संत और फकीर रहे हैं भारतीय समाज के प्रेरणा स्रोत
भारतीय समाज में अत्यंत प्राचीनकाल से संतों, फकीरों और विद्वानों की बड़ी भूमिका रही है. अभी सौ साल पहले तक यहाँ का जनमानस कभी राजा-महाराजाओं से नहीं जुड़ा रहा बल्कि संतों और फकीरों से ही प्रेरित होता रहा और उनके बताए मार्गों का ही अनुसरण करता रहा.
साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के दो दिनों तक चलनेवाले साहित्यकार सम्मिलन में वक्ताओं ने भारतीय साहित्य के विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार प्रकट किए. अनेक साहित्यिक विभूतियाँ और विद्वान इस कार्यक्रम में उपस्थित थे. अध्यक्षता पाटलीपुत्र विश्विद्यालय के कुलपति गुलाबचन्द जायसवाल ने की और पूरे सम्मिलन के संयोजक थे 'नई धारा' के सम्पादक डॉ. शिवनारायण. यह सम्मिलन 21-22 जुलाई, 2018 को अरबिंद महिला महाविद्यालय, पटना में आयोजित किया गया था और इस अवसर पर वहीं चार दिनों तक एक पुस्तक प्रदर्शनी भी लगाई गई.
कार्यक्रम के प्रारम्भ में साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवासन ने आये हुए सभी गणमान्य साहित्यकारों और विभूतियों का स्वागत किया और साहित्य अकादमी की पुस्तकें उपस्थित मंचासीन वक्ताओं को प्रदान कीं.
इसके पश्चात साहित्य अकदमी के सामान्य परिषद के सदस्य डॉ.अमरनाथ सिन्हा ने साहित्य को पुनर्चेतना का पर्याय बताया. किसी चीज या घटना को देखने या अनुभव करने के बाद पहली बार तो हम उसे यथावत समझते हैं किंतु फिर उस पर मनन करने से उसके बारे में एक नई दृष्टि विकसित होती है उसे ही साहित्य कहते हैं. हर युग में एक भाषा मानक भाषा हो जाती है जैसी कि अभी हिन्दी है किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य भाषाएँ लुप्त हो गईं. निज भाषा अर्थात अपनी लोक भाषाओं को अवश्य ही महत्व दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्हीं से प्रमाणिक भाषा का स्वरूप विकसित होता है. वैविध्य में एकता लाने में लिपि की भूमिका भी होती है. अत: आवश्यकता इस बात है कि साहित्य अकादमी जिस तरह से अनुवादों को प्रकाशित करने का सराहनीय कार्य कर रहा है वैसे ही वह लिप्यांतरित पुस्तकों को भी प्रकाशित करवाया जाय. भारतीय वांग्मय में रस को अधिक महत्व दिया गया है इसलिए जहाँ पश्चिमी साहित्य में कर्म की प्रधानता होती है वहाँ भारतीय साहित्य शुरू से ही रस-प्रधान रहा है.भारतीय साहित्य के मानक अरस्तु नहीं भरत हैं.
साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और कवि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने लिपि की भाषा पर प्रभावों की चर्चा करते हुए कहा कि साहित्य मूलत: स्मृति की चीज है. लिपि के आविष्कार से हमने अपनी स्मृति खो दी, विश्वसनीयता भी खोई है. फिर भी भारत में कथा-पाठ और कविता-पाठ की पुरानी परम्परा रही है. अभी सौ साल पीछे तक देखें तो भारतीय समाज का कभी राजा-रानियों से सम्बंध नहीं रहा बल्कि उनके नायक हर दौर में संत-फकीर और विद्वान ही रहे. वे उन्हीं की वाणियों और आदेशों पर चलते रहे. भारतीय जीवन में यहाँ के महाकाव्य जैसे रामायण और महाभारत बसे हुए हैं. उन्होंने यह भी कहा कि भाषा का विकास ध्वनि से ही हुआ है. समय-समय पर रचनाकार शब्दों को तोड़-मरोड़कर नये शब्दों की रचना करते जाते हैं.
नेपाली साहित्यकार सानू लामा ने अंग्रेजी में व्याख्यान देते हुए कहा कि साहित्य अकादमी को पाठकों की संख्या में गिरावट की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए.
अंतिम वक्ता के तौर पर बोलते हुए सभा के अध्यक्ष और पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के कुलपति गुलाब चंद जायसवाल ने नवगठित विश्वविद्यालय के उद्देश्यों और योजनाओं के बारें में प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि अपने विश्वविद्यालय में एक विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित करने की उनकी महत्वाकांक्षी योजना है. हिन्दुस्तान में रहते हुए हिन्दी का प्रयोग कुछ लोग नहीं करते हैं यह बहुत दुख की बात है. उन्होंने कहा कि उन्हें गर्व है कि वे महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा गठित काशी हिंदु विश्वविद्यालय में कार्य करने के पश्चात यहाँ कुलपति नियुक्त हुए हैं. महामना मालवीय के उच्च आदर्शों को ध्यान में रखते हुए वे यहाँ भी पूर्ण सुधार लाने का भरपूर प्रयत्न करेंगे.
कार्यक्रम के इस सत्र का संचालन साहित्य अकादमी, दिल्ली के देवेश कर रहे थे और धन्यवाद ज्ञापण अरबिंद महिला महाविद्यालय की प्राचार्या पूनम चौधरी ने किया.
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में बहुभाषीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया सूची के अनुसार उसमें भाग लेनेवाले कविगण थे - अध्यक्ष सत्यनारायण (हिन्दी), वाइ तुगुड़ (त्रिशी), उत्तिमा केशरी (हिन्दी), बाबूलाल मधुकर (मगही), मैशनम भगंत सिंह (मणिपुरी), तारानंद वियोगी (मैथिली) और आलम खुर्शीद (उर्दू). यह नामावली मुद्रित सूची से उद्धृत है. वास्तव में उपस्थित कविगण को जानने हेतु कृपया इस रिपोर्ट का (ऊपर से) उनतीसवाँ और तीसवाँ चित्र देखिये.
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आलेख- हेमन्त दास 'हिम'
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