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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Sunday, 23 April 2017

प्रयोगधर्मी रंगमंच से बाधित अभिनय का विकास - मनोज मानव (Experimental theatre is killing development of acting)

 ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ...        
(Partially improved English translation made by Google is presented below the Hindi Text)
  जैसा कि मेरे किशोरावस्था का आरंभ ही नाटक से हुआ और भावनात्मक स्तर पर मेरी रचनात्मक यात्रा उस काल से ही शुरू हो चुकी थी। विद्यालय की सांस्कृतिक गतिविधि हो या इप्टा की आरा इकाईजैसी सांस्कृतिक संस्था; हमेशा अध्ययन-अंतराल के काल में अपनी सशक्त भूमिका बतौर अभिनेता आरंभ कर चुका था। मेरा मन रचनाशीलता के पथ पर सम्पूर्ण परिपक्वता की तरफ सतत बढ़ने लगा पर कुछ वक़्त बाद जब मेरा रंगकर्म किशोर-वय से यौवन के परिपक्वता के तरफ बढ़ रहा था मैं रंगमंच में एक बड़ा ही घातक खालीपन महसूस करने लगा। और वह था- रंगमंच में अभिनेता-परक मंचीय प्रस्तुति का अभाव। 

     आधुनिक रंगमंच के नाम पर सिर्फ सेट, लाइटिंग और कुछ अन्य प्रकार के रंग-प्रयोग होने लगे जो तथ्य-परक व वस्तुपरक तो थे पर एक कड़वा सच यह था कि कमतर रंग-रसिक ही रंगमंच से अपना लगाव या जुड़ाव बनाये रख सके। भले ही उन्हे एक उम्दा प्रस्तुति की संज्ञा देकर कुछ-एक लॉबीगत राजनीति करने वाले लोगों द्वारा नवाज भी दिया जाता रहा पर क्यों- यह बात समझ से परे रही। क्या रंगमंच के मठाधीश कहलाने की अतिमहात्वाकांक्षा रखने वाला यह समुदाय  इस लायक है? सच्चाई तो यह है कि रंगमंच का असली नायक रंग-रसिक जनता हैऔर जब नाटक अपने रंग-रसिक से संवाद ही स्थापित नहीं कर पाते तो उनकी सफलता का व उनके उम्दा होने का क्या मोल। जबकि रंगमंच को मैं जहां तक समझ पाया हूँ रंगमंच समाज में फैले तमाम कुरीतियों के सुरागों का पर्दाफाश करता है पर आज का तथाकथित आधुनिक रंगमंच जनता के विचारों को आम नेतृत्व देने के अपने सच के साथ न्याय कर पाने में पूर्णतया अक्षम दिखाई देने लगा है।
               
     रंगमंच पूर्णतया अभिनेता का ही माध्यम है और यही वजह है कि रंग-रसिक सीधे तौर पर उससे जुड़ जाते हैं। अन्यथा कई लोक-नाटकों की मज़बूत से कमजोर प्रस्तुति की दिशा में सतत यात्रा के बावजूद दर्शकों को ये प्रस्तुतियाँ आज भी बिठाए रखने में सफल हैं क्योंकि वहाँ अभिनेता मंच पर होता तो ज़रूर है पर रंग-रसिक उन्हे अपने अंदर महसूस करते है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि दर्शकों/रंग-रसिकों को बांधने में मुख्यधारा के नाटक की भूमिका प्रमुख नहीं है । वरना राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कुछेक निर्देशकों की ऐसी कई लोक-प्रस्तुतियां भी देखी हैं मैंने जिन्हें दर्शकों ने एक सिरे से नकार दिया क्योंकि वहां उनका अभिनेता गौण था और बचा था तो प्रयोगधर्मिता के तत्वों की उच्छृंखल बाढ़। प्रयोग हो और उनका सम्मान भी पर उसकी बली-वेदी पर अपने रंग-रसिकों की आहुति नहीं दी जा सकती। परंतु इस आधुनिक रंग-प्रयोग के नाम पर होने वाली रंग-प्रस्तुतियों में कहीं-न-कहीं अभिनेता के स्वैच्छिक विस्तार की हत्या होने लगी है और अभिनेता रंग-रसिकों से दूर होता जा रहा है। और आम रंग-रसिक रंगमंच से दूर। स्वभावत:रंगमंच की नायक जनता है की संकल्पना भी धूमिल और झूठी होती जा रही है। और यही विषाद मेरे अभिनेता अन्तर्मन को हमेशा सालता रहता है कि हमारी पूंजी हमारा दर्शक, हमारा रंग-रसिक हमसे दूर होता दिख रहा है और संपूर्णता के बावजूद हम दिनानुदिन अभाव के प्रस्तोता होते जा रहे हैं।

     चूँकि मेरी पहचान मूलतः अभिनेता के रूप में रही है और मेरे द्वारा देखे गए तमाम नाटकों की प्रस्तुति की समीक्षा में मैं सबसे ज्यादा अभिनय के कमजोर पक्ष को रेखांकित करता रहा और लगभग वरिष्ठजनों की सहमति भी रही है। पर दु:खद यह है कि जब भी मित्र या वरिष्ठ निर्देशक से प्रयोगगत प्रस्तुति-भटकाव के विंदु पर चर्चा करना चाहा तो मुझे उपेक्षा झेलनी पड़ी। स्वभावत: मेरा अभिनेता विद्रोह कर बैठा और शुरू हुई अभिनेता के अभिनय के साथ-साथ अभिनेतापरक निर्देशकीय रंगकर्म की यात्रा। हालांकि मेरा अभिनेता मन निर्देशकीय आत्मविश्वास से डर रहा था फिर भी; अपनी संस्था बयार के द्वारा मैंने सर्वप्रथम स्व-निर्देशित अपने एकल नाटक चुप क्यों हैं?’ से अपने निर्देशकीय क्षमता को पहले परखा जहां सिर्फ अभिनेता और आवश्यक प्रकाश-वृत्त और मैं बतौर अभिनेता अकेला मंच पर  तिहत्तर मिनट! पर उसकी उत्कृष्ट सफलता इस मानदण्ड पर साबित हई कि रंग-रसिक आखिर के तिहत्तरवें मिनट तक प्रेक्षागृह के कुर्सी से चिपके रहे। तभी मेरे अभिनेता-निर्देशक ने तय कर लिया अभिनय और सिर्फ अभिनय आधारित निर्देशक होने का और फिर शुरू हो गया अभिनेताओं संग अभिनेतापरक काम करने का एक अपना अंदाज़ पुन: स्वलिखित नाटक पुरुषोत्तमके साथ।

       नाटक के मूल्यों को मात्र कुछेक लोगों द्वारा प्रयोग के नाम पर किसी नाट्य-विद्यालय अथवा कहीं से लाकर बिना उस प्रयोग की आत्मा को समझे अपने अभिनेता के राग-रंग में उस प्रयोग को पैबस्त किए बिना दर्शकों पर थोप स्वयं को महान कहलवाने की भेंड-दौड़ हमारे रंगमंच और उसके विरासत को जड़ता के तरफ लिए जा रहा है  इसे हमें रोकना होगा वरना हमारी ‘गंगा-जमुनी संस्कृति वक्त के साथ अपसंस्कृति के दलदल में धंस कर धरासायी हो जाएगी अभिनेता चरित्र के साथ बेहतर न्याय करता दिखे, इसके लिए रंग-प्रयोग की बिसात पर महानता के तगमे के साथ मठाधीश बनने की घातक पहल में तथाकथित रंग-प्रयोगी निर्देशक अभिनय के स्तर पर कोई भी ज़िम्मेदारी ही नहीं लेना चाहता। वस्तुत: कहाँ है आज हमारा आम दर्शक; एक यक्ष-प्रश्न बना हुआ है।

     जहां तक नाटक के सफलता की बात की जाए तो प्रस्तुति की सफलता का स्तर बस इससे ही समझा जा सकता है कि नाटक के अंत होने के बाद जब प्रेक्षागृह का लाइट जले तो प्रेक्षागृह में रंग-रसिक कुर्सी से सटे रहें अपने अभिनेताओं को जानने के लिए। और साथ ही पात्र-परिचय खत्म होते ही प्रेक्षागृह से विभिन्न रंग-रसिक दृश्यों के बारे में आपसे एक संवाद स्थापित करें; बात-चीत करें। निश्चित तौर पर अपने रंग-रसिकों संग एक संवाद-सत्र नाटक के प्रस्तुति के तुरंत बाद रखा जाना चाहिए ताकि सीधे-सीधे तत्काल समीक्षा प्राप्त हो। पर शायद अपने प्रयोग की हक़ीक़त उन प्रयोगधर्मी निर्देशकों को पता होता है जिस कारण वो ऐसा नहीं करते। क्योंकि निश्चय ही उन्हे इसका अनुभव है कि उनके दर्शक लुभावने पोस्टर और डिजाइनिंग के नाम पर प्रेक्षागृह में तो आ जाएंगे और मिडियाकर्मी को प्रेक्षागृह भरा दिखेगा और वो छप भी जाएंगे। पर मंच पर बेवजह कचड़े की तरह भरे पड़े सेट से आधा-घंटा गुजरते-गुजरते आधा प्रेक्षागृह खाली हो जाएगा क्योंकि रंग-रसिकों को नाटकों में प्रस्तोता अभिनेता ही नहीं दिखेगा। फिर उनका जवाब होगा कि मेरे नाटक तों प्रबुद्ध-वर्ग के लिए हैं
तो क्या वो बताएंगे कि क्या उनके रगमंच का नायक आम जनता है?

     प्रयोग से आप बचिये नहीं पर कथ्य का व्याकरण, अध्याय और अभिव्यक्ति का उदेश्य क्या बेचारे लेखक अथवा नाटककार का सिर्फ प्रबुद्ध-वर्ग के लिए रहा है- यह विचार करना होगा। प्रयोग के नाम पर इस तरह के थोपू किस्म के महज तथाकथित प्रयोगधर्मी निर्देशक जो किसी नाटक को कहीं देखा और लाकर चिपका दिया बिना उस मौलिक प्रयोग को समझे तो क्या ये हत्या नहीं लेखक व नाटककार की? क्या ये बलात्कार नहीं रचना के मौलिकता के साथ? और ये अन्याय हमारे नायक रंग-रसिकों सिर्फ इसलिए बर्दाश्त करें क्योंकि तथाकथित थोपू प्रयोगधर्मी निर्देशकों को ललक है महान कहलाने की और घिनौनी महात्वाकांक्षा के साथ मठाधीश बनने की। अभिनेतापरक प्रयोगधर्मी प्रस्तुति से अपने नायकों के लिए इन्कलाब करना ही होगा। वरना समाज की कुरीतियों के पर्दाफाश का वजूद पूर्णत: खतरे में है। वर्तमान रंगमंच, रंग-रसिकों का दुराव के परिदृश्य में मजाज़ का वो इंकलाबी अश-आर बहुत सही लगते हैं-

   "हर तरफ फैली हुई रंगीनियाँ-रानाइयाँ, 
हर कदम इशरतें लेती हुई अंगड़ाइयाँ
बढ़ रही गोद फैलाये हुए रुसवाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ 
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ"
                                                 
-मनोज मानव

रंगमंच एवं फिल्म अभिनेता
,मोबाइल:- 7631427151 / 9708522139 / 9304337008
ई-मेल- manoj.manave@gmail.com
...................................................................

*2015- अजीत थियेटरवाला युवा सम्मान

*2016- एलिट सरस्वती सम्मान- आइकन ऑफ बिहार इन आर्ट' एन कल्चर
* रंगकर्म को समर्पित 22 वर्ष* हिन्दी फीचर फिल्म 'फाइनल मैच' में मुख्य खलनायक
* हिन्दी फिल्म में साइको लीड रोल
*सोनी चैनल के धारावाहिक 'मन में है विश्वास' की अनेक कड़ियों में मुख्य खलनायक

*टीवी शो 'भाग्यलक्ष्मी' में डिटेक्टिव

*डीडी-नेशनल के धारावाहिक 'किसी की नजर न लगे' में मुख्य एंटी लीड

*डीडी-1 के 'सह और मात' में लीड रोल

*कमर्शियल- प्रदीप सरकार के साथ वीआइपी अंडरगारमेंट में 

लम्बाई. 5'10''
उम्र... 32 वर्ष
क्मर.... 34''
सीना.... 44''
आँखों और बल का रंग.... काला
त्वचा का रंग...गेंहुआ

(Partially improved English translation made by Google is presented below)
As my teenage age started with drama and my creative journey at the emotional level had started from that time. Cultural activities like the school's cultural activity or the '' Aara unit '' of the IPTA; Always had his strong role as an actor in the study-interval period. My mind started moving towards full maturity on the path of creativity, but after some time when my theatrical work was moving from the juvenile to the maturity of youth, I began to feel a big lethal emptiness in theater. And that was - the absence of an actor-per-view stage presentation in theater.

     In the name of the modern theater, only the set, lighting and some other types of colors were used, which were factual and objective, but a bitter truth was that the lesser audience could keep their attachment or association with theater itself. Even though he was given a lot of praise by people who did some lobbying politics by calling him a great present, but why? Is this community that deserves the overwhelming hope of being the abbot of theater? The truth is that 'The real hero of the theater is a connoisseur public' and when the play can not establish a dialogue with its connoisseur person, then what is the value of their success and their excellence? While I have understood the stage as 'Theater exposes the clues of all the factions spread in the society', the so-called modern theater began to appear completely incompetent in judging the public with its truth of giving common leadership to the ideas of the people. is.
               
     Theater is the only medium of the actor and this is the reason why the theatrical characters connect directly to it. Otherwise, in spite of continuous travel in the direction of strong performance of many folk dramas, the audience is able to keep these presentations even today, because there is definitely the actor standing on the stage, but the connoisseur people feel in themselves. This does not mean that the role of mainstream drama in building bands of spectators / artists is not prominent. Otherwise, there are also many public presentations of some of the directors set up at the national level which I had rejected by the audience, because the actor was a minor and there was a disastrous flood of elements of experimentalism. Use and respect can not be sacrificed on the sacrifice of his own colors. But in the color-presentations of this modern color experiment, the actor's voluntary expansions are being slaughtered somewhere - and the actor is getting away from the colors. And away from the usual color-racetrack stage. The concept of 'Theater of theater is the public', in itself, is becoming dull and false. And this same melancholy always stays in my actor's mind that our capital is visible to our viewers, our colorful characters, and despite the whole, we are becoming presenters of day-to-day shortage.

     Since my identity was originally in the form of an actor and in reviewing the performance of all the plays I watched, I continued to underline the weak side of the highest performance and also the consent of the senior people. But sadly, whenever I wanted to discuss with the friend or the senior director about the practical presentation-the point of disguise, I had to ignore it. Naturally my actor rebelled and started acting actor as well as the actor's directorial tour. Even though my actor was afraid of directional self-confidence; Through my organization 'Baiyar', I first tested my own directive with self-directed one's own solo drama 'Where?', Where only actor and essential light-circles and I as an actor play for seventeen minutes! But his excellent success proved to be on this benchmark that the stereotypes remained glued to the auditorium chair till the seventeenth minute of the end. Only then did my actor-director decide to be acting and acting as the only acting director, and then with actors doing an act of acting again with their own autobiographical play 'Purushottam'.

       Without understanding the values ​​of the drama by some people, using some drama school or anywhere, without understanding the spirit of that experiment, without ramping up the use of that actor in the play, The race is going on towards our theater and its heritage inertia. We have to stop it or else our 'Ganga-Jamuni culture' will be overwhelmed by the time of time in the swamps of upskascari. Actor appears to be doing better justice with the character, for this, the so-called color-experimental director does not want to take any responsibility at the level of acting, in the deadly initiative of becoming the abbot with greatness on the theatrical experiment board. In fact, where is our general audience today; A questionnaire has remained.

     As far as the success of the drama is concerned, the level of success of the presentation can only be understood by the fact that after the end of the play, when the light of the auditorium is burnt, remain in the studio adjacent to the colorful chair, to know its actors . As well as the introduction of the introduction, establish a dialogue with you about different color-related scenes from the auditorium; Talk about Definitely should be kept immediately after the presentation of a dialog-session drama with their colleagues so that they get straightforward review. But perhaps the use of their experiments is known to those experimental directors, which is why they do not do that. Because of their experience
Because, of course, they have the experience that their viewers will come in the auditorium in the name of attractive posters and designing and the media personnel will be seen in the studio and they will also be splash. But the half-hour passes through the load filled with unnecessary trash on the platform- will be empty, because the spectator will not be seen in theater as well. Then their answer will be that my plays are for the enlightened class.
So will they tell if their ragant's hero is the general public?

     Do not avoid using the experiment but the purpose of grammar, chapter and expression of the verse has been for the illiterate writer or playwright only for the enlightened class - this has to be considered. In the name of the experiment, only such a so-called experimental director of Thopu variety, who saw and saw any drama without touching it, understood that fundamental experiment, is that the murder of the writer and playwright? Is it not rape, with the originality of composition? And this injustice should be tolerated only by our heroes, because the so-called Thopu experimental directors are hankering to be called great and to become abbot of abominable ambition. Actor performances must be invented for his heroes. Otherwise, the existence of the bust of the evils of the society is completely in danger. The Inklabi Ash-R is very suitable for the fun of the current theater, the colorful scenes of horoscopes-

   "The color palaces spread on all sides,
Angts taking every step
Increasing adoption russies
What are you gonna do
What can I do? "
                                                 
-Manoj Manava

Call @:- 7631427151/9708522139/9304337008


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* 2015 - Ajit Theaterwala Young Respect

* 2016 - Elite Saraswati Award - Icon of Bihar in Art 'N Culture
* 22 years dedicated to theater * Main villain in Hindi feature film 'Final Match'
* Psycho lead role in Hindi film
* The main villain in the episode of Sony Channel's serial 'Man me Hai Vishwas'

* Detective in TV show 'Bhagyalakshmi'

* DD-National serial 'No one's eyes do not look' Main anti-lead

* Lead roll in DD-1's 'Sah aur Maat'

* Commercial - With Pradeep Sarkar in VIP Underground

HT. 5'10''
Age... 32+yrs.
Waist.... 34''

Chest.... 44''

Eye & Hair.... Black

Complexion.... Wheatish
































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