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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Sunday, 4 February 2018

स्मरण कुँवर नारायण - 'दूसरा शनिवार' संस्था की बैठक 3.2.2018 को पटना के गाँधी मैदान में सम्पन्न

जीवन के अर्थ की खोज में एक यायावर 



शीतकाल के लम्बे अन्तराल के बाद अपने स्वत:निर्मित अनौपचारिक स्वरूप वाली संस्था 'दूसरा शनिवार' की देश के प्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण पर केंद्रित साहित्य्कि गोष्ठी  3.1.2018 को पटना के गाँधी मैदान में हुई जो काफी सरगर्मी और गम्भीर साहित्यक विमर्श के साथ चली. 

आधुनिक कविता मुठभेड़ करनेवाली कविता है. मुठभेड़ अन्याय के खिलाफ, समाज की सड़ी गली मान्यताओं के खिलाफ, रोटी छीनकर अट्टालिकाएँ खड़ा करनेवाले दानवों के खिलाफ. लेकिन क्या जीवन का अर्थ सिर्फ लड़ना ही है? क्या जीवन को समझने की जद्दोजहद कमतर है और अनावश्यक है? सच तो यह है कि जीवन में जहाँ हमें एक ओर हमें सतत युद्धरत रहना होता है वहीं दूसरी ओर उसके अन्वेषण पक्ष को भी टटोलना पड़ता है. तभी जाकर सम्पूर्णता प्राप्त होती है. कुँवर नारायण की तमाम ताम-झाम औरा स्थूलताओं से अलग सहज भाषा में सूक्ष्म अनुभूतियों की कविताएँ हैं. 


प्रत्यूष चन्द्र मिश्र  का कहना था कि कुँवर नारायण जीवन को विभिन्न रूपों में अनेक आयामों में देखते हैं और मृत्यू को भी. अपनी सहज प्रवृतियों को निभाते चले जाना मात्र जीवन नहीं और देह का अवसान मृत्यु नहीं. अपने आप को सबसे लघु रूप में पाने के बावजूद स्वयँ को लघु नहीं मानते हुए बड़ा होने की एक छोटी से छोटी कोशिश जीवन है. ठीक उसी प्रकार मौत है अपने आप को स्वीकार कर लेना कि हम सचमुच लघु हैं. जीवन एक फैलाव है. कुँवर नारायण किसी वाद या विचारधारा का सीधे तौर पर निर्वाह नहीं करते. लोगों ने तो उन्हें दक्षिणपंथी तक करार कर दिया लेकिन वास्तविकता यह है कि वे कोई पंथ में हैं ही नहीं. बस काव्य पंथ के अनुगामी थे. इनके द्वारा उद्धृत कविता लेख के अंत में प्रस्तुत है.

अमीर हमजा ने कुँवर नारायण को जीवन की गहराई में डूबनेवाले कवि कहा और कहा कि उनको पढ़ना हर साहित्यानुरागी के लिए जरूरी है.

अरबिन्द पासवान के विचार में कुँवर नारायण बहुत कम शब्दों में भी और बेहद सरल शब्दों में भी जीवन का अत्यंत बारीकी के साथ कलात्मक विश्लेषण कर डालते हैं. 

हेमन्त दास 'हिम' का कहना था कुँवर नारायण जीवन का अन्वेषण करनेवाले कवि हैं. वे जीवन को पूरा पाना चाहते हैं. सब कुछ देखना चाहते हैं. सब कुछ समझना चाहते हैं- अपने आप को, अपने परिवेश को, उपग्रह को और अंतरिक्ष को. पर सब कुछ पाकर वे लौटना चाहते हैं अपने मानवीय रिश्तों तक क्योंकि वास्तविक संतुष्टि पाने में नहीं बल्कि  उपलब्धियों को अपने इष्ट के साथ साझा करने में है. बिना किसी तामझाम के सीधे कविता में उतरते हैं. उनकी कविताओं में शोर बिलकुल नहीं है बल्कि वे तो जीवन के मौन में उठ रहे आन्तरिक अनुनाद को अभिव्यक्त करनेवाले कवि हैं. 

सिद्धेश्वर प्रसाद ने कुँवर नारायण को जीवन की सहज परिस्थियों से सार्थक बिम्ब रच डालनेवाला प्रभावकारी कवि बताया. इन्होंने उनकी 'एक अजीब  दिन' शीर्षक कविता सुनाई जो लेख के नीचे है.

भावना  शेखर  ने  आवाजें कविता  पढ़ी और  कहा कि  कुँवर  नारायण  की  कविताओं  में  जीवन  को  जी पाने की  बेचैनी मुखर  होती है. उनकी  अनेक  रचनाएँ  इसी जद्दो-जहद  की  उपज  है. 

राकेश प्रियदर्शी ने कुँवर नारायण की 'एक शून्य है' कविता सुनाई. इन्होंने उन्हें एक सहज शैली वाला किन्तु ज़िंदगी की गम्भीर समझ रखनेवाला  कवि बताया.

शहंशाह आलम ने कुमारजीव पुस्तक से उनकी एक कविता पढ़ी.नरेन्द्र कुमार ने कुँवर नारायण के एक साक्षात्कार का अंश सुनाया जिसमें उन्होंने साहित्य के राजनीतिक मूल्यांकन को पूरी तरह  से  अस्वीकार किया है.

घनश्याम ने हर वक्त ऐसा क्यों होता है” और मानव श्रंखला  शीर्षक कविताएँ पढ़ी. 
राकेश प्रियदर्शी ने एक शून्य है कविता पढ़ी.

कृष्ण समिद्ध ने कुँवर नारायण के व्यक्तिगत जीवन का परिचय दिया और कहा कि वे कार के व्यापारी थे. किसी के पूछने पर जवाब दिया कि कार इसीलिए बेचता हूँ ताकि कबिता न बेचनी पड़े. वे  अपनी कविताओं के बारे में बेहद निर्मम थे और कई कविताओं को बेकार समझते ही नष्ट कर देते थे.

कुमार पंकजेश ने कहा कि कुँवर नारायण एक व्यवसायी घराने के थे और कविताएँ लिखने के कारण उन्हें परिवार में बेकार समझा  जाता था. वे अंगेजी में एम.ए. थे. यह कहना गलत है कि वे अपने आसपास हो रही घटनाओं से असम्बद्ध थे. उनकी हे राम अयोध्या-1992 कविता इन्होंने  सुनाई.

राजेश कमल ने प्यार की  भाषाएँ कविता सुनाई. उन्होंने कुँवर नारायण के कुछ प्रसंगों को सुनाया. कुँवर नारायण का मानना था कि कवि को अपनी रचनाओं के प्रति मोहित नहीं होना चाहिए और कम स्तर की रचनाओं को रद्दी के टोकड़े में डालने की हिम्मत होनी चाहिए चाहे वे अपनी ही क्यों न हों.

समीर परिमल ने कहा कि कुँवर नारायण को यदि सावधानी  से न पढ़ा जाय तो वे एक मामूली कवि लगते हैं. किन्तु थोड़ा सावधानी पूर्वक पढ़ने पर पता चलता है कि वे सूक्ष्म दृष्टिवाले महान कवि हैं. इनके द्वारा उनकी आँकड़ों की बीमारी कविता सुनाई गई.

राजकिशोर राजन  ने  कहा  कि कुँवर नारायण की कविता में कोई चाक-चिक्य नहीं है और वे बिलकुल ही सरल स्वरूप में हैं. कुँवर नारायण का प्रतिरोध का स्वर काफी सूक्ष्म है. लोगों ने इन्हें दक्षिणपंधी तक करार दिया. इनमें भाषा की शालीनता देखने लायक है. पर उनकी कविताओं में गेहूँ कम है और चोकर ज्यादा. इसपर  शहंशाह आलम ने चुटकी लेते हुए कहा कि चोकर के निकाल देने से रोटी स्वास्थप्रद नहीं रह जाती. इसलिए चोकर जितना ज्यादा हो स्वास्थ्य के लिए उतना ही अच्छा है. 

प्रभात सरसिज ने कहा कि कवि को कविताओं के साथ मुठभेड़ करना चाहिए. यदि उसकी कविता में समय का संघर्ष प्रतिध्वनित नहीं होता तो कविता बेकार है. कुँवर नारायण की कविताओं  में  कोई मुठभेड़ नहीं है और वह अपने समय की वेदना को नहीं प्रदर्शित कर पाती हैं. उनकी कविताएँ आज के दौर में टिकनेवाली नहीं है और उनकी कविताओं की गाड़ी चढ़ कर आप हस्तिनापुर नहीं पहुँच सकते. फिर भी उनकी कविताओं को पढ़ा जाना जरूरी है क्योंकि वे नई कवियों  के लिए एक वर्कशऑपकी तरह है.

फिर इस गोष्ठी का एक दूसरा सत्र भी चला जिसमें सभी कवियों ने अपनी एक-एक कविता का पाठ किया.
.........
कुंवर नारायण की कविताओं की एक झलक जो गोष्ठी में चर्चित हुईं-

दरअसल शुरू से ही था हमारे अंदेशों में
 कहीं एक जानी  दुश्मन
 कि घर को  बचाना  है लुटेरों से
 शहर को  बचाना है  नादिरों से
 देश को बचाना है देश के दुश्मनों से

बचाना है ---- 
                            नदियों  को नाला हो जाने से
                             हवा को धुवां   हो जाने से
                             खाने को जहर हो जाने से
  
बचाना है - जंगल को मरुथल हो जाने से
 बचाना है - मनुष्य को जंगल हो जाने से.
 ('बाजश्रवा के बहाने' पुस्तक का अंश-)
 ............
  
इतना कुछ था दुनिया में
 लड़ने झगड़ने को
 पर ऐसा मन मिला
 कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
 और जीवन बीत गया
 ...........

 एक अजीब दिन
 आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
 और कोई दुर्घटना नहीं हुई।
 आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
 और कहीं अपमानित नहीं हुआ।
  
आज सारे दिन सच बोलता रहा
 और किसी ने बुरा न माना।
 आज सबका यकीन किया
 और कहीं धोखा नहीं खाया।
  
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
 कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
 अपने ही को लौटा हुआ पाया।
 .......
  
मैं कहीं और भी होता हूँ
 जब कविता लिखता
 कुछ भी करते हुए
 कहीं और भी होना
 धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है

 हर वक़्त बस वहीं होना
 जहाँ कुछ कर रहा हूँ
 एक तरह की कम-समझी है
 जो मुझे सीमित करती है
  
ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
 फैलने के लिए

 इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
 और अपनी मजबूरी भी
 पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
 फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
 जैसे लौटती हैं
 किसी उपग्रह को छूकर
 जीवन की असंख्य तरंगें...
 .....

 बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।

 उसे पाने की कोशिश में
 भाषा को उलटा पलटा
 तोड़ा मरोड़ा
 घुमाया फिराया
 कि बात या तो बने
 या फिर भाषा से बाहर आये-
 लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
 बात और भी पेचीदा होती चली गई ।
 सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
 मैं पेंच को खोलने के बजाय
 उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
 क्यों कि इस करतब पर मुझे
 साफ़ सुनायी दे रही थी
 तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।
 आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था
 ज़ोर ज़बरदस्ती से
 बात की चूड़ी मर गई
 और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।
 हार कर मैंने उसे कील की तरह
 उसी जगह ठोंक दिया ।
 ऊपर से ठीकठाक
 पर अन्दर से
 न तो उसमें कसाव था
 न ताक़त ।

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
 मुझसे खेल रही थी,
 मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा
 क्या तुमने भाषा को
 सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”
 .......

इस रिपोर्ट के लेखक- हेमन्त दास 'हिम',  नरेंद्र कुमार
फोटोग्राफर - हेमन्त 'हिम', प्रत्यूष चन्द्र मिश्र 
ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo.com
नोट: सभी वक्ताओं के वक्तव्य स्मरण के आधार पर लिखे गए हैं. सुधार या परिवर्तन के लिए वक्ता कृपया लेखक से व्हाट्सएप्प या ईमेल से सम्पर्क करें अथवा फेसबुक पर लेखक को टैग करते हुए कमेंट करें. 

 


































Friday, 2 February 2018

Filumchi staged 'Balconi-2' in Patna on 30.1.2018 (हिन्दी में कथा-सार के साथ)

A marvelous display of togetherness 


Michael D'Souza is retrenched from his job because of recession. But his wife Anna comes to her with all of her support. Later on she herself joins a job to meet the economic need of the family. Michael initially shows his typical tantrums of a skeptic and jealous husband though soon comes to terms. Still, while coping to the difficult situation and loneliness at home he falls ill. His brother and sister come to house and show the postures of help outwardly. Transpiring their internal apathy Anna forbids her husband of taking any help from them. Ultimately even Anna is fired from the job. The family look dejected but moves along with their sheer trust, togetherness and optimism. The whole serious story is riveted with bunches of humorous happening

Capt Mohan Singh Rawat has prepared a wonderful script for 'Balconi-2'. The dialogues were very terse and came forth in a natural manner still they contained so much of humour that nobody could resist to laugh. The actors were senior as most of them  in their late 50s but this seemed to be a boon rather than a bane. The experience counts and that is why they were able to sail through this comedy play reaching the destination. The facial expression, the body language, the pitch and tempo of the dialogue delivery were matchless on several yardsticks.

 Mohan Singh Rawat's capability in direction was also quite visible as he used the stage floor very judiciously. There were scenes in which almost the whole width of the floor was covered, that too homogeneously and surprisingly merely by three actors. The light composoition showed its niche proficiency casting focus exactly on the centre of movements and sound system was flawless. The intermittent audio backstage footage in form of radio news was a feast for comedy-lovers. People literally laughed on every bite of news from the backstage radio play.  Yes, the pace had some issues but all the other factors in the presentation were so dominant that the whole play emerged as a brilliant show of virtuoso repertory. 

The on-stage artists were Capt. Mohan Singh Rawat, Sushma Sinha, Upendra Singh, Itu Ghosh, Krishna etc supported from  backstage by Shailesh Jammuar, Rizawannulah, Aditi Verma, Sonu Gupta, Pravyanshu, Anshu Priya and Sanjay Singh. Also Set-design, Sound system and Lights were by Shiv Kr. Sharma, Rajkumar, Upendra and Sunil Sharma. 
[कथा-सार: माइकल डिसुजा की नौकरी मंदी के दौर में चली जाती है. पत्नी अन्ना घर पर उसका हौसला बढ़ाती है और खुद नौकरी करने लगती है. शुरू में तो माइकल अपनी पत्नी पर शक करता है लेकिन धीरे-धीरे वह पत्नी की भली भावना को समझ लेता है. लेकिन घर में अकेलापन महसूस करने के  कारण बीमार पड़ जाता है. उसके भाई और बहन उसकी मदद करने आते हैं लेकिन सिर्फ ऊपरी मन से. उनकी अंदरूनी उदासीनता को भाँपते ही अन्ना उनसे सहायता लेने को अपने पति को रोकती है. आगे चलकर अन्ना की नौकरी भी चली जाती है. फिर भी वे आपसी विश्वास, मेल और आशावादिता के साथ आगे बढ़ते हैं.]
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Review by - Hemant Das 'Him'
Photographs by - Hemant 'Him'
E-mail - hemantdas_2001@yahoo.com
Response can also be sent to - editorbiharidhamaka@yahoo.com
Note- Pictures of later scene could not be captured because of failure of camera device.







































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