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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Tuesday, 25 April 2017

'Bhagwan Mushar' - fate of one who asks for justice ('भिखारी ठाकुर नाट्य विद्यालय' का नाटक 'भगवान मुसहर' -न्याय माँगने का अंजाम)




'A pitiful story account of proletariate'

"Jab tak lathi se lathi nahi takrayega tab tak haman ke jingi me injor nahi hoga" 
"Until the lathi (strong stick) strikes lathi, there would not be light in our life".

Revolutionary songs of Gorakh Pandey were sung and then a play written by Harivansh titled 'Bhagwan Mushar' was staged. The play depicted the plight of the downtrodden class and it's fight for justice. The people of Mushar clan have been destined by the society of a risky job of taking out mice from their holes. Many a times there are snakes in the holes which bite them. One of the dialogues in the play proclaims that the risk of being killed by snakes is less than the risk prevailing outside of the holes. As the people are more virulent than the serpents. Serpents eat rats but these unscrupulous, insensitive and cruel people kill the other human beings. 


Moreover the females of Mushar clan have to bear assault on their very modesty. Ultimately they have to succumb to the nexus of corrupt administration, inefficient judicial organisations and greedy politicians. Bhagwan Mushar, a poor farmer is arrested at midnight while he was sleeping peacefully and after a few days, is killed in the custody.  The feudal mindset has strong hold on the system of the state where all the four pillars of democracy - Legislative, Executive, Judicial organisation and Press are selfish and criminal minded. And this becomes more obvious when the media next day covers the story as "the dreaded dacaoit Bhagwan Mushar was killed yesterday in an encounter while he was attacking the police". 

REVIEW: Though the play was very long still it never drifted apart and was able to keep itself fully on the track. All the characters acted well and the artists from the background gave their skillful contribution in form of music, set-design, costumes, make-up and lighting. The work of the director was laudable.


सर्वहारा वर्ग की दयनीय दशा का लेखा-जोखा

"जब तक लाठी से लाठी नहीं टकराएगा हमन के जिनगी में इंजोर नहीं होगा"

गोरख पांडे के क्रांतिकारी गीतों को गाया गया और फिर 'भगवान मुसहर' नामित हरिवंश लिखित नाटक का मंचन किया गया। नाटक दलित वर्ग की दुर्दशा को दर्शाता है और यह न्याय के लिए लड़ाई है मुसहर जाति के लोग अपने छेद से चूहों को बाहर निकालने का एक जोखिम भरा काम के लिए समाज द्वारा नियुक्त किये गये हैं। कई बार चूहों के उन बिलों में साँप होते हैं। नाटक के एक संवाद में यह घोषित किया गया है कि बिलों में मौजूद साँप द्वारा जानलेवा दंश का खतरा भी उन खतरों से कम है जो बिलों के बाहर के साँपों अर्थात आदमियों से है। 

ऐसे शोषक वर्ग के लोग सांपों की तुलना में अधिक जहरीले होते हैं। साँप चूहों को खाते हैं, लेकिन ऐसे बेईमान, असंवेदनशील और क्रूर लोग अन्य मनुष्यों को खाते हैं। इसके अलावा मुसहर जाति की महिलाओं को अपनी आबरू पर हमेशा हमला झेलना पड़ता है। आखिरकार उन्हें भ्रष्ट प्रशासन, अक्षम न्यायिक संस्थाएँ और लालची राजनेताओं की गठबंधन के आगे परास्त होना ही पड़ता है। भगवान मुसहर एक गरीब किसान को आधी रात को गिरफ्तार किया गया था जब वह शांतिपूर्वक सो रहा था और उसे हिरासत में ही मार दिया गया। राज्य की व्यवस्था पर सामंती मानसिकता मजबूत है, जहां विधायिका, कार्यपालिका, न्याय-संस्थाएँ और प्रेस के नाम पर लोकतंत्र के सभी चार खंभे स्वार्थी और आपराधिक दिमाग से भरे हैं।  यह और भी स्पष्ट हो जाता है जब अगले दिन मीडिया, कहानी को इस रूप में प्रकाशित करता है कि "खतरनाक डाकू भगवान मुसहर को पुलिस पर हमला करते हुए एक मुठभेड़ में कल मार गिराया गया"।

समीक्षा: हालाँकि नाटक की कहानी लम्बी थी किंतु वह अपने मुख्य पथ पर टिकी रही. सभी पात्रों ने सशकत अभिनय किया और  नेपथ्य के कलाकारों यथा संगीत, वस्त्र-विन्यास, मंच-सज्जा, परिधान, प्रकाश-संचालन, ध्वनि-प्रभाव के रूप में अच्छा काम किया. निर्देशक का काम सराहनीय था.






















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