मेरे मिटने से कुछ भला होगा
आनेवाले कल की शांति के लिए आज युद्ध का आह्वाहन करने वाले जन-जन में लोकप्रिय कवि महेश्वर की स्मृति में हिरावल जन संस्कृति मंच द्वारा दो दिवसीय कार्यक्रम के पहले दिन पटना सनग्रहालय के समीप बीआइए, पटना के सभागार में दो समकालीन युवा किन्तु अत्यंत सशक्त कवियों अदनान कफ़ील दरवेश और विहाग वैभव का काव्य पाठ हुआ. कार्यक्रम की अध्यक्षता बिहार संगीत नाटक अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और देश के विख्यात कवि आलोक धन्वा और संचालन सुधीर सुमन ने किया. इस गम्भीर किस्म के साहित्यिक कार्यक्रम में पहले उत्तर प्रदेश से आये दोनो कवियों का काव्य पाठ हुआ फिर आलोक धन्वा ने दोनो कवियों समेत पूरे देश के साहित्य की दशा और दिशा पर अपने विचार प्रकट किये.
अदनान कफ़ील दरवेश के द्वारा पढ़ी गई कविताओं के शीर्षक थे- मेरी दुनिया के तमाम बच्चे, बातें एक, एक प्राचीन दुर्ग की सैर, सन 1992, घर, बरसात और गाँव, गमछा, मोअज़्ज़िन, फज़िर, हम मारे गए लोग आदि. इनकी कविता ग्रामीण परिदृष्य का सच्चा चित्रण करते हुए प्रेम, निराशा और भय के बीच कायम आशावादिता को खूबसूरती से बयाँ करती दिखीं.
मोअज़्ज़िन की काँपती आवाज से
धुल गई शाम की बोझिल कबा
मस्ज़िद की मीनार कुछ और ऊपर उठी
मवेशी लौट आए अपने अपने खूँटों पर
लालटेनों के शीशे पोछ्कर साफ किये जाने लगे
झुर-झुर बहने लगी पुरवैया
सिलवट से उठकर मसाले की गंध
घर भर में फैल गई
धू धू कर जलने लगी कुछ गीली लकड़ियाँ
चूल्हों पर डेगचियाँ चढ़ने लगी
और खदबद खदबद कुछ पकने लगा
(-अदनान कफ़ील दरवेश)
जिस जगह हम मिले थे पहली दफा
बरसों बरसों कोई खड़ा होगा
तुझको मेरी कसम फलक वाले
मेरे मिटने से कुछ भला होगा
आँसुओं में धुलेगी आज की रात
तेरी चौखट पे वो चढ़ा होगा
(-अदनान कफ़ील दरवेश)
विहाग वैभव के द्वारा पढी गई कविताएँ थीं- हमें सपने देखने चाहिए, खुल रहे महलों के दरवाजे, मृत्यु और सृजन के बीच एक प्रेमकथा, इस देश के नागरिकता की नई अर्हताएँ, हत्या के पुरस्कार के लिए प्रेस विज्ञप्ति, बलात्कार और उसके बाद, ईश्वर को किसान होना चाहिए आदि. इनकी कविताओं में तीक्ष्ण व्यंग्य का पुट प्रभावी है जो परत-दर-परत उधेड़ता चला जाता है संत्रास के विभिन्न स्वरूपों को.
मैंने जिस मेज पर रखा अपना स्पर्श
उसी से आने लगी दो खरगोशों के सिसकने की आवाज़
हाथ से होकर शिराओं में दौड़ने लगी गिलहरियाँ
मैंने जिस भी कमरे में किया प्रवेश
उसी से आयी
कामगार पिताओं वाले बच्चों की जर्जर खिलखिलाहट
जिस हवा को पिया मैंने अभी कभी
उसी में आती रही मुझे पूर्वजों की पसिनाई गंध
होंठ के रंग को करते हुए कत्थई से लाल
जिस भी चुम्बन को जिया मैंने
उसी में बिलखती रही भगत सिंह की प्रेमिका
जिस भी फूल को चुना मैंने
तुम्हारे गर्वीले जूड़े में टाँकने के लिए
वही पकड़कर हाथ मेरा पहुँच गए मुर्दाघर
मैंने जिस भी शब्द को चुना
किसी से लड़ने के लिए
वही जुड़े हाथ कहने लगे मुझसे
क्षमा ! क्षमा ! क्षमा !
(-विहाग वैभव)
आलोक धन्वा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा आज के दौर के कवि अभिव्यक्ति के पैमाने पर काफी आगे निकल गए हैं और इस युग के आलोचक उनका मूल्यांकन करने में पीछे छूटते नजर आ रहे हैं. इन आलोचकों का फॉरमेट आज की कविताओं के लिए फिट नहीं है. महेश्वर जी का कहना था कि कवि को जनता के निकट होना चाहिए.
श्री धन्वा ने कहा कि कवि का रूमानी होना बुरा नहीं है. जो भी संवेदनशील कवि होगा वह रूमानी होगा ही.ऊर्दू को नहीं पढ़ पाने से हमारा नुकसान हुआ है. पहले के सारे क्रातिकारी और कवि जैसे बिस्मिल आदि को ऊर्दू में कफी रूचि थी. अगर ऊर्दू को हम मुसममानों की भाषा समझते हैं तो यह बहुत बड़ी भूल है हमारी. काव्यकला में उग्रपंथी लोग काव्य में 'पर्सोनिफिकेशन' (मानवीकरण) का विरोध करते हैं.
इस आयोजन के संयोजन में राजेश कमल की मुख्य भूमिका रही.
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रिपोर्ट - हेमन्त दास 'हिम' / अरविन्द पासवान
छायाकार - बिनय कुमार
नोट: रिपोर्ट में जिन लोगों के नाम छुट गए हैं कृपया कमेंट करके या अन्य माध्यमों से बताया जाय. आयोजक की सहमति से जोड़ दिया जाएगा.
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