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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Wednesday 25 October 2017

साहित्यकार विशुद्धानन्द की स्मृति में शोक-सभा, सृजन संगति द्वारा 24.10.2017 को पटना में सम्पन्न




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जिसने आवाज दी है मेरे यार / क्या जाने गया वो किस द्वार
(रिपोर्ट- हेमन्त दास 'हिम')


विशुद्धानंद न सिर्फ एक बेहतरीन छंदप्रवीण कवि थे वरन एक कुशल नाटककार, नाटय निर्देशक, पटकथाकार और वृत्त विवरणकार (कमेंट्रेटर) भी थे. उनका योगदान न सिर्फ यह है कि उन्होंने हिन्दी और भोजपुरी साहित्य को अपनी उत्तम रचनाओं से समृद्ध किया बल्कि यह भी है कि उन्होंने साहित्यकारों से गहरा जुड़ाव रखा और स्वयं संघर्षों में रहते हुए भी वे सब का हौसला बढ़ाते रहे. साहित्य के प्रति इतने प्रतिबद्ध थे कि उन्होंने आजीविका का कोई अन्य वैकल्पिक मार्ग चुना ही नहीं और जी-जान से साहित्य की श्रीवृद्धि हेतु अनवरत सेवारत रहे. उन्होंने भोजपुरी फिल्मों के लिए गीत, पटकथा लिखने के अलावे चालीस से ज्यादा रेडियो नाटक और रूपक भी लिखे. छ्ठ व्रत की कमेंट्री भी की. 

इन उद्ग़ारों को वक्ताओं ने 24 अक्टूबर,2017 को अवर अभियंता भवन, पटना में आयोजित शोक-सभा में व्यक्त किया. इस कार्यक्रम में कुल बाइस साहित्यकारों ने भाग लिया और अध्यक्षता बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष सिद्धेश्वर ने की. संचालन हृषीकेश पाठक ने किया. उपस्थित गणमान्य साहित्यकारों में भगवती प्र.द्विवेदी, डॉ.शिवनारायण, विजय गुंजन, योगेश्वर प्र. मिश्र, राजकुमार प्रेमी, डॉ.आर. प्रवेश, राकेश प्रियदर्शी, लता परासर, श्रीकान्त व्यास, विजय कु. सिंह, अरुण कु., टी. एन. तिवारी, हेमन्त दास 'हिम', माधो प्र. सिंह, राम चीज सिंह, बाँके बिहारी, ब्रज किशोर दूबे, डॉ. रमेश पाठक, चन्द्रदीप प्रसाद, आनन्द किशोर शास्त्री और रमाकान्त पाण्डेय थे.

डॉ शिवनारायण ने कहा कि विशुद्धानन्द ऋजुकल्प भावना के संवाहक थे. 'यादे' उनकी छोटी किन्तु सशक्त रचना है. 

विजय गुंजन ने कहा कि ध्वनि या व्यंजना किसी दृष्ति से वे उत्कृष्ट कवि थे. उन्होंने  विशुद्धानंद की स्मृति में अपने दोहे पढ़े-
जिदगी तो मिट गई पर नाम यह रौशन रहेगा
गीतमय प्रवेश था वह गीत ही बनकर रहेगा
जब तक घट में प्राण है और नयन में दृष्टि
तब तक प्यारे देख लो प्रभु की अनुपम सृष्टि.

राजकुमार प्रेमी ने अपना मगही निर्गुण उनको समपर्पित किया-
अप्पन पराया रोतन, मातम मनयतन
कि माटी जानी अँगना सुतयतन हो राम
गऊँआ में बसS हथिन भईया बढ़ाबढ़हिया
कि ओही भईया डोलिया बनयतन हो राम

श्रीकांत व्यास ने कहा कि उनकी दो दर्जन पाण्डुलिपियाँ अभी भी प्रकाशन हेतु पड़ी हैं जिन्हें प्रकाशित किया जाना चाहिए.

डॉ. आर. प्रवेश ने उनकी याद में एक कविता पढ़ी जिनकी कुछ पंक्तियाँ थीं-
जिसने आवाज दी है मेरे यार 
क्या जाने गया वो किस द्वार

राकेश प्रियदर्शी ने उनकी एक कविता का अंश सुनाया-
आम छू अमरैया छू / छोटका बड़का भैया छू
बिचला के कोई पूछे ना / छूछे रहल छूछे जू

भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि उनके लेखन और जीवन में कोई विरोधाभास नहीं था. वह हिंदी, भोजपुरी, अंगिका और ऊर्दू चार भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे.

हेमन्त दास 'हिम' ने कहा कि विशुद्धानन्द जी बिहार के समस्त नई पीढ़ी के रचनाकारों के लिए अभिवावक तुल्य थे. 

लता परासर ने कहा कि वे फेसबुक पर काफी सक्रिय थे और इस प्लेटफॉर्म का उपयोग वह साहित्यकर्मियों का हौसला बढ़ाने के लिए किया करते थे.

आनंद किशोर शास्त्री ने कहा कि सारे कलाकार और साहित्यकर्मी उनके लिए परिवार के समान था.

योगेंद्रनाथ मिश्र ने कहा कि बिहार हिंदी साहित्य समीलन उनकी रचनाओं को अपनी पत्रिका में तो छापेगा ही उनकी रचनाओं को एक पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित करेगा.

रमाकांत पाण्डेय ने अपनी प्रतिक्रिया कविता में व्यक्त की-
क्यूँ धधक कर जल रही है यह चिता
जल रहे अनगिनत सपने कह रहे हैं 
टूट रहा अनुबंध तन का / जुड़ रहा अनुबंध मन का. 

इस अवसर पर बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष जगदीश पाण्डेय को भी श्रद्धांजलि दी गई जो अवर अभियंता संघ के सदस्य भी थे. वक्ताओं ने कहा कि वे मुख्य अभियंता होकर सेवानिवृत हुए थे. चाहते तो आराम से अपनी जिंदगी बसर कर सकते थे. मगर उन्होंने स्वयं सक्रिय रचनाकार न होते हुए भी साहित्यसेवा के लिए विवादों में रहने से भी परहेज नहीं किया.
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इस रिपोर्ट के लेखक- हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्रकार- हेमन्त दास 'हिम'
आप अपनी प्रतिक्रिया इस ईमेल पर भेज सकते हैं- hemantdas_2001@yahoo.com




























































वक्ताओं के भावोद्गार के बाद दो मिनट का मौन रखने के पूर्व

शोक-सभा के बाद नीचे के कक्ष में राजकुमार प्रेमी ने विशुद्धानन्द जी से जुड़े कुछ संस्मरण सुनाये और 'अपनी भारतवसिया' कविता का पाठ किया  जो श्रोताओं द्वारा सराही गईं.

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