उडना चाहता हूँ आसमानों में
खुला आकाश हो और मौसम सुहावना. ऐसे में जमावड़ा हो कवि और कवयित्रियों का तो बात ही कुछ और है! एक से बढ़कर एक भावों-विचारों के विविध रंगों को बिखेरते हुए कविताओं का पाठ हो तो श्रोतागण तो झूम उठेंगे ही.
साहित्य, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में नयी प्रतिभाओ को मंच प्रदान
करने के लक्ष्य को लेकर स्थापित “आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह है जिसमें महिलाओं और पुरुषों दोनो की महत्वपूर्ण भागीदारी रहती है.
इसी क्रम में 25.8.2018 को पटना के गांधी मैदान में आगमन की पहली मासिक गोष्ठी सह
काव्यपाठ का आयोजन किया गया जिसमें अनेक कवियों ने उपस्थिति दर्ज कराई तथा
काव्यपाठ किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता श्रीमती कृष्णा सिंह ने, संचालन वीणाश्री हेंब्रम तथा धन्यवाद ज्ञापन कवि संजय 'संज' एवं प्रकाश यादव निर्भीक ने
संयुक्त रूप से किया।
कवि मधुरेश नारायण ने सावन पर मनमोहक गीत गाया
हरी चुनरिया ओढ़ के धरती
सावन में इतरायी
आतुर धरा नभ से मिलने
को लेकर रही अंगड़ाई
कुमारी स्मृति ने सुनाया-
जो कालजयी कहलाते हैं, वो कभी हार नहीं मानते,
न कभी बिचलित होते हैं, अपने कर्म पथ से
कवियत्री वीणाश्री ने सुनाया कि
स्त्री सिर्फ तब तक
तुम्हारी होती है
जब तक वो तुमसे रूठती
और लड़ लेती है..!
कवि संजय 'संज' ने एक मजबूत इरादों से लवरेज कविता सुनाया कि
'उडना चाहता हूं आसमानों में,
शुमार होना चाहता हूं कारनामों में,
इंसानियत बची है कम अब
इंसानों में
श्रीमती कृष्णा सिंह ने स्त्रियों को शिक्षित करने और उन्हें मजबूत बनने
वाली रचना सुनाई कि एक दिन मैंने पूछा अपनी माता से कि हे माता! तुमने मुझे इस
जालिम जमाने की जमीन पर जन्म क्यों दिया। श्रीमती कृष्णा सिंह ने अध्यक्षीय
भाषण में कहा कि आगमन का पटना में आगमन बहुत उत्साहित करने वाला है जिससे ना सिर्फ
स्थापित कवियों और रचनाकारों को एक अंतरराष्ट्रीय पहचान रखने वाली संस्था का मंच
मिलेगा अपितु नवोदित रचनाकारों को भी सीखने और प्रदर्शन करने का शुभ अवसर मिलेगा।
उन्होंने आगमन का बहुत जोश से स्वागत कर अपनी शुभकामनाएं दीं।
नेहा नुपुर ने सच्चाई स्वीकार करने और स्वयं में बदलाव लाने से प्रेरित रचना
सुनाया कि
कुछ जो आप बदल न सकें स्वीकार कीजिए
कुछ जो आप स्वीकार न कर सकें बदल दीजिये
ज्योति मिश्रा ने सावन के मस्त मलंगों के लिए सुनाया कि
मस्त मलंग
फकीर हैं हम तो
ना कछु अपना है न पराया
जो कुछ मिलता खा पी लेते,
चुपड़ी पर नहिं जी ललचाया
प्रकाश यादव निर्भीक ने समाज से सवाल कर कविता सुनाया कि
क्यों पैदा हुई मैं
उस जगह
जहाँ महफूज नहीं मेरी आबरू
हास्य कवि विश्वनाथ वर्मा ने को मायके से चांदी के बेलन लाने का ज़िक्र कर
दहेज प्रथा पर व्यंग्य कसा।
प्रसिद्ध चित्रकार सिद्धेश्वर ने भी दहेज प्रथा पर अपने विचार को शेरों में
ढाला।
नसीम अख्तर ने शेर सुनाये -
अपने ही घर की तबाही
से हुए मशहूर हम
क्या गिला करते किसी
से ख़ुद ही बने दस्तूर हम
खिंच गई ऐसी लकीरें हर
दरो दीवार पर
रफ्ता-रफ्ता हो गए एक
दूसरे से दूर हम
सुनील कुमार ने बारिश और मौसम के अनुसार ग़ज़ल पढ़ा-
कजरारे नैन उसके माथे
पे बिंदियाँ हैं
फिर आज वो गिराती नज़रों से
बिजलियाँ है
युवा कवि विपुल ने सुनाया-
सूरज तो पूरा निकला था
किरणें आड़ी तिरछी क्यों
चाँद तो पूरण वाला था
ये अमा सिसक कर महकी क्यों?
युवा रचनाकार कृष्णकांत ने तरन्नुम में एक बहुत उम्दा रचना गाकर सुनाया और
तालियां बटोरी। कई अन्य कवियों ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया।
पहली मासिक गोष्ठी और बारिश होने के बावजूद कवियों के जमावड़े तथा उम्दा
रचनाओं के प्रदर्शन से अभिभूत हो कर संजय संज एवं प्रकाश यादव 'निर्भीक' ने आये हुए कवि-कवयित्रियों का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद
ज्ञापन किया और कहा कि आगमन के बैनर तले अब पटना के कार्यक्रम में बहुत गुणी और
अच्छे कवियों, कवियत्रीयों और रचनाओं
को सुनने का अवसर मिलेगा।
कहना न होगा कि रिमझिम बारिश के फुहारों के बीच सतरंगी कविताओं के समावेश ने
सभी का मन मोह लिया।
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आलेख - मधुरेश नारायण / संजय कुमार संज
छायाचित्र- वीणाश्री
ईमेल- eiditorbiharidhamaka@yahoo.com
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