जिन्होंने राजकपूर ही नहीं देश का दिल जीत लिया
मथुरा में है इनके नाम पर सड़क
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एक चीज जानकर अच्छा लगा कि मथुरा की पालिका अध्यक्ष मनीषा गुप्ता ने 2016 ई. में शैलेंद्र की स्मृति में एक सड़क का नाम गीतकार शैलेंद्र के नाम पर रखा. एक कार्यक्रम का आयोजन'जन सांस्कृतिक मंच'ने मथुरा में किया जिसमें शैलेंद्र के पुत्र दिनेश शंकर और उनकी बेटी अमला को भी आमंत्रित किया.
दिनेश शंकर के अनुसार शंकर जयकिशन, एस डी बर्मन, हसरत जयपुरी, राजकपूर उनके मुंबई स्थित घर में आते थे. कवि गोष्ठियाँ होती थीं. इन काव्य गोष्ठियों में धर्मवीर भारती और अर्जुन देशराज सरीखे लोग शिरकत करते थे.
शैलेन्द्र का निधन 14दिसंबर, 1966 को हो गया, मात्र43वर्ष की उम्र में. संयोग से राजकपूर की जन्म तिथि14दिसंबर ही है. हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को समझना चाहिए और बचाना चाहिए.
मेरे शहर का प्रत्येक चौक खास लोगों के लिए सुरक्षित है. शैलेंद्र उन ख़ास लोगों में शायद नहीं माने जाते हों!
खण्ड-2 / लेखक - मृत्युंजय शर्मा
हिन्दी के एक प्रमुख गीतकार शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र का जन्म रावलपिंडी में 30 अगस्त, 1923 को हुआ था। बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव के दलित परिवार से ताल्लुक रखने वाले शैलेन्द्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था। दो दशक से अधिक समय तक लगभग 170 फिल्मों में जिंदगी के हर फलसफे और जीवन के हर रंग पर गीत लिखने वाले शैलेन्द्र के गीतों में हर मनुष्य स्वयं को ऐसे समाहित-सा महसूस करता है जैसे वह गीत उसी के लिए लिखा गया हो। अपने गीतों की रचना की प्रेरणा शैलेन्द्र को मुंबई के जुहू बीच पर सुबह की सैर के दौरान मिलती थी। चाहे जीवन की कोई साधारण-सी बात क्यों न हो वह अपने गीतों के जरिए जीवन के सभी पहलुओं को उजागर करते थे।
वो मुम्बई जाने के बाद अक्सर 'प्रगतिशील लेखक संघ’ के कार्यालय में अपना समय बिताते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। हर शाम वहां कवि जुटते थे। यहीं उनका परिचय राजकपूर से हुआ और वे राजकपूर की फिल्मों के लिये गीत लिखने लगे। उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुये कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया। इस टीम में थे- शंकर-जयकिशन, हसरत जयपुरी अउर शैलेन्द्र। उन्होंने कुल मिलाकर करीब 800 गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय हुए। 'आवारा हूँ' (श्री 420); 'रमैया वस्तावैया' (श्री 420); 'मुड मुड के ना देख मुड मुड के' (श्री 420); 'मेरा जूता है जापानी' (श्री 420); 'आज फिर जीने की तमन्ना है' (गाईड); 'गाता रहे मेरा दिल' (गाईड); 'पिया तोसे नैना लागे रे' (गाईड); 'क्या से क्या हो गया' (गाईड); 'हर दिल जो प्यार करेगा' (संगम); 'दोस्त दोस्त ना रहा' (संगम); 'सब कुछ सीखा हमने' (अनाडी); 'किसी की मुस्कराहटों पे' (अनाडी); 'सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है' (तीसरी कसम); 'दुनिया बनाने वाले (तीसरी कसम) आदि लोकप्रिय गीत हैं। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया और भारत को विदेशों की धरती तक पहुँचाया।
आम जन की भावनाओं को भी उन्होंने अपनी रचनाओं में सहज स्थान दिया है। आज़ादी के बाद उनकी एक कविता "भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिये आज भी सज़ा मिलेगी फांसी की" पर सरकार ने पाबंदी लगा दी थी ये कहकर की ये आम जनों में विद्रोह की भावना जगाती है। उन्होंने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिये नारा दिया -”हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है।" यह नारा आज भी हर मजदूर के लिए मशाल के समान है।
मुम्बई में उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु की अमर कहानी ”मारे गए गुलफाम” पर आधारित ”तीसरी कसम” फिल्म बनायी। फिल्म की असफलता और आर्थिक तंगी ने उन्हें तोड़ दिया। वे गंभीर रूप से बीमार हो गये और आखिरकार 14 दिसंबर, 1967 को मात्र 46 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गयी। फिल्म की असफलता ने उन पर कर्ज का बोझ चढ़ा दिया था। इसके अलावा उन लोगों की बेरुखी से उन्हें गहरा धक्का लगाए जिन्हें वे अपना समझते थे। अपने अन्तिम दिनों में वे शराब के आदी हो गए थे। बाद में ‘तीसरी कसम’ को मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भारत की आधिकारिक प्रविष्ठी होने का गौरव मिला और यह फिल्म पूरी दुनिया में सराही गयी। पर अफसोस शैलेन्द्र इस सफलता को देखने के लिए इस दुनिया में नहीं थे। शैलेन्द्र को उनके गीतों के लिये तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।
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लेखक - जितेंद्र कुमार |
लेखक - मृत्युंजय शर्मा |
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