जीवन के अर्थ की खोज में एक यायावर
शीतकाल के लम्बे अन्तराल के बाद अपने स्वत:निर्मित अनौपचारिक स्वरूप वाली संस्था 'दूसरा शनिवार' की देश के प्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण पर केंद्रित साहित्य्कि गोष्ठी 3.1.2018 को पटना के गाँधी मैदान में हुई जो काफी सरगर्मी और गम्भीर साहित्यक विमर्श के साथ चली.
आधुनिक कविता मुठभेड़ करनेवाली कविता है. मुठभेड़ अन्याय के खिलाफ, समाज की सड़ी गली मान्यताओं के खिलाफ, रोटी छीनकर अट्टालिकाएँ खड़ा करनेवाले दानवों के खिलाफ. लेकिन क्या जीवन का अर्थ सिर्फ लड़ना ही है? क्या जीवन को समझने की जद्दोजहद कमतर है और अनावश्यक है? सच तो यह है कि जीवन में जहाँ हमें एक ओर हमें सतत युद्धरत रहना होता है वहीं दूसरी ओर उसके अन्वेषण पक्ष को भी टटोलना पड़ता है. तभी जाकर सम्पूर्णता प्राप्त होती है. कुँवर नारायण की तमाम ताम-झाम औरा स्थूलताओं से अलग सहज भाषा में सूक्ष्म अनुभूतियों की कविताएँ हैं.
प्रत्यूष चन्द्र मिश्र का कहना था कि कुँवर नारायण जीवन को विभिन्न रूपों में अनेक आयामों में देखते हैं और मृत्यू को भी. अपनी सहज प्रवृतियों को निभाते चले जाना मात्र जीवन नहीं और देह का अवसान मृत्यु नहीं. अपने आप को सबसे लघु रूप में पाने के बावजूद स्वयँ को लघु नहीं मानते हुए बड़ा होने की एक छोटी से छोटी कोशिश जीवन है. ठीक उसी प्रकार मौत है अपने आप को स्वीकार कर लेना कि हम सचमुच लघु हैं. जीवन एक फैलाव है. कुँवर नारायण किसी वाद या विचारधारा का सीधे तौर पर निर्वाह नहीं करते. लोगों ने तो उन्हें दक्षिणपंथी तक करार कर दिया लेकिन वास्तविकता यह है कि वे कोई पंथ में हैं ही नहीं. बस काव्य पंथ के अनुगामी थे. इनके द्वारा उद्धृत कविता लेख के अंत में प्रस्तुत है.
अमीर हमजा ने कुँवर नारायण को जीवन की गहराई में डूबनेवाले कवि कहा और कहा कि उनको पढ़ना हर साहित्यानुरागी के लिए जरूरी है.
अरबिन्द पासवान के विचार में कुँवर नारायण बहुत कम शब्दों में भी और बेहद सरल शब्दों में भी जीवन का अत्यंत बारीकी के साथ कलात्मक विश्लेषण कर डालते हैं.
हेमन्त दास 'हिम' का कहना था कुँवर नारायण जीवन का अन्वेषण करनेवाले कवि हैं. वे जीवन को पूरा पाना चाहते हैं. सब कुछ देखना चाहते हैं. सब कुछ समझना चाहते हैं- अपने आप को, अपने परिवेश को, उपग्रह को और अंतरिक्ष को. पर सब कुछ पाकर वे लौटना चाहते हैं अपने मानवीय रिश्तों तक क्योंकि वास्तविक संतुष्टि पाने में नहीं बल्कि उपलब्धियों को अपने इष्ट के साथ साझा करने में है. बिना किसी तामझाम के सीधे कविता में उतरते हैं. उनकी कविताओं में शोर बिलकुल नहीं है बल्कि वे तो जीवन के मौन में उठ रहे आन्तरिक अनुनाद को अभिव्यक्त करनेवाले कवि हैं.
सिद्धेश्वर
प्रसाद ने कुँवर नारायण को जीवन की सहज परिस्थियों से सार्थक बिम्ब रच डालनेवाला प्रभावकारी कवि बताया. इन्होंने उनकी 'एक अजीब दिन' शीर्षक कविता सुनाई जो लेख के नीचे है.
भावना शेखर ने ‘आवाजें’ कविता पढ़ी और कहा कि
कुँवर नारायण की कविताओं में जीवन को जी पाने
की बेचैनी मुखर होती है. उनकी
अनेक रचनाएँ इसी जद्दो-जहद
की उपज है.
राकेश प्रियदर्शी ने कुँवर नारायण की 'एक शून्य है' कविता सुनाई. इन्होंने उन्हें एक सहज शैली वाला किन्तु ज़िंदगी की गम्भीर समझ रखनेवाला कवि बताया.
शहंशाह आलम ने
‘कुमारजीव’ पुस्तक से उनकी एक कविता पढ़ी.नरेन्द्र कुमार ने कुँवर नारायण के एक साक्षात्कार का अंश सुनाया जिसमें उन्होंने साहित्य के राजनीतिक मूल्यांकन को पूरी तरह से अस्वीकार किया है.
घनश्याम ने “हर वक्त ऐसा क्यों होता है” और ‘मानव श्रंखला’ शीर्षक कविताएँ पढ़ी.
राकेश प्रियदर्शी ने ‘एक शून्य है’ कविता पढ़ी.
कृष्ण समिद्ध ने कुँवर नारायण के व्यक्तिगत जीवन का
परिचय दिया और कहा कि वे कार के व्यापारी थे. किसी के पूछने पर जवाब दिया कि कार इसीलिए बेचता हूँ ताकि कबिता न बेचनी पड़े. वे अपनी कविताओं के बारे में बेहद निर्मम थे और कई कविताओं को बेकार समझते ही नष्ट कर देते थे.
कुमार पंकजेश ने कहा कि कुँवर नारायण एक व्यवसायी घराने के थे और कविताएँ लिखने के कारण उन्हें परिवार में बेकार समझा जाता था. वे अंगेजी
में एम.ए. थे. यह कहना गलत है कि वे अपने आसपास हो रही घटनाओं से असम्बद्ध थे. उनकी ‘हे राम’ अयोध्या-1992 कविता इन्होंने सुनाई.
राजेश कमल ने ‘प्यार की भाषाएँ’ कविता सुनाई. उन्होंने कुँवर नारायण के कुछ प्रसंगों को सुनाया. कुँवर नारायण का मानना था कि कवि को अपनी रचनाओं के प्रति मोहित नहीं होना चाहिए और कम स्तर की रचनाओं को रद्दी के टोकड़े में डालने की हिम्मत होनी चाहिए चाहे वे अपनी ही क्यों न हों.
समीर परिमल ने
कहा कि कुँवर नारायण को यदि सावधानी से न पढ़ा
जाय तो वे एक मामूली कवि लगते हैं. किन्तु थोड़ा सावधानी पूर्वक पढ़ने पर पता चलता है
कि वे सूक्ष्म दृष्टिवाले महान कवि हैं. इनके द्वारा उनकी
‘आँकड़ों की बीमारी’ कविता सुनाई गई.
राजकिशोर राजन ने कहा कि कुँवर नारायण की कविता में कोई चाक-चिक्य नहीं
है और वे बिलकुल ही सरल स्वरूप में हैं. कुँवर नारायण का प्रतिरोध का स्वर काफी सूक्ष्म है. लोगों ने इन्हें दक्षिणपंधी तक करार दिया. इनमें भाषा की शालीनता देखने लायक है. पर उनकी कविताओं में गेहूँ कम है और चोकर ज्यादा.
इसपर शहंशाह आलम ने चुटकी लेते हुए कहा कि
चोकर के निकाल देने से रोटी स्वास्थप्रद नहीं रह जाती. इसलिए चोकर जितना ज्यादा हो
स्वास्थ्य के लिए उतना ही अच्छा है.
प्रभात सरसिज ने कहा कि कवि को कविताओं के साथ मुठभेड़ करना चाहिए.
यदि उसकी कविता में समय का संघर्ष प्रतिध्वनित नहीं होता तो कविता बेकार है. कुँवर
नारायण की कविताओं में कोई मुठभेड़ नहीं है और वह अपने समय की वेदना को
नहीं प्रदर्शित कर पाती हैं. उनकी कविताएँ आज के दौर में टिकनेवाली नहीं है और उनकी
कविताओं की गाड़ी चढ़ कर आप हस्तिनापुर नहीं पहुँच सकते. फिर भी उनकी कविताओं को पढ़ा
जाना जरूरी है क्योंकि वे नई कवियों के लिए
एक वर्कशऑपकी तरह है.
फिर इस गोष्ठी का एक दूसरा सत्र भी चला जिसमें सभी कवियों ने अपनी एक-एक कविता का पाठ किया.
.........
कुंवर नारायण की कविताओं की एक झलक जो गोष्ठी में चर्चित हुईं-
दरअसल शुरू से ही था हमारे अंदेशों में
कहीं एक जानी
दुश्मन
कि घर
को बचाना
है लुटेरों से
शहर को
बचाना है नादिरों से
देश को बचाना है देश के दुश्मनों से
बचाना है ----
नदियों को नाला हो जाने से
हवा को धुवां हो जाने से
खाने को जहर हो जाने
से
बचाना है - जंगल को मरुथल हो जाने से
बचाना है - मनुष्य को जंगल हो जाने से.
('बाजश्रवा के बहाने' पुस्तक का अंश-)
............
इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया
...........
‘एक अजीब दिन’
आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
और कोई दुर्घटना नहीं हुई।
आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ।
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा न माना।
आज सबका यकीन किया
और कहीं धोखा नहीं खाया।
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने ही को लौटा हुआ पाया।
.......
मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता
कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है
हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है
ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
फैलने के लिए
इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...
.....
बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई ।
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनायी दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया ।
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव था
न ताक़त ।
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
“क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”
.......
इस रिपोर्ट के लेखक- हेमन्त दास 'हिम', नरेंद्र कुमार
फोटोग्राफर - हेमन्त 'हिम', प्रत्यूष चन्द्र मिश्र
ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo.com
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