मातृभूमि से दूर रहना और दूर होना दो अलग-अलग बातें हैं. पहली अवस्था शिक्षा, रोजगार आदि के लिए देश से दूर जाकर अपना अस्थायी ठिकाना बनाना हो सकती है जो कभी-कभी उम्र के बड़े भाग तक कायम रह सकती है किन्तु जिन्हें दूसरी अवस्था उनके जीवन में कभी आती ही नहीं जिन्हें अपनी माता, मातृभूमि और मातृभाषा से प्रेम होता है. जीवन की अंतिम साँस तक भी यह प्रेम विलग नहीं होता. ऐसा जुड़ाव रखनेवाला आदमी चाहे अमेरिका में रहे, इंगलैंड में रहे या किसी भी विकसित देश में चाहे दशकों तक क्यों न रह ले वह दिन-रात सोचता रहता है अपने गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी पथरीली पगडंडियों और शहर की सँकड़ी, मैली-कुचैली गलियों के बारे में. उसे संतुष्टि विदेश की सुख-सुविधाओं की बजाय अपने घर की कमियों में ही मिलती है. सच्चाई तो यह है कि वह उन देशवासियों की तुलना में और भी उद्विग्न रहता है जिन्हें विकसित देशों से अपने देश की सुविधाओं से तुलना करने का अबतक मौका नहीं मिला. वह जब अपने समाज के विरोधाभासों और अभावों के बारे में लिखता है तो उसका दर्द एक भिन्न प्रकार की तीक्ष्णता लिए प्रकट होता है. साथ ही अपने देश में मौजूद व्यक्ति से व्यक्ति के बीच नि:स्वार्थ सम्बंधों के बारे में सोचकर भी वह उद्वेलित होता रहता है. ऐसे ही एक लेखक प्रशान्त के पहले कथा-संग्रह 'अवतार' के लोकार्पण के अवसर पर जब वरिष्ठ लेखकों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की तो हमारे समाज की अनेक सच्चाइयाँ परत-दर-परत खुलती चली गईं.
कॉग्नीशो पब्लीकेशंस और बिहारी धमाका ब्लॉग के संयुक्त तत्वावधान में प्रशान्त रचित कथा-संग्रह ‘अवतार’ का लोकार्पण दिनांक 16.8.2018 को टेक्नो हेराल्ड, महाराजा कॉम्प्लेक्स, बुद्ध स्मृति पार्क के सामने, पटना में सम्पन्न हुआ. लोकार्पण के पश्चात एक कवि-गोष्ठी भी संचालित की गई. बहुत कम समय की सूचना के बावजूद इसमें अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों और कलाकारों की उपस्थिति हुई. लोकार्पण करनेवाले साहित्यकारों में प्रभात सरसिज, भगवती प्रसाद द्विवेदी, शहंशाह आलम, मृदुला शुक्ला, अरुण शाद्वल, घनश्याम, मधुरेश नारायण और लोकार्पित पुस्तक के लेखक प्रशान्त शामिल थे. मुख्य अतिथि मृदुला शुक्ला थीं और स्वागत भाषण हेमन्त दास ‘हिम’ ने किया लोकार्पण सत्र का संचालन शहंशाह आलम और कवि-गोष्ठी का संचालन सुशील कुमार भारद्वाज ने किया. धन्यवाद ज्ञापण मीनू अग्रवाल ने किया. कार्यक्रम में श्री शुक्ला, श्री सिन्हा, सोहन कुमार, उज्ज्वल प्रकाश, सार्थक आदि ने भी सक्रिय भागीदारी की.
प्रभात सरसिज ने लेखक को अपने पहले कथा-संग्रह प्रकाशित होने पर बधाई दी और आज के सामाजिक राजनीतिक संदर्भों की चर्चा की.
अरुण शाद्वल ने लोकार्पित कथा-सग्रह 'अवतार' के अधिकांश कहानियों की बड़ी बारीकी से व्याख्या करते हुए कथा-संग्रह में बड़ी ही कुशलतापूर्वक चित्रित आधुनिक विरूपताओं, विरोधाभासों और संघर्ष के विभिन्न रूपों को एक-एक कर सामने रखने लगे तो लेखक सहित सारे श्रोता दाँतों तले उंगली दबाकर रह गए क्योंकि मात्र पंद्रह मिनट में ही पुस्तक को पूरा पढ़कर वे बिलकुल सटीक और सारगर्भित व्याख्या करने में सक्षम थे. कहानियों के विषय-वस्तु में काफी विविधता है पर लेखक ने जो भी लिखा है उसकी तह तक जाकर लिखा है. 'लोहा और सोना'. 'अवतार', 'चौक' , 'चमत्कार', 'पादुका कथा' आदि कहानियों का सार बताते हुए उनकी खूबियो पर बिंदुवार चर्चा की उन्होंने. जहाँ 'चौक' में एक कचड़े के डिब्बे की जुबानी एक चौक के चौबीस घंटों की कहानी कही गई है वहीं 'चमत्कार' में चुनाव के मौसम में विनिर्दिष्ट जनसमूहों में संसूचित सम्मोहन के खेल को उजागर किया गया है. 'पादुका कथा' एक अलग ही तरह की कहानी है जिसमें एक अत्याधुनिक व्यक्ति भी अपने परिवेश से बहुत दूर वर्षों रहने के बावजूद भी अपने पुराने आथिर्क निम्न मध्ववर्गीय संंस्कारों से अलग नहीं हो पाता. 'स्वर्ग' कहानी का संदेश "डू नॉट जज और यू विल बी जज्ड" बताता है कि दूसरों की मीन-मेख निकालने की बजाय खुद पर ध्यान दकर उसे सुधारने की कोशिश करनी चाहिए.
कवि घनश्याम ने 'चमत्कार' शीर्षक कहानी पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि इस कहानी में लेखक ने धार्मिक आस्था और अंधविश्वास को माध्यम बना कर राजनीतिक हित साधने के उद्देश्य से घटना-क्रम को प्रायोजित किए जाने के यथार्थ को उद्घाटित किया है. कथानक, पात्र, वातावरण, घटना-क्रम बहुत संतुलित है.सहज और सरल भाषा-शैली में कथाकार ने सरकारी व्यवस्था और मीडिया का राजनीतिक हित में किए गए दुरुपयोग पर भी निशाना साधा है और इसमें वे पूरी तरह सफल हुए हैं.
शहंशाह आलम ने कहा कि प्रशांत की लघुकथाएँ हमारे जीवन की लघुकथाएँ हैं. उनकी लघुकथाएँ अपने पाठ के समय में आपसे एक आपसदारी वाला संवाद स्थापित कर लेती है. प्रशांत अपने कथा के पात्रों को बस यूँ ही टहलने बूलने के लिए आने नहीं देते बल्कि कथा के सारे पात्र अपने कठिन-कठोर जीवन से जूझते और जीतते दिखाई पड़ते हैं.
भगवती प्रसाद द्विवेदी ने भी मात्र कुछ मिनटों पहले हाथ में आई पुस्तक की गहन विवेचना कर डाली. उन्होंने कथाकार को एक किस्सागोई की विधा में माहिर करार दिया और कहा कि प्रशांत ने जीवन जीने के दौरान महसूस किये गए गूढ़ अनुभवों को बड़ी ही सरलता से बयाँ कर दिया है यह उनके कौशल का द्योतक है. 'पुरुषत्व' कहानी में लेखक ने दिखाया है कि बड़े ताम-झाम के साथ गठीला डील-डौल और लम्बी मूँछें रखनेवाला एक पुरुष भी विचारों के मामले में एक हिजड़े की तुलना में भी कितना दरिद्र हो सकता है. जहाँ हरदेव बाबू एक भूखे अधनंगे बच्चे को पूजा के लिए रखे फल चुराने के दंड में जानवरों सा व्यवहार करते हैं वहीं एक मामूली सी औकात वाला हिजड़ा उसी फेंक दिये गए बच्चे को पोछ्कर पुचकारता है और अपने पास से केले खाने को देता है. पुरुषत्व की बखिया उधेड़ने का इससे बेहतर ताना-बाना शायद ही कहीं मिल सकता है. श्री द्विवेदी ने 'बाबाजी का ढाबा', 'विरासत', ' अपराधबोध'. 'अवतार' आदि अनेक कहानियों की विस्तार से चर्चा की और बताया कि किस तरह से मानव मूल्यों के ह्रास की भयावह स्थिति को किस तरह से लेखक ने बड़ी ही ईमानदारी और प्रवीणता के साथ अभिव्यक्त किया है.
मृदुला शुक्ला ने भी कथा-संग्रह 'अवतार' पर पूर्व वक्ताओं की बातों से सहमति जताई और उन कहानियों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की जो चर्चा में अब तक नहीं आ पाईं थी. उन्होंने लेखक प्रशांत की अपने पहले प्रयास में सफल रचना कर डालने हेतु बधाई दी.
सुशील कुमार भारद्वाज ने कथा और लघुकथा के गुणों को बताया और कहा कि प्रशांत की कथाएँ काफी छोटी होने के वावजूद लघुकथा नहीं बल्कि कहानी है क्योंकि उनमें अपने कथ्य को कहने के लिए ताना-बाना बुना गया है. यह ताना-बाना काफी सशक्त है. लघुकथाओं में व्यंग्य का रहना अनिवार्य है जो प्रशांत की अनेक कहानियों में दिख जाता है. लेखक ने काफी प्रभावकारी तरीके से मानव जीवन के विविध पहलुओं को रखा है जो एक गहरा प्रभाव छोड़ जातीं हैं.
मधुरेश नारायण ने लोकार्पित पुस्तक की कहानी 'विरासत' की चर्चा करते हुए कहा कि दो युवा रेल से यात्रा करते समय देश की सांस्कृतिक विरासत के नाम पर एक दूसरे से झगड़ते रहते हैं लेकिन जब रेलगाड़ी एक स्टेशन पर रुकती है तो भोजन हेतु के.एफ.सी. से भोजन लेकर पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अनुरक्ति दिखाते हैं. दर-असल वे न तो हिन्दु देवी देवता के हिमायती हैं न ही अरब सभ्यता के बल्कि मात्र अपने अहं की संतुष्टि हेतु उसकी चर्चा करते हैं और झगड़ते हैं.
हेमन्त दास 'हिम' ने कहा कि प्रशांत हालाँकि अपने पहली साहित्यिक पुस्तक के साथ लोगों के समक्ष आए हैं लेकिन वो नौसिखुए कदापि नहीं हैं. उनका लेखक काफी प्रगाढ़ है और समय के साथ शिल्प में और पकड़ बनाते जाएंगे. कहानी 'सबसे बड़ा शत्रु' में लेखक एक कार्यालय में महिला कर्मचारियों के आपसी संवाद के जरिए एक महिला की प्रताड़ना को व्यक्त कर रहे हैं. स्पष्ट है कि इस दुनिया में महिला कर्मचारी का सबसे बड़ा शत्रु पुरुषवादी शोषक मानसिकता वाला उसका बॉस ही होगा. जब सभी महिला कर्मचारी पुरुषों के विरुद्ध लामबंद होते दिखाई देतीं हैं तभी फोन पर हुए संवाद से यह उजागर होता है कि सचमुच में बॉस सबसे बड़ा अमानवीय व्यवहार वाला और अव्वल दर्जे का शोषक तो है लेकिन वह पुरुष नहीं है वह तो दर-असल एक स्त्री ही है.
लोकर्पित पुस्तक की कहानियों पर चर्चा के बाद कवि-गोष्ठी हुई जिसका संचालन सुशील कुमार भारद्वाज ने किया.
शहंशाह आलम ने खुद को रचा कुछ इस तरह से-
वह जो जल जाकर / या फल जाकर
या जो दल जाकर / वापस लौट आते हैं
उनमें मैं भी खुद को रचता हूँ / उन्हीं में तल्लीन
मधुरेश नारायण ने टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर भी अपना जज़्बा बुलन्द रखा-
ऊँचे-नीचे टेढ़े-मेढ़े हैं / जीवन के रास्ते
बुलन्द रखो तुम जज़्बा अपना
राह सुगम बनाया करो.
तो सुशील कुमार भारद्वाज ने जाति के नाम पर मंत्रीजी का कमीशन छोड़ने से इनकार कर दिया-
और हर इन्सान का यह कर्तव्य बनता है कि
वह अपनी जाति की भलाई के लिए जान कुर्बान कर दे
लेकिन आप ही कहिए
चुनाव से आज तक का जो सारा खर्चा चल रहा है
वह कोई जाति वाला दे जाता है क्या?
घनश्याम भी उजाला को धूल फाँकता देख बहुत व्यथित दिखे-
वो अपनी खामियों को ढाँकता है / गिरेबाँ में हमारी झाँकता है
अँधेरे की जहाँ होती हुकूमत / उजाला धूल ही तो फाँकता है
भगवती प्रसाद द्विवेदी ने अपनो से कट कर अनजाने से जुड़ने से इनकार कर दिया-
अपनों से कट अनजाने से / जुड़ना भी क्या जुड़ना है
चलूँ जहाँ जन जन के मन में / लहराती हो एक नदी
बाट जोहते परदेशी की / जहाँ उचरते काग अभी
यह कैसा विस्तार / कि जिसमें रोज-ब-रोज सिकुड़ना है
हेमन्त दास "हिम' छुपने के लिए पाताल चले गए लेकिन वहाँ भी चैन नहीं था-
लेकिन मुश्किल यह थी
कि पाताल में ऑक्सीजन की भारी कमी थी
जो मारने के लिए पर्याप्त थी
परमाणु बम के हमले के पहले ही.
मृदुला शुक्ला द्वेष के माहौल में स्नेह का साँकल बजाकर बड़ी गलती कर दी-
झूल सके मन इंद्रधनुष पर, ऐसी बरखा हुई नहीं
सड़कें सूनी धूप न पानी पत्थर की बस शकल रही
गलती इतनी हुई मुझी से
द्वेश-दाह के दरवाजे पर मैंने साँकल-स्नेह बजाया
इतना जहर कहाँ से आया?
प्रभात सरसिज एक इच्छा-शरीर धारी अजगर पर मोहित दिखे-
सबसे पीछे
चल रहे हैं- सहमते-थरथराते, भूखे-अधनंगे
भूमिहीन मजदूर और बेरोजगार नौजवान
सबसे आगे चल रहा है / मानव वेष में
यह इच्छा-शरीर धारी अजगर
अंत में मीनू अग्रवाल ने आये हुए सभी साहित्यकारों और श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापण किया. तत्पश्चात कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की गई.
......
रिपोर्ट- हेमन्त दास 'हिम' / उज्ज्वल प्रकाश
छायाचित्र- सार्थक
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