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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Monday 16 September 2019

स्टेशन राजभाषा कार्यान्वयन समिति, राजेन्द्र नगर टर्मिनल द्वारा पटना में 14.9.2019 को आयोजित हिन्दी काव्योत्सव सम्पन्न

निहार सकूं अपने हिस्से का आकाश
"सरकार को चाहिए कि पूरी कर्मठता से यह घोषित कर दे कि भारत देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है"

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"सरकार को चाहिए कि पूरी कर्मठता से यह घोषित कर दे कि भारत देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है!

हिन्दी का दायरा, घट नहीं रहा, बल्कि बढ़ रहा है। जीवन और व्यावसाय के विभिन्न क्षेत्रों में, हिन्दी को प्राथमिकता देना चाहिए। 

स्टेशन राजभाषा कार्यान्वयन समिति, राजेन्द्र नगर टर्मिनल द्वारा आयोजित हिन्दी काव्योत्सव पर मंडल रेल राजभाषा अधिकारी राजमणि मिश्र ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने बताया कि" हिन्दी भाषी लोग हिन्दी की उपेक्षा कर रहे हैं जिस कमजोरी का फायदा सरकार उठाती आ  रही है।" उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से हिंदी के संबंध में कहा- 
"भाषा बहता नीर हमारी हिन्दी है 
 तहजीबी तासीर हमारी हिन्दी है।" 

रेलवे कोचिंग काम्प्लेक्स में आयोजित कवि सम्मेलन के पहले  समारोह के विशिष्ट अतिथि, वरिष्ठ साहित्यकार सिद्धेश्वर ने हिन्दी पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि - "सिर्फ हिन्दी दिवस या हिन्दी पखवाड़ा मनाकर हम हिन्दी की कैसी भलाई कर रहै हैं कि हिन्दी आज भी राजभाषा का सिंहासन पाने के लिए सरकार और देशवासियों के सामने गिड़गिड़ाने की स्थिति में है! सरकार की इच्छा शक्ति के अभाव में  हिन्दी आज भी अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है और  अंग्रेजी की दासी बनी हुई है, जो एक आजाद देश के लिए खतरनाक स्थिति है। सरकार अगर चाहे तो देश की भाषाई सिंहासन पर से अंग्रेजी को हटाकर, हिन्दी को बैठा दे और रातों रात विश्व भर में ऐलान कर दे कि "भारत देश की  राष्ट्रभाषा' हिन्दी 'है"।

समिति के सचिव मो. नसीम अख्तर के  सशक्त संचालन में हिन्दी काव्योत्सव का आरंभ करते हुए,कहा-
"यहां फूल दामन पर खिला कहां है 
जहां देखिए, खिंजा ही खिंजा हैं 
बगावत-अदावत नफरत है हर सू
मुहब्बत का दुश्मन जालिम जहां है!"

यशस्वी शायर घनश्याम ने विशुद्ध हिन्दी गजल कही - 
"हर भाषा का हम करें, यथायोग्य सम्मान 
लेकिन हिन्दी से बने, भारत की पहचान!" 
और 
"वक्त देता है  जब दगा बिल्कुल 
टूट जाती है फिर वफा बिल्कुल!" 

वरिष्ठ शायर रमेश कंवल ने कहा-
*दूर कीजिए अधूरापन मेरा 
आज भर दीजिए, ये मन मेरा! " 

शायर सुनील कुमार ने कहा कि
"दुश्मनों को निढाल रखते हैं 
दोस्ती की मिसाल रखते हैं! "

 इसी तर्ज पर शमां कौसर शमां की गजल थी -
"सड़कों पे वो बहाने लगे हैं  मेरा लहू ऐ शमां
दहशतों में नहाई है जिंदगी!" 

हिन्दी के प्रति अपना उद्गार व्यक्त करते हुए सिद्धेश्वर ने काव्य प्रस्तुति दी -
"हिन्दी की यह दुर्दशा, अब देखी नहीं जाती 
सौतेली बनी हमारी भाषा, अब देखी नहीं जाती?" 

नई प्रतिभाएं भी, गीत - गजल लिखने या यों कहें अभ्यास करने में रुचि ले रही हैं। 
एक तरफ श्वेता मनी की रचना थी -
"वक्त उसी मोड़ पर लाया क्यों कर? 
जहां से चला, वहीं लौट कर आया क्यों कर?" 

तो दूसरी तरफ कुमारी स्मृति ने कहा-
"सौ रसों की एक रस है, तू रसों की खान हिन्दी! 
देवभूमि भारतवर्ष में, कब नहीं महान हिन्दी!?" 

अपने सुरीले स्वर में, गीतकार मधुरेश नारायण ने गीत गाए-
"चलो मिट्टी, पानी की ओर चलें 
कुछ अपनी जिद्द भी छोड़ चलें !"

सविता मिश्र माधवी ने हिंदी के प्रति अपनी उद्गार इस  प्रकार व्यक्त की -
" बूद-बूंद घट भरै, शब्द -शब्द से भाषा 
आगे बढ़ाने के लिए हिंदी है समृद्धि की भाषा!" 

वरिष्ठ साहित्यकार अरुण शाद्वल ने स्त्री विमर्श पर एक लम्बी समकालीन कविता का पाठ किया - 
"नहीं चाहिए मुझे, तुम्हारी पूजा और वो सारे आडंबर/
मैं नहीं बनना चाहती पूज्या / मैं तो बस इतनी चाहती हूं /
कि खड़ी हो सकूं तुम्हारे / कंधे से कंधा मिलाकर /
निहार सकूं अपने हिस्से का आकाश!" 

इसके बाद युवा कवि संजय कुमार संज ने अपने दार्शनिक अंदाज में यूँ काव्य पाठ किया-
"कुछ नहीं होता अमर है / शरीर भी तो होता नश्वर है
परन्तु जब तक ये भुवन है / कुछ चीजें रहती हैं जिंदा!"

इनके अतिरिक्त हिन्दी और जिंदगी से संदर्भित की कविताएं गीत और गजलों ने  महफ़िल को यादगार जश्न में बदल दिया, जिनमें प्रमुख हैं - विश्वनाथ वर्मा, सुबोध कुमार सिन्हा, लता प्रासर, प्रभास कुमार प्रभास, गुड्डू आलम आदि। 

हिन्दी काव्योत्सव का समापन रामवृक्ष बेनीपुरी हिंदी पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष अमितेश कुमार के धन्यावाद ज्ञापन से हुआ।

हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा, हिन्दी माह और फिर,,, ? सारा तमाशा खत्म.? सालों भर हिन्दी को यह मान-सम्मान क्यों नहीं.? सबकुछ सही से गुजर जाने के बाद  भी, क्या यही एक सवाल मन को अशांत नहीं कर देता?
........

प्रस्तुति - सिद्धेश्वर 
छायाचित्र -  सिद्धेश्वर /नसीम अख्तर /सुनील कुमार 
प्रस्तुतकर्ता का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल करें - editorbejodindiaEyahoo.com



2 comments:

  1. बहुत बहुत आभार आपका। बेहतरीन रिपोर्ट।🌹🙏

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