जनशब्द पटना और हिन्द युग्म दिल्ली के द्वारा विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास "हमन है इश्क मस्ताना" का लोकार्पण और कवि गोष्ठी का आयोजन टेक्नो हेराल्ड, तीसरी मंजिल, महाराजा कामेश्वर सिंह कॉम्प्लेक्स, पटना जं. के समीप दिनांक 4.8.2018 को किया गया. इसमें बड़ी संख्या में वरिष्ठ और युवा कवि-कवयित्रियों ने भाग लिया. लोकार्पण करनेवाले साहित्यकारों में ध्रुव गुप्त, प्रभात सरसिज, जीतेंद्र कुमार, रानी श्रीवास्तव और शम्भू पी. सिंह शामिल थे. कार्यक्रम के संयोजन में शहंशाह आलम की विशेष भूमिका रही.
ऐसा लगता था कि मर जाऊंगा मैं तेरे बग़ैर और अभी ऐसा है चेहरा भी तेरा याद नहीं
उत्कर्ष आनंद 'भारत' ने अनीति के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया-
एक अलग तरह का युद्ध लड़ते हुए कुमार शिवम् ने खौफनाक वक्त पर अपनी जीत दर्ज कराई-
खुदा करे / तुम्हारी आस
जिसमें मेरे लिए बेपनाह मुहब्बत है
जीत दर्ज कर सके / इस खौफनाक वक्त पर
राजकिशोर राजन ने इस देश में सदा से गड़ेरियों का राज देखा-
मुझे पता नहीं आप क्या समझते इस देश के भेड़ियाधसान के बारे में
मुझे साफ़-साफ लगता - यहाँ हमेशा से रहा है गड़ेरियों का राज
डॉ. विजय प्रकाश ने बदले जमाने की तस्वीर खींची-
भेड़ बकरियों ने मिलकर है मारा बब्बर शेर
ज़माना बदल गया है
पंकज प्रियम ने मानव के जीवन में कुंडली में बंधा पाया-
मैं तो निर्जीव हूँ / मुझे तुम जबरन हांकते हो / दौडाते हो
मेरी उम्र कुंडली में समाप्त हो गई.
तो हरेन्द्र सिन्हा ने किसी भी दशा में तनहा न होने को कहा-
दोस्तों की दोस्ती गर ना मिले
आप अपने को न तनहा कीजिए
अरविन्द पासवान अवश्यम्भावी अत्याचार हेतु अपनी बारी का इन्तजार करते दिखे-
हम लाख कविता- कहानी ओढें या बिछाएँ
सच यही है कि / हत्याएँ रोज हो रहीं हैं / लड़कियाँ रोज लुट रहीं हैं
आंखों का पानी सूख रहा है / हम अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं
सितमगरों को गुठली की बजाय पूरा जामुन छोड़ देने को कहा शहंशाह आलम ने-
इस गुठली की बजाय / समूचा जामुन छोड़ जाता कोई अगर
मैं जामुन के पेड़ जितनी दुआएँ देता उसको
शम्भू पी. सिंह ने आज के समाज में छोटी सकारात्मक कोशिश करनेवालों पर तरस खाते हुए कहा-
दोष किसी का नहीं है / दोषी अगर है तो यह पौधा ...
....और रक्षा का दायित्व लिया तो इन समुद्री किनारों का
प्रभात कुमार धवन ने ऐसे समाज में मूक दर्शक बन जाने में अपनी भलाई समझी-
हे आकाश! / मुझे भी बुला ले अपने पास
और मैं भी छा जाऊँ जहाँ पर / मूक दर्शक बन / तुम्हारी ही तरह
चितरंजन भारती ने मानवता का मूल तत्व पा लिया-
जूतों चप्पलों से / शानो-शौकत से / नहीं आती मानवता
मित्र, इसके लिए तो / प्रेम प्यार की पूँजी चाहिए
और चाहिए / दूसरे के दुःख को अपना लेने की / तीव्र संवेदनशीलता
भावना शेखर ने सच की चाल का गौर से अध्ययन किया-
झूठ के पुलिंदे में बंधा है सच / घुटा कसमसाता
सच अब आगे नहीं पीछे चलता है
हर सच को तलाश है अपने अपने गांधी की
हेमन्त दास 'हिम' को धर्म पर इस कदर विश्वास हो चला है कि-
बच्चे की भूख मिटाने 'हिम' ने / काम नहीं तांत्रिक को तलाशा
शांतिपूर्वक जो होगा तबाह / वही है आजकल भला सा
सुधा मिश्र ने आखों में बह रहे नीर से नदी बना डाली-
गुजरे हुए कल की अपनी कहानी है
इन आँखों में नदिया पुरानी है
राजमणि मिश्र ने आँसू और दुःख की भाषा निर्धारित की-
आँसू तेरे हों कि आँसू मेरे हों / आँसुओं की भाषा एक है
दुःख तेरा हो की दुख मेरा हो / दुःख की परिभाषा एक है
नसीम अख्तर डरे हुए हैं की सर सलामत कैसे रहे पत्थरों से-
हाथ में सभी के जब पत्थर रहे
तो किस तरह सलामत कोई सर रहे
गणेश जी बाग़ी ने आज के जमाने की रीत बता दी-
रीति जहाँ की देख कर / मन चंचल मुख मौन
अभिप्राय जो पूर्ण हुआ / पूछे तुम हो कौन
अमीर हमजा ने दहेजलोलुपों को बकरा बना दिया तो कोई बात नहीं उन्होंने लुगाई को कसाई कैसे बना दिया. उनकी निडरता की दाद देनी होगी-
लड़का अगर आपको हाई फाई चाहिए / मेरे बेटे को भी सुन्दर लुगाई चाहिए
बिना दहेज़ हम शादी कर नहीं सकते / बकरा तैयार है एक कसाई चाहिए
विभूति कुमार ने खबर से खतरे को टाल दिया-
खबर है चल चुके हैं पहुंचेंगे भी सारे हमसफ़र
मेरे सर से सारे खतरे टलने तो दीजिये
एम. के. मधु, प्रेयसी से प्रेम करने को किताब पर जिल्द चढ़ाना शुरू कर दिया-
तुम शब्द शब्द फ़ैल गई हो मेरे पन्नों पर
तुम्हें सहेजने चढ़ाता रहा जिल्द किताब पर
संजय कुमार कुंदन ने सुन्दर ग़ज़ल पढ़ी-
इस ज़रा सा में बहुत दिलचस्पी
ध्रुव गुप्त ने आपनी अपने दिन को बदलने का नुस्खा खोज लिया-
खुद से बच कर निकल गए होते / अपने दिन भी बदल गए होते
हम भी आवारगी में बच निकले / दुनियादारी में सड़ गए होते
विमलेश त्रिपाठी जुल्फों के आर-पार होते रहे-
तेरी जुल्फों के आर पार कहाँ / एक दिल अजनबी सा रहता है
डूबकर जिसमें फ़ना सा होना था / वो दरिया मुझमें तश्नगी सा रहता है
श्वेता शेखर काँटों से बचने के चक्कर में और उलझती चली गईं-
कोई काँटा जो चुभता रहता है बेतहाशा / जिसे निकालने की जद्दोजहद में
कई और काँटों से उलझकर / रह जाते हैं हम
कवि घनश्याम ने अपनी आग सुलगाई रखी-
तेरा किरदार जो होता सियासी / तेरे वादे पे हैरानी न होती
तुम्हारे हौसले ठंढे न होते / तो फिर आग सुलगानी न होती
जीतेंद्र कुमार अकाल में लड़कर धान रोपने आते हैं-
मैं धान रोपने खेत में खड़ा हूँ
महीना दिन अकाल से लड़ा हूँ
मधुरेश नारायण ने खुशियों की बहार ले आये-
रहता है कोई अपना / उसकी खबर ले आये
जीवन में ला के भर दे / खुशियों की बहार
सजीव श्रीवास्तव छूने के मुद्दे पर गूढता के साथ विचार कर डाला-
जरूरी नहीं छूने के लिए / जिस्मों का करीब होना
.....बनी रहती है तमाम जगहें / तब भी छूने के लिए
कुंदन आनंद ने अपनी मुश्किलों पर ही कहर बरपा दिया-
मुश्किलों ने कभी हम पे ढाया कहर
मुश्किलों पे कहर हम भी ढाएँ कभी
सिद्धेश्वर प्रसाद ने जीते जी नहीं मरने का प्रण लिया-
जिंदगी तू घबराती क्यूँ है?
जीने के पहले मर जाती क्यूँ है?
रानी श्रीवास्तव ने लड़की होने के अभिशाप को कुछ इस तरह से बयाँ किया-
मैं कैसे जानूँ / मैं कैसे मानूँ
लड़की होना / मांस का लोथड़ा होना है
प्रभात सरसिज ने रूप बदलने वालों को एक दूसरे को तमगे पहनाते देख लिया-
दृश्य से अन्दर हैं केवल / रुपंकर कलाओं के सृजनहार
जो एक दूसरे को तमगे पहना रहे हैं
अंत में कार्यक्रम का अध्यक्ष को मंच पर आने का आग्रह किया गया.
अध्यक्ष श्रीराम तिवारी ने आज के कार्यक्रम पर अपनी संक्षिप्त टिप्पणी दी और अपनी कविता के माध्यम से मेघों सा लदकर आनेवाले की प्रतीक्षा करने लगे-.
मेघों सा लदकर आएँगे / जड़ में जानेवाले
पैदल आएँगे / समय सार लिखनेवाले
अंत में राजकुमार राजन ने सभी साहित्यकारों को धन्यवाद ज्ञापित किया और अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की g
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आलेख- हेमन्त दास 'हिम' / उत्कर्ष आनन्द 'भारत'
छायाकार- बिनय कुमार
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