में होते हैं। न जाने वे कब किस पर मेहरबान हो जाएं? जो चालाक कवि होते हैं, वे संचालक को अपने वश में रखते हैं।
साठ साल का बुढ्ढा हो गया मैं, लेकिन एक यही तरकीब नहीं सीख सका मैं। इसलिए मैं निश्चिंत था कि मेरी बारी तो निश्चित नहीं आएगी। हलाकि इस समारोह की यह खासियत तो अवश्य मानी जानी चाहिए कि नए तो नए, एक से बढ़कर एक पुराने कवि -शायर भी पूरी उम्मीद लगाए बैठे थे कि उन्हें अवश्य मौका मिलेगा। मेरी नजर दूर- दूर तक जिन्हें पहचान रही थी उनमें संजय कुंदन, समीर परिमल, प्रेम किरण, आराधना प्रसाद, शमां कौसर, वीणाश्री हेम्ब्रम, घनश्याम, आर पी घायल, जनाब औरंगाबादी, नसीम अख्तर, पूनम श्रेयसी आदि कई लोग थे। झूठ क्यों बोलूं भाई? आमंत्रित कवियों की उस भीड़ में एक मैं भी था।
मेरे विचार से, आयोजक या संयोजक को चाहिए कि पहले कवियों से रचनाएं आमंत्रित कर, श्रेष्ठता के आधार पर उतने ही कवियों को आमंत्रित करें, जितने को सम्मान पूर्वक मंच दे सकते हों। लेकिन पहले किसे मंच पर बुलाए किसे अंत में?
यदि कवियों को वर्णात्मक अक्षर के नाम पर वरीयता दी जाए तो विवाद से बचा जा सकता है। या फिर कवियों के नामों की पर्ची एक बाक्स में डालकर, लाॅटरी की तरह कवियों को आमंत्रित किया जाए। सारा विवाद ही खत्म। लेकिन, फिर गुटबाजों का क्या होगा?
खैर, कुछ उपस्थिति कवियों का विचार जानना चाहा तो एक ने कहा - " सभी कवि मंच पर घुसने की घुसपैठ कर रहे हैं। क्योंकि सभी को दो घंटे में समेट पाना संभव है भी नहीं।"
नजामत की जनाब शकील सहसरामी ने। गजल को गजल की तरह कहने वाली आराधना प्रसाद के प्रार्थना गीत" वीणा वादनी वर दे "और अरुण कुमार आर्या की गजल से मुशायरा का आरंभ हुआ।
आराधना प्रसाद ने शेर सुनाया कि
" रौशनी ऐसी हुई की तम गया" तथा "
"हम खाक छानते रहे, वो मिल न सका। "
नसर आलम नसर ने अपने नए अंदाज में कहा-
"चला गया है बहुत दूर प्यार का मौसम
कैसे खिलेगा कोई गुल तुम्हारे आंगन में
खिंजा में ढूंढते हो बहार का मौसम।"
कवि घनश्याम की जबरदस्त अदायगी रही -
"जुल्म अब तो सहा नहीं जाता /बोलिए इंकलाब कब होगा?"
और
"तेरी आंखों की नादानी न होती, मुझे इतनी परेशानी न होती।
तुम्हारे हौंसले ठंडे न होते मुझे फिर आग सुलगानी न होती.।"
मुजफ्फरपुर से पधारी कवयित्री आरती कुमारी की गजल ने वाह-वाह कहने को मजबूर कर दिया -
"होंठों पे मेरे आपकी आई कोई गजल / शर्मा रही हूं तो लीजिए ई कोई गजल!?
"दर्द सीने में दबाए रखिये / फूल चेहरे पे खिलाए रखिये।
अपनी तहज़ीब बचाने के लिए / आंख का पानी बचाए रखिये। "
अर्चना त्रिपाठी की कविता थी-
"अवाम को मयस्सर नहीं दो वक्त की रोटी
/फस्ल लहलहाई दुश्मनी की हिंदुस्तान में।
जबकि शंकर शंकर प्रसाद ने पूरी रवानगी में पेश किया -
"शुक्रिया तेरा कि तेरे आने से रौनक तो बढी
वर्ना ये बज्म की रात अधूरी रहती।"
चर्चित शायर सुनील कुमार ने कहा -
"नज़र का इंतिखाब तुम / हसीन लाजवाब तुम ।"
कवयित्री पूनम सिंहा श्रेयसी की अदायगी भी खूब रही-
"अंहकार जब होम हुआ / पत्थर - पत्थर मोम हुआ।
बाहर-भीतर जब सम हो / सत्य समर्पित होता है
शून्य के ज्ञान सिन्धु में / पूर्ण अवस्थित होता है
सागर के उस पार पहुँच / तृप्त अब रोम- रोम हुआ।"
कवि पंकज कुमार की कविता भी खूब रही-
"मैं तो निर्जीव हूँ / मुझे तुम जबरन हांकते हो!"
कुमारी स्मृति ने एक नज्म पढ़ी -
"पत्थर हैं, खाये यहाँ।"
युवा शायर चैतन्य चंदन की रचना भी खूब पसंद की गई-
"सुर्ख़ आँखों में फ़साना दर्द का!/ज़िंदगी है इक तराना दर्द का
हमने जाना लुट के तेरे इश्क़ में / है मुहब्बत इक ठिकाना दर्द का।"
कि इंसानियत की सदी भेज दे / ये लफ़्ज़ों का सागर मचलने लगा,
कि "कुमकुम' को बहती नदी भेज दे।"
युवा शायर समीर परिमल ने पटना में आई बाढ़ विभीषिका पर एक जीवंत गजल प्रस्तुत किया -
" जो न करना था कर गया पानी / देखो हद से गुज़र गया पानी
जब जगह मिल सकी न आँखों में / हर गली घर में भर गया पानी!!"
इसके अतिरिक्त भी कुमार रजत, चंदन त्रिवेदी, सुधीर कुमार, उत्कर्ष, कुंदन आनंद, वीणाश्री हेम्ब्रम सहित कुछ कवियों की शानदार प्रस्तुति रही और कई कवियों को निराश लौटना भी पड़ा। नसीब भी कोई चीज होती है जनाब!
रपट के लेखक - सिद्धेश्वर
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